Monday 1 October 2012

लोक हितकारी सितारे

वर्षों पूर्व एक ही दिवस परन्तु वर्षकाल का अंतर, दो सितारे भारत की पुण्य भूमि पर अवतरित हुए । दोनो ही विभूतियों ने लोगों में भाई-चारा, शान्ती, सत्य़ एवं अहिंसा का संदेश स्वयं के शालीन एवं सौम्य कर्तव्यों के माध्यम से जन मानस में जागृति का आह्वान किया।
एक अहिंसा का पुजारी और एक राष्ट्रप्रेम की सच्ची प्रतिमा और दोनों का जन्मदिवस एक साथ ये एक बड़ा सुखद संयोग है।
दोनो ही विभूतियों के लिये लोकहित सर्वोपरी था। गाँधी जी के जीवन की एक प्रमुख घटना उनके लोककारी होने को परलाक्षित करती है--
एक बार गाँधी जी रेल से यात्रा कर रहे थे। वो जिस डिब्बे में थे उसमें बारिश का पानी रिस रहा था। जब गार्ड को पता चला तो वह गाँधी जी के पास आया और बोला कि आप दूसरे डिब्बे में चल कर बैठ जाइये। गाँधी जी ने पूछा कि क्या ये डिब्बा खाली हो जयेगा।
गार्ड- नहीं यहाँ दूसरे लोग आजायेंगे।
गाँधी जी- दूसरे लोगों को भी तो असुविधा होगी।
गार्ड- आपकी तुलना औरों से नही हो सकती।
गाँधी जी- दूसरे डिब्बे में जाकर बैठने पर मैं ये सोचता रहुँगा कि मेरी वजह से दूसरे लोगों को तकलीफ हुई, उस तकलीफ से तो अच्छा है कि मैं इसी डिब्बे में रहूँ। अगर आप चाहते हैं कि मेरी यत्रा आराम से हो तो आप सभी यात्रियों का ध्यान रखें।
दूसरों की सुविधा का ख्याल रखने वाले महापुरूष गाँधी जी से प्रभावित होकर, मांटेग्यू और विस्काउन्ट सेमुअल ने कहा है कि--
मांटेग्यू ने गांधी जी को 'हवा में रहने वाला शुद्ध दार्शनिक' कहा था, लेकिन उसी दार्शनिक ने अंग्रेज़ साम्राज्य की जड़ें हिला दीं तथा समाज में मौलिक परिवर्तन कर दिया।
विस्काउन्ट सेमुअल ने गांधी जी के बारे में कहा है कि "गांधी जी ने अपना नेतृत्व प्रदान कर भारतीय जनता को अपनी कमर सीधी करना सिखाया। अपनी आंखें ऊपर उठाना सिखाया तथा अविचल दृष्टि से परिस्थितियों का सामना करना सिखाया।"
सचमुच महात्मा गाँधी भारतीय राजनीति और राष्ट्र के महान स्रोत थे। विश्व पटल पर महात्मा गाँधी को शान्ति और अहिंसा के प्रतीक रूप में सदैव याद किया जायेगा।
शास्त्री जी को भी उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धा पूर्वक याद करता है। उन्हे वर्ष 1966 मे भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
हम सभी को अपने-अपने क्षेत्रों में उसी समर्पण, उत्साह, और संकल्प के साथ काम करना होगा जो रणभूमि में एक योद्धा को प्रेरित और उत्साहित करती है। यह सिर्फ बोलना नहीं है, बल्कि वास्तविकता में कर के दिखाना है। अपने इन्ही विचारों को शास्त्री जी ने जीवन में आत्मसात भी किया। ऐसे सुविचारक शास्त्री जी,
 एक बार रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे। उनकी सीट प्रथम श्रेणी के डिब्बे में थी। वे उस ओर जा ही रहे थे कि उन्हें एक अत्यधिक बीमार व्यक्ति दिखा। उन्हें उस पर दया आ गई, क्योंकि उसमें चलने की भी ताकत नहीं थी। शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं। शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए।
सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाले शास्त्री जी के लिये लोकहित सर्वोपरी था।
भारत को "जय जवान जय किसान" का मंतर देने वाले देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जब गृहमंत्री थे तो उनके पास अपना मकान तक नहीं था। वह इलाहाबाद में किराये के मकान में रहा करते थे । इस कारण लोग  उन्हें, बिना मकान का गृहमंत्री कहा करते थे।
शास्त्री जी जब उत्तर प्रदेश के प्रहरी एवं यातायात मंत्री थे, तब उन्होनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ करावा कर मानवता की अनूठी मिसाल पेश की।
सादा जीवन उच्च विचार के धनी शास्त्री जी एक कर्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक थे। अखबारी प्रचार प्रसार में विश्वास नही रखते थे। मित्रों, उनकी सादगी से जुङी एक घटना याद आ रही है—
एक बार की बात है कि एक स्वयं सेवक ने शास्त्री जी से पूछा कि, भाई आपको आखिर अखबारों में अपना नाम छपवाने से इतना परहेज क्यों है ?
शास्त्री जी ने कहा कि मित्र, आज भी मुझे लाला लाजपत राय के शब्द याद हैं। उन्होने सोसाइटी के लिये कार्य की दिक्षा देते हुए कहा था कि, लाल बहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं, एक बढियां संगमरमर है, जिसके मेहराब और गुम्बद बने हैं, दुनिया उन्ही की प्रशंसा करती है। दूसरे हैं नींव का पत्थर, जिनकी कोई प्रशंसा नही करता।
बङी विनम्रता से शास्त्री जी ने अपनी मंशा जाहिर की- मेरे मित्र, मैं नीव का पत्थर ही बना रहना चाहता हूँ।
ऐसे सरल विचारो वाले शास्त्रीजी को कभी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही। उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब शास्त्रीजी ने इस बात का सबूत दिया। इसीलिए उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता था कि वे अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे। ऐसे अदभुत व्यक्तित्व के धनी शास्त्री जी ने भारत माता को सदैव गौरवान्वित किया है।
आज के राष्ट्रीय पर्व के शुभ अवसर पर दोनों ही विभूतियों को शत् शत् नमन्।

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