मित्रो, जिस तरह से आज समाज में बाल अपराध बढ रहे हैं और नाबालिग बच्चे, ऐसे जघन्य अपराध को अंजाम दे रहे हैं, वो किसी भी सभ्य समाज के लिये कलंक से कम नही है। आज के वातावरण को देखते हुए किशोर न्याय अधिनियम 2014 संशोधन बिल पर कैबिनेट की मोहर एक सार्थक कदम है। पिछले कुछ वर्षों से नाबालिग बच्चों द्वारा हत्या, दुश्कर्म तथा तेजाबी हमले तेज हुए हैं लेकिन उन्हे पुराने अधिनियम के अनुसार सख्त सजा का प्रावधान नही था जिससे अपराधिक मानसिकता की प्रवृत्ति ने निर्भया जैसी घटना को अंजाम दिया। आज भी देश निर्भया कांड को याद करके सिहर जाता है। आठवीं में पढने वाला बालक अपनी शिक्षिका की रिवाल्वर से हत्या कर देता है तो कहीं 10 से 12 वर्ष के बालक अपने साथी का अपहरण करके उसकी हत्या कर देते हैं। पिछले कुछ वर्षों से तो, लङकियों और महिलाओं पर नाबालिग किशोरों द्वारा तेजाबी मानसिकता का कहर कुछ ज्यादा ही हो रहा है। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि, किसी भी अपराध की सजा उसकी जघन्यता के आधार पर होनी चाहिये न की उम्र या लिंग के आधार पर । जिस दिन जे जे एक्ट संशोधन विधेयक पर संसद की मुहर लग जायेगी उस दिन से शायद इस तरह के अपराध में कमी आयेगी।
दोस्तों, मेरे मन में बाल अपराध को लेकर कुछ मंथन चल रहा है इसलिये मैने अपनी पूर्व की लाइन में शायद शब्द का इस्तमाल किया है क्योंकि ये जो बाल अपराध का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ रहा है, उसके लिये जिम्मेदार क्या सिर्फ नाबालिग बच्चे हैं ! या समाज और परिवार भी। आज हम सब एक सभ्य सुंदर और सुसंस्कृत भारत की कल्पना करते हैं। सुरक्षित वातावरण की भी कामना रखते हैं किन्तु अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को दरकिनार कर देते हैं। मेरा मानना है कि, कोई भी शिशु जन्म से अपराधी नही होता उसके लिये अनेक कारण समाज में विद्यमान हैं। हमारा कानून भी इस बात को मानता है कि, बालकों में बढ रही अपराधिक मनोवृत्ति के पीछे सामाजिक ढांचा भी जिम्मेदार है। आज तो आलम ये हो गया है कि, संभ्रान्त परिवार के बालक भी अनेक अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। किसी भी समाज की पहली ईकाइ होती है परिवार जहाँ बालक का प्रारंभिक विकास होता है। आज-कल अक्सर देखने को मिल रहा है कि, बच्चे की परवरिश बहुत आधुनिक ढंग से हो रही है। वास्तव में (Actully) आधुनिकता गलत नही है बल्कि आधुनिकता का अधुरा ज्ञान दिमक की तरह समाज को खोखला कर रहा है। आज बच्चों के हाँथ में इंटरनेट से सुसज्जित मोबाइल, आई पेड और स्कूल जाने के लिये बाइक या कार कानूनी उम्र सीमा से पहले ही परिवार द्वारा मिल जाती है। यदि स्कूल या ट्राफिक नियम इसे रोकते हैं तो परिवार द्वारा हर्जाना भर दिया जाता है। ऐसे ही छोटे-छोटे अपराधों को कई परिवारों का सपोर्ट मिलता है और बच्चों का कानून से डर खत्म हो जाता है। इसके अलावा समाज में व्याप्त फिल्मों तथा विज्ञापनों का खुलापन एक नासूर की तरह अपरिपक्व बच्चों को डस रहा है। जिसका परिणाम आज का बढता बाल-अपराध है। यदि शुरुवात में ही छोटे-छोटे अपराधों को अभिभावकों द्वारा रोका जाए तो एक हद तक बच्चों में सुधार लाया जा सकता है।
आज के बालक हमारे भारत देश का भविष्य हैं। अतः हम सबको मिलकर भविष्य के कर्णधार की नींव को सुसंस्कारों से पल्लवित करना है। बाल्यकाल की गलतियों को बढावा देने की बजाय समय रहते ही उसे सुधारना हम सबकी नैतिक और आवश्यक जिम्मेदारी है।
Children are like different type of flowers, So irrigate them good manners and make this world a beautiful garden
नोटः- दिये गये लिंक को अवश्य पढें, धन्यवाद
बदलता बचपन जिम्मेदार कौन ????
दोस्तों, मेरे मन में बाल अपराध को लेकर कुछ मंथन चल रहा है इसलिये मैने अपनी पूर्व की लाइन में शायद शब्द का इस्तमाल किया है क्योंकि ये जो बाल अपराध का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ रहा है, उसके लिये जिम्मेदार क्या सिर्फ नाबालिग बच्चे हैं ! या समाज और परिवार भी। आज हम सब एक सभ्य सुंदर और सुसंस्कृत भारत की कल्पना करते हैं। सुरक्षित वातावरण की भी कामना रखते हैं किन्तु अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को दरकिनार कर देते हैं। मेरा मानना है कि, कोई भी शिशु जन्म से अपराधी नही होता उसके लिये अनेक कारण समाज में विद्यमान हैं। हमारा कानून भी इस बात को मानता है कि, बालकों में बढ रही अपराधिक मनोवृत्ति के पीछे सामाजिक ढांचा भी जिम्मेदार है। आज तो आलम ये हो गया है कि, संभ्रान्त परिवार के बालक भी अनेक अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। किसी भी समाज की पहली ईकाइ होती है परिवार जहाँ बालक का प्रारंभिक विकास होता है। आज-कल अक्सर देखने को मिल रहा है कि, बच्चे की परवरिश बहुत आधुनिक ढंग से हो रही है। वास्तव में (Actully) आधुनिकता गलत नही है बल्कि आधुनिकता का अधुरा ज्ञान दिमक की तरह समाज को खोखला कर रहा है। आज बच्चों के हाँथ में इंटरनेट से सुसज्जित मोबाइल, आई पेड और स्कूल जाने के लिये बाइक या कार कानूनी उम्र सीमा से पहले ही परिवार द्वारा मिल जाती है। यदि स्कूल या ट्राफिक नियम इसे रोकते हैं तो परिवार द्वारा हर्जाना भर दिया जाता है। ऐसे ही छोटे-छोटे अपराधों को कई परिवारों का सपोर्ट मिलता है और बच्चों का कानून से डर खत्म हो जाता है। इसके अलावा समाज में व्याप्त फिल्मों तथा विज्ञापनों का खुलापन एक नासूर की तरह अपरिपक्व बच्चों को डस रहा है। जिसका परिणाम आज का बढता बाल-अपराध है। यदि शुरुवात में ही छोटे-छोटे अपराधों को अभिभावकों द्वारा रोका जाए तो एक हद तक बच्चों में सुधार लाया जा सकता है।
आज के बालक हमारे भारत देश का भविष्य हैं। अतः हम सबको मिलकर भविष्य के कर्णधार की नींव को सुसंस्कारों से पल्लवित करना है। बाल्यकाल की गलतियों को बढावा देने की बजाय समय रहते ही उसे सुधारना हम सबकी नैतिक और आवश्यक जिम्मेदारी है।
Children are like different type of flowers, So irrigate them good manners and make this world a beautiful garden
नोटः- दिये गये लिंक को अवश्य पढें, धन्यवाद
बदलता बचपन जिम्मेदार कौन ????
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