सदियों का सफर तय करते हुए भारतीय सिनेमा आधुनिक
तकनिकों को अपनाते हुए कई सफल फिल्मों का प्रर्दशन कर रहा है। दादा साहेब फालके की
मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र से शुरू हुई यात्रा साहित्य, नृत्य, नाट्य, चित्रकला,
एवं सामाजिक भावनाओं को समेटे अपनी कामयाबी की इबारत जनमानस के रग-रग में संचार
करने में कामयाब रही।
दादा साहेब फालके
अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखे। वह फिल्म “ल्युमेरे ब्रदर्स” की फिल्मों की तरह लघु
चलचित्र न होकर लंबी फिल्म थी। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में
पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई।
स्वदेश आकर उन्होंने “राजा हरिश्चंद्र” बनाई। इस चलचित्र ने ध्वनिरहित होने के
बावजूद भी लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब तारीफ की। फिर तो
चलचित्र निर्माण ने भारत के एक उद्योग का रूप धारण कर लिया और तीव्रता पूर्वक उसका
विकास होने लगा।
1930 के आसपास चलचित्रों
में ध्वनि के समावेश करने की तकनीक विकसित हो जाने से बोलती फिल्में बनने लगीं। “आलम आरा” भारत की पहली सवांद
फिल्म थी जो कि सन् 1931 में प्रदर्शित हुई। ऐतहासिक और पौराणिक कथाओं के अलावा
कुछ सामाजिक पहलुओ पर भी फिल्में बनी। 1970 के बाद से व्यवस्था के विरुद्ध सवाल भी
उठाये गये। कहते हैं, सिनेमा समाज का दर्पण है किन्तु ये भी सत्य है कि फिल्मों से समाज
प्रभावित होता है। कहानियां काल्पनिक हों या वास्तविक उनकी अभिव्यक्ति का असर समाज
पर सकारात्मक और नकारात्मक भी होता है। 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद तो सिनेमा
में अद्भुत परिवर्तन हुए। आधुनिक तकनीक के साथ पाश्चात्य शैली और सोच का भी असर
फिल्में पर हुआ। समय की बहती धारा में हिन्दी सिनेमा ने समाज में
प्रचलित कई रूढीवादी परम्पराओं को भी तोङा है। वास्तविक जिंदगी में प्रेम पर अनेक
अंकुश है फिर भी 10 में से 9 फिल्में प्रेम पर आधारित है। दोस्तों को नए अर्थ मिल
रहे हैं, समलैंगिग रिश्तों पर खुलकर बात हो रही है। तो सवाल ये उठता है कि आधुनिक सोच के
बावजूद ‘अभिमान’ और ‘आशिकी 2’ जैसी कुछ फिल्में पुरूष प्रधान सोच को आज भी परदे पर सचित्र क्यों कर रही
हैं? स्त्री वर्ग को आगे बढते हुए देखकर पुरूषों को जो हीन
भावना का डर (Inferiority Complex) होता है वो आज के
आधुनिकता में रंगे युवा में भी दिखता है क्योंकि सामाजिक सोच की जङों में व्याप्त लङका
और लङकी में अंतर आज भी दिखाई देता है। समाज की इस संकीर्ण मानसिकता का वायरस कुछ
युवकों को अभी बिमार नही कर सका है, आज की फिल्में उन चंद ही
सही सकारात्मक संदेशों को क्यों नही दिखाती? समाज अपने पसन्द
के कलाकारों की लगभग सभी बातें अपने जीवन में जीने का प्रयास करता है। समाज को
स्वस्थ मानसिकता प्रदान करना फिल्म की भी जवाबदारी है। बदलते समय में हर रिश्ते
में कई परिर्वतन हुए हैं। इन बदलाव को फिल्म के माध्यम से समाज का हर वर्ग परचित
हो रहा है। एक दौर वो भी था जब फिल्मों ने जनमानस को देशप्रेम में रंग दिया था।
शिक्षा के सुअवसर ने स्त्रियों को अपनी पहचान बनाने की ताकत दी है। आज वे
स्वाभाविकता में स्वीकारा जाना चाहती है। घर, परिवार की भी उन्हे फिक्र है। ऑफिस
में बैठे-बैठे घर के डिनर को चुटकियों में मैनेज कर लेती है। अपनी पहचान के साथ
खुद पर गर्व करना चाहती है ताकि समाज में बेटियों को बोझ न समझा जाये, वो चाहती है
कि उसके बच्चे उस पर गर्व करें।
आज की आधुनिक तकनिकों के रंग में रंगे सिनेजगत से
यही अपेक्षा है कि वो युवाओं को स्त्रियों की तरक्की को खुले दिल से स्वागत करना
सिखाए। उन्हे सिर्फ उपभोग की वस्तु न दिखाएं। समाज और कानून द्वारा ये बात अक्सर कही जाती है
कि स्त्री पुरूष बराबर हैं किन्तु ये कथन तभी सत्य होंगे जब सोच में भी परिवर्तन
हो। जिसे सिनेमा स्वस्थ मानसिकता के साथ समाज और देश के निर्माण में उनके योगदान
को चित्रित करके आधुनिकता की नई इबारत लिख सकता है क्योंकि फिल्मों का इंसानी जीवन
पर बहुत गहरा असर होता है। पिछले दिनों सुप्रिम कोर्ट ने समाज के बदलाव में अहम
भूमिका अदा की है। अब फिल्मों को भी अपने दायित्व का निर्वाह करना है, क्योंकि यदि
समाज फिल्मों को विषय देता है तो, समाज भी फिल्मों में प्रसारित चरित्रों को अपने
रक्त और अस्थियों में अपना लेता है।