Friday, 28 June 2013

सिनेमा और समाज



सदियों का सफर तय करते हुए भारतीय सिनेमा आधुनिक तकनिकों को अपनाते हुए कई सफल फिल्मों का प्रर्दशन कर रहा है। दादा साहेब फालके की मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र से शुरू हुई यात्रा साहित्य, नृत्य, नाट्य, चित्रकला, एवं सामाजिक भावनाओं को समेटे अपनी कामयाबी की इबारत जनमानस के रग-रग में संचार करने में कामयाब रही।
दादा साहेब फालके अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखे। वह फिल्म ल्युमेरे ब्रदर्स की फिल्मों की तरह लघु चलचित्र न होकर लंबी फिल्म थी। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई। इस चलचित्र ने ध्वनिरहित होने के बावजूद भी लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब तारीफ की। फिर तो चलचित्र निर्माण ने भारत के एक उद्योग का रूप धारण कर लिया और तीव्रता पूर्वक उसका विकास होने लगा।
1930 के आसपास चलचित्रों में ध्वनि के समावेश करने की तकनीक विकसित हो जाने से बोलती फिल्में बनने लगीं। आलम आरा भारत की पहली सवांद फिल्म थी जो कि सन् 1931 में प्रदर्शित हुई। ऐतहासिक और पौराणिक कथाओं के अलावा कुछ सामाजिक पहलुओ पर भी फिल्में बनी। 1970 के बाद से व्यवस्था के विरुद्ध सवाल भी उठाये गये। कहते हैं, सिनेमा समाज का दर्पण है किन्तु ये भी सत्य है कि फिल्मों से समाज प्रभावित होता है। कहानियां काल्पनिक हों या वास्तविक उनकी अभिव्यक्ति का असर समाज पर सकारात्मक और नकारात्मक भी होता है। 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद तो सिनेमा में अद्भुत परिवर्तन हुए। आधुनिक तकनीक के साथ पाश्चात्य शैली और सोच का भी असर फिल्में पर हुआ। समय की बहती धारा में हिन्दी सिनेमा ने समाज में प्रचलित कई रूढीवादी परम्पराओं को भी तोङा है। वास्तविक जिंदगी में प्रेम पर अनेक अंकुश है फिर भी 10 में से 9 फिल्में प्रेम पर आधारित है। दोस्तों को नए अर्थ मिल रहे हैं, समलैंगिग रिश्तों पर खुलकर बात हो रही है। तो सवाल ये उठता है कि आधुनिक सोच के बावजूद अभिमान और आशिकी 2 जैसी कुछ फिल्में पुरूष प्रधान सोच को आज भी परदे पर सचित्र क्यों कर रही हैं? स्त्री वर्ग को आगे बढते हुए देखकर पुरूषों को जो हीन भावना का डर (Inferiority Complex) होता है वो आज के आधुनिकता में रंगे युवा में भी दिखता है क्योंकि सामाजिक सोच की जङों में व्याप्त लङका और लङकी में अंतर आज भी दिखाई देता है। समाज की इस संकीर्ण मानसिकता का वायरस कुछ युवकों को अभी बिमार नही कर सका है, आज की फिल्में उन चंद ही सही सकारात्मक संदेशों को क्यों नही दिखाती? समाज अपने पसन्द के कलाकारों की लगभग सभी बातें अपने जीवन में जीने का प्रयास करता है। समाज को स्वस्थ मानसिकता प्रदान करना फिल्म की भी जवाबदारी है। बदलते समय में हर रिश्ते में कई परिर्वतन हुए हैं। इन बदलाव को फिल्म के माध्यम से समाज का हर वर्ग परचित हो रहा है। एक दौर वो भी था जब फिल्मों ने जनमानस को देशप्रेम में रंग दिया था। शिक्षा के सुअवसर ने स्त्रियों को अपनी पहचान बनाने की ताकत दी है। आज वे स्वाभाविकता में स्वीकारा जाना चाहती है। घर, परिवार की भी उन्हे फिक्र है। ऑफिस में बैठे-बैठे घर के डिनर को चुटकियों में मैनेज कर लेती है। अपनी पहचान के साथ खुद पर गर्व करना चाहती है ताकि समाज में बेटियों को बोझ न समझा जाये, वो चाहती है कि उसके बच्चे उस पर गर्व करें। 
आज की आधुनिक तकनिकों के रंग में रंगे सिनेजगत से यही अपेक्षा है कि वो युवाओं को स्त्रियों की तरक्की को खुले दिल से स्वागत करना सिखाए। उन्हे सिर्फ उपभोग की वस्तु न दिखाएं।  समाज और कानून द्वारा ये बात अक्सर कही जाती है कि स्त्री पुरूष बराबर हैं किन्तु ये कथन तभी सत्य होंगे जब सोच में भी परिवर्तन हो। जिसे सिनेमा स्वस्थ मानसिकता के साथ समाज और देश के निर्माण में उनके योगदान को चित्रित करके आधुनिकता की नई इबारत लिख सकता है क्योंकि फिल्मों का इंसानी जीवन पर बहुत गहरा असर होता है। पिछले दिनों सुप्रिम कोर्ट ने समाज के बदलाव में अहम भूमिका अदा की है। अब फिल्मों को भी अपने दायित्व का निर्वाह करना है, क्योंकि यदि समाज फिल्मों को विषय देता है तो, समाज भी फिल्मों में प्रसारित चरित्रों को अपने रक्त और अस्थियों में अपना लेता है। 

Saturday, 22 June 2013

आज का परिवेश और कबीर


  

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
      मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
कबीर दास जी ने जाति-पाँति के भेद को समाजिक कुरीतियाँ कहा है। उनके अनुसार इंसानियत ही जाति है और ज्ञान रूपी संस्कार ही किसी को महान बनाते हैं। आज के परिवेश में अगर देखें तो जाति, राजनीति का सबसे प्रमुख विषय है। जाति के नाम पर आरक्षण वोट की ऐसी रोटी है जिसे हर कोई खाना चाहता है। सृष्टी के रचयिता ने कोई भेद नही किया किन्तु जिस इंसान की रचना हुई उसमें ऐसे कई विकार आ गये जिसने इंसान को इंसान से अलग कर दिया। 
आज जब राजनीतिज्ञ हों या खाफ पंचायते जाँति-पाँति और ऊँच-नीच की दिवारों में इंसानियत को बाँध रहे हैं तब कुछ लोग कबीर पंथी न होते हुए भी कबीर की शिक्षाओं को आत्मसात करके सामाजिक एकरूपता को बढावा दे रहे हैं। कोटा में श्रीभारतीय अंतरजातीय संस्था एक ऐसे समाज का आकार ले रही है, जहाँ जाँत-पाँत और ऊँच-नीच की दिवारें नही है। 80 परिवारो की इस संस्था में ब्राहम्ण, जैन, राजपूत, खाती, माली, तेली, कोली और मोदी समाज के लोग भारत की अनेकता को एकता के सूत्र में बाँध रहे हैं। ये संस्था ऐसा अनूठा सामुहिक विवाह सम्मेलन आयोजित कर रही है जिसमें एक समाज का दूल्हा तो दूसरे समाज की दुल्हन। लेकिन प्रेम-विवाह या अन्य कारणों से कोई जोङां इस संस्था से जुङना चाहता है तो, उसे संस्था के नियम कानून को मानने के बाद ही सदस्यता दी जाती है। ये संस्था दहेज विरोधी है और मृत्युभोज न करने के लिये दृणसंकल्प है। सभी वर्गों की समानता के लिये धनि परिवार के युवक गरीब परिवारों की बेटियों से शादी करते हैं। पाखंड, कट्टरता ओर दिशाहीनता के समय में ये संस्था मानवतावादी सामाजिक परिकल्पना है। 
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर। 
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
कबीर दास जी सभी को समरसता की धार में ले जाना चाहते हैं। सबके लिये अच्छी भावना ही सभ्य समाज का गठन कर सकती है। जहाँ सब एक हैं तो वहाँ दोस्त और दुष्मन का विरोधाभास भी न रहेगा। प्रेम की वो धारा बहेगी जिसे पोथी पढने वाला शायद न समझ सके। प्रेम का ढाई अक्षर का ज्ञान इंसान को इंसानियत की शिक्षा देता है। 
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। 
सामाजिक जीवन में व्याप्त जाति-भेद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास और आडंबर आदि को मिटाने का कबीर सदैव प्रयास करते रहे। आर्दश जीवन के लिये नीतिपूर्ण उपदेश भी दिये। धर्म के नाम पर होने वाली नर बली और पशुवध को घृणित माना। आज के एकांकी वातावरण में कबीर की शिक्षाएं अपनाने की अति आवश्यकता है। जहाँ दया, करुणा, अतिथि सत्कार जैसे मानवीय व्यवहार विलुप्त हो रहे हैं। कथनी और करनी के समन्वय पर और सदाचारपूर्ण जीवन पर कबीर दास जी ने बल दिया था। कबीर के काव्य में उपस्थित इस्लाम के एकेश्वरवाद, भारतीय दैव्तवाद, योग-साधना, बौद्ध साधना एवं वैष्णवों की शरणागत भावना और अहिंसा को अपनाकर हम आज के अशुद्ध वातावरण को शुद्ध कर सकते हैं। कबीर के उपदेशों के आधार पर नवीन समन्वित एवं सन्तुलित समाज की संरचना सम्भव है

Sunday, 9 June 2013

भ्रष्टाचार की गंगोत्री

सदियों से मानव ऐसे समाज की कल्पना करता रहा है जहाँ कोई अपराध न हो, सभी व्यवस्थाएं आदर्श के अनुरूप सुचारू रूप से चलती रहे। ऐसी कल्पना मन को बहुत सुख देती थीं। किन्तु, आज के महत्वाकांक्षी समाज में आर्दश मूल्य जैसे शब्द केवल किताबों की शोभा ही रह गये हैं। आज के परिवेश में तो भ्रष्टाचार और घोटाले तो गंगा-जमुना में गोते लगाने जैसा हो गया है, जहाँ हर व्यक्ति डुबकी लगाना चाहता है।

आजादी के पूर्व अंग्रंजों ने ऐसा सिलसिला शुरु किया जो आज सुरसा के मुख से भी बङा हो गया है। अंग्रेज भारत के रईसों को धन देकर अपने ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए कहा करते थे और ये रईस ऐसा ही करते थे। यह भ्रष्टाचार वहीं से प्रारम्भ हुआ और तब से आज तक लगातार फल फूल रहा है। पहले भ्रष्टाचार के लिए परमिट-लाइसेंस राज को दोष दिया जाता था, पर जब से देश में वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण, विदेशीकरण, बाजारीकरण एवं विनियमन की नीतियां आई हैं, तब से घोटालों की बाढ़ आ गई है। इन्हीं के साथ बाजारवाद, भोगवाद, विलासिता तथा उपभोक्ता संस्कृति का भी जबर्दस्त हमला शुरू हुआ है। भ्रष्टाचार का वायरस दिन-प्रतिदिन राष्ट्र के अस्तित्व को दिमक की तरह खोखला कर रहा है।
संविधान निर्माताओं ने इस देश के राजनैतिक परिदृश्य को लोकतंत्र का नाम दिया, उन्हे क्या पता था कि बहुत जल्द ही लोकतंत्र, भ्रष्टतंत्र में तबदील हो जायेगा। आज भारत का लगभग सभी खण्ड भ्रष्टाचार की विषैली धुंध में सांस ले रहा है। अस्सी के दशक से पहले तो कुछ एक घोटाले हुए थे किन्तु उसके बाद तो घोटाले रूपी राक्षस ने रक्तबीज राक्षस की तरह इस तरह अपना प्रभाव दिखाया कि एक को खत्म करने पर अनेक राक्षसों का अस्तित्व सामने आ रहा है। आलम ये है कि आज तो घोटाले प्रतियोगिता का अखाङा बन गये हैं। किसका घोटाला कितना अधिक बङा है या शक्तिशाली है ये साबित करने के लिये नित नये रेर्काड बनाये जा रहे हैं। बोफोर्स घोटाला (64 करोड़ रुपए), चारा घोटाला (950 करोड़ रुपए),शेयर बाजार घोटाला (4000 करोड़ रुपए) या आर्दश घोटाला हो या कोयला घोटाला ऐसे सभी नये घोटाले कामयाबी की इबारत लिख रहे हैं। कहते हैं, ह्रदय में कोई विकार आ जाये तो शरीर के अस्तित्व को खतरा हो जाता है। राजनीति भी हर राष्ट्र का ह्रदय होती है, आज भ्रष्टाचार और घोटालों के वायरस से ग्रसित राजनीति से पूरे देश का ढांचा बिमार हो रहा है। कहते हैं, यथा राजा तथा प्रजा तो जब राजा ही कुशासक हो जाये तो सुशासन तो एक स्वपन ही रह जाता है। आज तो बहती गंगा में सभी अपना हाँथ धो रहे हैं। आई पी एल जैसे खेल भी भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगा कर अपने को धन्य समझ रहे हैं।

मित्रों, विदेषी लुटेरों को तो हम सब मिल कर फिर भी भगा दिये किन्तु उन अपनो का क्या करें जो अपने हित के लिये अपनो का ही गला काट रहे हैं, जरा सोचिए !