Sunday 31 March 2013

सपनों का विचित्र संसार



चंद अनजाने चेहरे, दु:ख और भय के नाद या कुछ धुधंले संकेत मन की परतों से निकल कर स्वपन बनकर छा जाते हैं। कहते हैं कि बंद पलकों के पीछे एक मायावी दुनिया बसती है, जो किसी मृगमरिचिका से कम नहीं है। हिन्दु धर्मशास्त्रों- अथर्ववेद, योगसूत्र, पुराण उपनिषद आदि में स्वपन का आध्यात्मिक विश्लेषण मिलता है जो कहता है कि स्वपन की क्रिया आत्मा से जुङी है, और आत्मा परमात्मा का रूप है। मशहूर मनोवैज्ञानिक फ्रायड की प्रसिद्ध पुस्तक द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स के अनुसार सपने दो तरह के होते हैं- पहले वो जो साफ दिखते हैं एवं उनका रोज के जीवन से सीधा संबन्ध होता है। दूसरे सपने वो होते हैं जो मस्तिष्क में छुपी बातों को स्पष्ट करते हैं।

कहा जाता है कि ईसा मसीह सपनों को पढना जानते थे। वह अक्सर लोगों द्वारा देखे सपनों की सांकेतिक भाषा को सही-सही बता देते थे। जो सदैव सत्य होते थे। सपना एक स्वाभाविक घटना है यह सभी को आते हैं। ये अलग बात है कि जागने के 5 मिनट के भीतर ही कुछ लोग अपने द्वारा देखे गये आधे सपनों को भूल जाते हैं और 10 मिनट के भीतर लगभग 90% सपनों को। कई लोगों का मानना है कि सपनों का कुछ न कुछ अर्थ होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, हर सपना कुछ न कुछ कहता है। एक अध्ययन के अनुसार, 74 फीसदी भारतीय, 65 फीसदी कोरियाई और 56 फीसदी अमेरिकी मानते हैं कि सपने हमारे अचेतन मस्तिष्क के अंग हैं। मशहूर वैज्ञानिक फ्रायड भी इस बात से सहमत हैं। ऐसा मानना है कि मानव शरीर के अंदर दो प्रकार की स्थितियां होती हैं, चेतन और अवचेतन मन। चेतन मन का संबन्ध बाहरी दृश्य एवं परिवेश से होता है, वहीं आंतरिक मन का पूर्व जन्म से संबन्ध होता है।

भारत के महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन को स्वपन ने राह दिखाई थी। एक बार वो पाई के फॉर्मूले में अटक गये, समझ नही आ रहा था कि इस समीकरण को कैसे हल करें। रात में जब वे गहरी नींद में थे, तभी सपने में उन्हे देवी नामक्कल के दर्शन हुए। बहते खून की लालरंग की स्क्रीन दिखी। एक हाँथ उभरा, जिसने स्क्रीन पर लिखना शुरु किया। ये तो वही समीकरण था, जिसमें वो उलझे हुए थे, देखते ही देखते हाँथ ने जवाब भी निकाल दिया। रामानुज नींद में भी उसे समझते रहे। वो तुरंत उठे एवं उसे कागज पर उतार दिये। इस तरह उन्होने गणित को नई प्रमेय दी।

विज्ञान के अनुसार सभी स्तनधारी और जानवर सपने देखते हैं, किन्तु पुराणों के अनुसार सभी जीवधारियों में केवल मनुष्य ही स्वपन देख सकता है। एक शोध के अनुसार ये जानकर आश्चर्य होगा कि अंधे लोग भी सपने देखते हैं। वे लोग, जो जन्म से अंधे नहीं होते, अपने सपनों में चित्र, प्रतिबिंब, छाया आदि देख सकते हैं किन्तु जन्मांध लोग आंख को छोड़ कर अन्य इंद्रियों के क्रियाकलाप से सम्बन्धित विषयों जैसे कि ध्वनि, गंध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध सपने देखते हैं।

सपने के चमत्कारी प्रभाव का असर प्रसिद्ध जर्मन मनोवैज्ञानिक आटो लोवेई, के जीवन पर भी हुआ। 1903 में उनके दिमाग में एक आइडिया आया और वे (लोवोई) नसों में केमिकल ट्रांसमिशन पर काम करने लगे। बहुत कोशिश किये किन्तु सफल न होने पर निराश होकर उसे छोङ दिये। सत्रह साल बाद उन्हे सपने में इसका समाधान दिखा। सपने में बताये तरीके से न केवल इसका सफल प्रयोग किया, बल्की चिकित्सा जगत में क्रांती ला दी और 1936 में नोबेल पुरुस्कार के हकदार बने।
सपनो की कौतुहलता को शान्त करने के लिये लगातार शोध हो रहा है। लेकिन गुत्थियाँ सुलझ नही पा रहीं। विज्ञान तक के लिये स्वपन एक पहेली है। प्राचीन समय में तो सपनों के जरिये इलाज भी होता था, जिसे ड्रीम थैरिपी कहा जाता था। सपने द्वारा जब भविष्य के प्रति सचेत करने की बात की जाती है तो, अमेरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का बयान स्वतः ही ध्यान में आ जाता है। उन्होने अपनी मौत को 10 दिन पहले ही सपने में देखा था। उन्होने देखा कि व्हाइट हाउस में मातम छाया है। हर कोई रो रहा है। सपने में ही उन्होने व्हाइट हाउस के गार्ड से पूछा कि यहाँ क्या हुआ है, तो गार्ड ने कहा हमारे राष्ट्रपति नही रहे। अपने सपने का जिक्र उन्होने कैबिनेट की मिटिंग में भी किया था। कई बार कुछ सपने अपने प्रियजनों पर आने वाली विपदा का आभास करा देते हैं। जूलीयस सीजर की पत्नी को पति की हत्या से पूर्व रात को सपना दिखा था कि वह पति के शव पर रो रही है। अगले दिन सीजर को दरबार न जाने के लिये बहुत कोशिश की किन्तु सीजर नही माना और दरबार चला गया जहाँ ब्रूट्स ने उसकी हत्या कर दी। इस तरह के सपनो के कई उदाहरण हैं जो अनिष्ट की घटना से आगाह कर देते हैं। मनोवैज्ञानिक डॉ. हैफनर मोर्स के अनुसार लगातार कोशिशों द्वारा सुषुप्त मस्तिष्क को जगाकर दिव्य दृष्टी प्राप्त की जा सकती है।
मित्रों, जीवन में घटी कुछ घटनाओं के आधार पर सपनों की इस हकिकत पर हमें भी विश्वास है किन्तु वैज्ञानिक साक्ष्य के अभाव के कारण अभी कई लोग पूर्णतः यकीन नही करते।

सपनों की दुनिया बहुत रंगीन और खूबसूरत भी होती है। कहीं किसी को अपना राजकुमार दिखता है, तो कोई अपनी उलझनों को सुलझा लेता है। फिल्मी गीतों में  सपनो की अपनी अलग दुनिया है जो ज्यादातर खुशी का ही एहसास कराती है। वास्तव में आदमी सपनों में अपने चेतन तथा अचेतन में उभरी कल्पनाओं को साकार होते देखता है। अचंभो और अचरज जिज्ञासाओं से भरी सपनो की दुनिया में हर तरह के रंग हैं। सच बात तो ये है कि सपने जीवन में बहुत जरूरी हैं। आँख खोलकर देखे जाने वाले सपने सफलता के लिये प्रोत्साहित करते हैं और कई बार आँख बंद कर देखे जाने वाले सपने अक्सर भविष्य के पथ प्रदर्शक बन जाते हैं।
मित्रों, ज़िन्दगी के लिए सपने ज़रूरी है क्योंकि महान सपने देखने वालों के सपने हमेशा पूरे होते हैं। प्रख्यात शख्सियतों के संदेश के साथ कलम को विराम देते हैं।

डॉ. अब्दुल कलाम के अनुसारः- सपने देखना बेहद जरुरी है, लेकिन केवल सपने देखकर ही मंजिल को हासिल नहीं किया जा सकता, सबसे ज्यादा जरुरी है जिंदगी में खुद के लिए कोई लक्ष्य तय करना|”
वाल्ट डिज़नी के अनुसारः- हमारे सभी सपने सच हो सकते हैं, यदि हम उन्हें पूर्ण करने का साहस दिखाएं तो

Monday 25 March 2013

होली की बधाई




रंगो के त्योहार में सभी रंगो की भरमार है। मुगलकालीन शासकों की ईद-ए-गुलाबी  होली हो या गोपीयों संग कृष्ण की लठ्ठमार होली। इसके सभी रंगों से हर कोई जोश में भर जाता है। होली के इंद्रधनुषी रंगो की फिजा से उमंग और अपनेपन का रंग इस तरह चढ जाता है कि सारे गिलेशिकवे सब भूल जाते हैं और पूरी फिज़ा प्यार के गुलाल में रंग जाती है।

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली के रंगो की छटा नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों में भी देखने को मिलती है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है।

गोपियों संग कृष्ण की होली में तो आज भी पूरा बृज रंगो की मस्ती में सराबोर है। फिल्मी गीतों के जादू ने आमलोगों में कृष्ण के रंगो को और भी पक्का कर दिया। मदर इण्डिया का होली आई रे कन्हाई हो या गोदान का बिरज में होली खेलत नंदलाला जैसे गीत कृष्ण और राधा की होली को सजीव कर देते हैं।

सौ वर्षों के सफर में हिन्दी फिल्मी गीतों ने सिनेमाई पर्दे पर ही नही बल्की दर्शकों के जीवन में भी रंग भर दिये हैं। फिल्मी कैनवास पर सामाजिक जागरुकता हो या भारतीय संस्कृति की  बात जीवन के सभी रंगो को गीतों के माध्यम से लिखा गया हैं। कुछ गाने सामजिक रूढीयों को तोङते हुए समाज में जागृति का संदेश देते हैं। कटीपतंग का गीत " आज ना छोडेँगेँ बस हमजोली, खेलेँगेँ हम होली " को भूलाया नही जा सकता। सदी के नायक अमिताभ जब हेमा के साथ होली के गाने पर थिरकते हैं तो होली का रंग और गहरा हो जाता है। फिल्म बागबान का गाना, होली खेले रघुबीरा बच्चे, बूढे और जवान सभी को नाचने पर मजबूर कर देता है

भांग, ठंडई और गुलाल का नशा इस कदर सर चढ कर बोलता है कि रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे जैसे गीत एक अजब ही छेङ-छाङ को रंग देते हैंहोली के दिन , दिल खिल जाते हैँ, रँगोँ मेँ रँग मिल जाते हैँ,” शोले का ये गीत होली को भाई-चारे के रंग में रंग देता है। फिल्म नवरँग  में जब  नायिका उलाहना देती हुई गाती है अरे जा रे हट नटखट, ना छू रे मेरा घुँघट, पलट के दूँगी, आज तुझे गाली रे, मुझे समझो ना तुम, भोली भाली रे, तो नायक मस्ती भरे स्वर मेँ पलट कर गाता है, आया होली का त्योहार , उडे रँग की बौछार, तू हे नार नखरेदार, मतवाली रे, आज मीठी लगे रे तेरी गाली रेऐसी नोक-झोक त्योहार को और भी खुशनुमा बना देती है। होली के रंग में रंगे लोग जब इन फिल्मी गाने पर थिरकते हैं तो होली का रंग और भी चटख हो जाता।

मित्रों,   एक रंग हो और एक हो बोली,
       रंगो की हो मधुर रंगोली,
       गुझियों सी हो मीठी बोली,
       अबीर गुलाल संग हो मस्तानो की टोली,
       सब मिलकर बोलो हैप्पी होली।









Saturday 16 March 2013

सोशल वेबसाइट का मायाजाल




आज की आधुनिकता ने एवं विज्ञान के नित नये आविष्कारों ने दुनिया को हर किसी के करीब ला दिया है। मन की उङान से भी तेज संदेश वाहनों ने सभी को एक करने का प्रयास किया है। कहते हैं कि सिक्के के दो पहलु होते हैं। उसी तरह आज का अत्याधुनिक संचार माध्यम अनेक विसंगतियों को भी जन्म दे रहा है। सोशल नेटवर्किग साइट के बढ़ते चलन का बच्चों पर अच्छा और बुरा, दोनों तरह का असर पड़ता है। एक नए शोध के मुताबिक एक तरफ तो यह उनकी पढ़ाई के लिए घातक होता है, वहीं अंर्तमुखी बच्चों को यह सामाजिक मंच उपलब्ध कराता है। सच ही तो है- तस्वीर का हमेशा दो रूप होता है। आज हम तस्वीर के उस रुख को सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं जो आज की चकाचौंध और इंस्टेंट फूड वाली दुनिया में लोगों के अस्तित्व को दीमक की तरह खा रही है।

आज सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों की दीवानगी पूरी तरह छाई हुई है। खासकर युवा पीढ़ी तो इससे जड़ तक जुड़ चुकी है और आगे और जुड़ने की कतार में खड़ी है। आज दुनिया भर में 2 अरब इंटरनेट के उपभोक्‍ता हैं, जिसमें से 80 करोड़ फेसबुक पर सक्रिय हैं। इसमें 30 करोड़ टि्वटर यूजर्स की संख्‍या है। अब यदि भारतीय इंटरनेट उपभोक्‍ता पर गौर करें तो इस समय भारत में 8.7 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं। जिसमें से लगभग 3.7 करोड़ फेसबुक से जुड़े हैं और 1.2 करोड़ टि्वटर पर सक्रिय हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ सैलफोर्ड द्वारा किये गये सर्वे से परिणाम आया है कि सोशल साइटों का उपयोग करने वाले लोगों में आत्‍मविश्‍वास की कमी पायी जाती है। लगातार उपयोग करने से उनका व्‍यवहार बदल जाता है। अपने किसी पोस्ट या तस्वीर को अपने दोस्तों की तुलना में कम पसंद किए जाने से लोग हीनभावना का शिकार हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनका महत्व घट रहा है।

सोशल वेबसाइट से लोगों का सामाजिक दायरा तो बढ़ता है, लेकिन इसके साथ ही उनके आत्‍मविश्‍वास में भी कमी आती है। सोशल साइट्स का ज्‍यादा उपयोग करने से लोग डिप्रेशन में चले जाते है। इसका उपयोग ज्‍यादा करने से लोगों का व्‍यवहार बहुत तेज बदलता है। लोगों के मन में तुलनात्‍मक छवी घर कर जाती है।

एक चौथाई लोगों ने कहा कि अगर उनकी साइट पर किसी से लड़ाई हो जाती है तो वे अपने आपको असहज महसूस करते है। इस सर्वेक्षण में 298 लोगों को शामिल किया गया था। 51 प्रतिशत लोगों ने कहा कि साइट्स का उपयोग करने से उनका व्‍यवहार नकारात्‍मक रहता है, जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है। 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अगर साइट्स का उपयोग नहीं कर पाते तो उनको दुख होता है। उनके मन में सोशल साइट्स को खोलने की एक उत्सुकता बनी रहती है। यानि उन्हें इन साइट्स की लत पड गई है।

ज्यादा पुरानी बात नही है; 4 फरवरी 2004 में हार्वड कॉलेज में कंप्युटर साइंस के छात्र मार्क जुकेरबर्ग ने फेसबुक की स्थापना की। मकसद था कॉलेज के बाकी छात्रों से जुङे रहना। सितंबर 2006 में जुकेरबर्ग ने इसका दरवाजा पूरी दुनिया के लिये खोल दिया। सोशल नेटवर्किंग की दुनिया का बेताज बादशाह फेसबुक सामाजिक मेल मिलाप के मकसद को छोङ आज एक ऐसा अखाङा बन गया है कि जहाँ ये शो किया जा रहा है कि किसको लोग कितना लाइक करते हैं और ये भावना धीरे-धीरे लोगों के अंदर निराश और कुंठा को जन्म दे रही है। आलम तो ये हो गया है कि अपनी लाइक्स बढाने के लिये लोग भगवान का सहारा लेने में भी संकोच नही करते। कुछ लोग सांई बाबा, तो कुछ शिव जी का वास्ता देकर धर्म के नाम पर अपना लाइक्स का बैंक बैलेन्स बढा रहे हैं। वो ये भूल गये हैं कि ईश्वर को अपनी प्रसिद्धी के लिये फेसबुक जैसी सोशल साइट्स की जरूरत नही है।

आज बढते हुए विकास में अफवाहें भी इन साइटों की वजह से इस तरह फैल जाती हैं कि अनेक मानवीय भावनाओं को आहत करती हैं। हाल ही में बाहर रह रहे असम के लोगों को आधुनिक साधनों के माध्यम से फैली अफवाहों से काफी दिक्कत का सामना करना पङा। आधुनिकता की इस अंधी दौङ में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम इन साइट्स से एक चलन की तरह जुङ जाते हैं, और परिणाम से बेपरवाह ऐसी टिपणीं कर देते है कि जिसका खामियाजा पूरे परिवार को या पूरे समुदाय को झेलना पङता है। हाल ही में महाराष्ट्र बंद पर की गई टिपणीं का खामियाजा दो लङकियों शाहीन और रेनु को भुगतना पङा।

आज के दौर में परंपरागत तरीके के बजाए इंटरनेट के माध्यम से डराने-धमकाने का दौर चल पड़ा है। यह तरीका ज्यादा खतरनाक है। एक शोध के मुताबिक 10 में से चार महिलाएं ऑनलाइन डेटिंग के बाद इलेक्ट्रानिक उत्पीड़न का शिकार हो चुकी हैं। ऑनलाइन पीडि़तों को अवसाद, भय, दु:स्वप्न, खाने पीने में मन नहीं लगना, नींद नहीं आना जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।

आज सोशल नेटवर्किंग पर कुछ ऐसे आपत्तिजनक अंश पोस्ट कर दिये जाते हैं जिससे सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंच रहा है। सामाजिक स्वरूप को स्वस्थ रखने हेतु भारत जैसे कई देश इस तरह की साइटों के लिये एक निश्चित गाइड-लाइन बना रहे है। चीन में इंटरनेट सेंशरशिप के कानून काफी सख्‍त हैं। इसके अलावा, पाकिस्‍तान में 19 मई, 2010 को पैगंबर मोहम्‍मद पर कार्टून प्रतियोगिता के आयोजन संबंधी पेज को लेकर फेसबुक पर पाबंदी लगाई गई थी। 20 सितंबर, 2010 को लाहौर हाईकोर्ट ने ईश निंदा से जुड़ी सामग्री प्रकाशित करने वाली साइट्स पर रोक लगाने का निर्देश दिया था। सोशल नेटवर्किगं के बढते प्रकोप को रोकने के लिये अमेरिका में दो कानून स्‍टॉप ऑनलाइन पाइरेसी एक्‍ट (सोपा) और प्रोटेक्‍ट इंटेलेक्‍चुअल प्रॉपर्टी एक्‍ट (पीपा) पर बहस चल रही है।

आधुनिकता से परिपूर्ण सामाजिक मेल मिलाप के तरिकों से एक ऐसा वायरस पनप रहा है जिसकी तस्वीर अभी स्पष्ट नही है। किन्तु जब ये धुंधला चेहरा साफ होगा तब तक न जाने कितने लोग इसका शिकार हो चुके होंगे। आज यदि इन साइटों के जरिए युवाओं में सामाजिक संरचना का एक नया रूप आकार ले रहा है, तो इसमें साइबर वर्ल्‍ड की एक बड़ी भूमिका है। आने वाली पीढ़ी को लक्ष्‍य कर देखें तो यह संरचना किस आकार या किस रूप में होगी, यह कहना अभी तो मुश्किल है, लेकिन इसका स्‍वरूप काफी व्‍यापक होगा और यह युवाओं के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ेगी।

मित्रों, आधुनिकता की अंधी दौङ में सोशल साइट्स का ये रूप किसी के लिये भी फायदेमंद नही है। यदि स्वस्थ मकसद अपनी राह भटक जाये तो परेशानियों का भूचाल आ जाता है। नदी किनारा छोङ दे तो बाढ जैसी तबाही आ जाती है। प्रकृति ने भी समाज की खुशहाली के लिये अपने संसाधनो को एक दायरे में बाँधा है। विकास के इस बढते हुए परिपेक्ष में इन सोशल साइट्स पर भी सीमाओं के दायरे होने चाहिये। इन साइट्स की वजह से बढ रहे अवसाद तथा कुंठा के वायरस को नष्ट करना आवश्यक हो गया है वरना ये आने वाली पीढी को खोखला बना देंगी।

Monday 11 March 2013

वाणी की चतुरता


एक बार की बात है कि, तारकपुर नगर के राजा ने एक बुढे मरणासन्न हाथी को गाँव में भेजा और साथ ही ये संदेश भिजवा दिया कि इस हाथी का समाचार प्रतिदिन मुझे मिलना चाहिये। यदि कोई भी ग्रामवासी आकर ये समाचार कहेगा कि हाथी मर गया तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जायेगा।

तत्पश्चात राजा की आज्ञा सुनकर सभी ग्रामवासी भयभीत हो गये। सभी गाँववासी भय के कारण उस हाथी की खूब अच्छी तरह से देखभाल करने लगे। मृत्यु दण्ड का भय उन्हे हर पल सताता था। ये परम सत्य है कि कोई भी अमर नही है। सभी प्राणी जगत की मृत्यु निश्चित है। हाथी के साथ भी वही हुआ वो काफी बुढा हो चुका था, गाँव वालों की लाख सेवा सुश्रषा के बावजूद हाथी मर गया।

गॉव वाले मृत्यु के भय से परेशान हो रहे थे। सभी इस बात को लेकर सोच-विचार करने लगे कि राजा को खबर कौन करेगा। तभी एक समझदार एव तेज बुद्धी वाला युवक उठा और बोला, आप लोग परेशान न होइये मैं जाऊंगा। गाँव के बजुर्ग कहने लगे नही नही हम तुम्हे कैसे जाने दे। तुम तो अपने माँ-बाप के बुढापे का इकलौता सहारा हो। यदि तुमको कुछ हो गया तो तुम्हारे माँ-बाप का कौन ध्यान रखेगा।

युवक ने कहा, आप सब डरिये मत। मैं स्वंय ही जाकर राजा को ये समाचार बताऊँगा और वो राजमहल में राजा को समाचार देने चला गया।

राजा के पास जाकर बङे ही शिष्ट आचरण के साथ बोला, हे महाराज! आज हाथी न बैठता है, न उठता है, न खाना खा रहा है, न पानी पी रहा है और तो और साँस भी न ले रहा है एवं न साँस छोङ रहा है। और क्या बताँऊ महाराज, वह जीवित पशु के समान आचरण नही कर रहा है। यह सुनकर राजा ने पूछा कि, क्या वह हाथी मर गया ?”  वह युवक बोला, महाराज! आप ही ऐसा कह रहे हैं, हम नही। राजा उसकी वाकचातुर्य को समझ गये और उसकी बुद्धीमानता से खुश होकर उसे बहुत सा पुरस्कार दिये।

मित्रों, कहानी का आशय है कि विपरीत परिस्थिति में भी यदि हम संयम से काम लें और निडर होकर मुसिबत का सामना करें तो यकीनन परेशानियों पर विजय प्राप्त कर सम्मान के अधिकारी बन सकते हैं।

ज्ञान के विकास के साथ संयम के पथ पर चलने से सफलता शीध्र एवं निश्चय ही मिलती है।

Wednesday 6 March 2013

साहसी नारियों के जज़्बे को सलाम


आत्मविश्वास से भरी एक मुठ्ठी खुल चुकी है, जो सदियों से बंद थी। मजबूत इरादों और कर्तव्यों को साकार करती हुई नारी, मानव जीवन की आधार स्तंभ है जिसके बगैर हम मानव जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही नारी के लिए काफी आदर का भाव रहा है, और हो भी क्यों नही? नारी ने माँ, बहन, पत्नी, दोस्त हर रिश्ते को करुणा, ममता और स्नेह से सींचा है। आज नारी, अनंत संभावनाओं के साथ आकाश से ऊची हौसले की उङान लिये शान्ति मार्च के साथ नामुमकिन को मुमकिन बनाने के लिये तत्पर है।

नई सदी की नारी के पास कामयाबी के उच्चतम शिखर को छूने की अपार क्षमता है। उसके पास अनगिनत अवसर भी हैं। जिंदगी जीने का जज्बा उसमें पैदा हो चुका है। दृढ़ इच्छाशक्ति एवं उचित शिक्षा के बल पर विपरीत परिस्थितियों में भी सालमन मछली की तरह धारा के विपरीत चलकर कुछ महिलाओं ने मुसीबतों, परेशानियों, हादसों और कुदरत के कहर के बावजूद भी जीने का हौसला पैदा किया। ऐसी ही कुछ साहसी महिलाओं का महिला दिवस पर हम वंदन करते हैं।

जिस युग में कविता रचना अपराधों की सूची में आती थी। कोई तुक जोङता है’, ये बात सुनकर ही लोगों की मुख की रेखाएं वक्रकुंचित हो जाती थीं। ऐसे में पाँचवी कक्षा में पढने वाली बालिका गणित की किताब में शब्दो से खेलती तुकबन्दी बनाती नित नई कविताओं को रचने का प्रयास करती। उसकी एक साथी जो सातवीं कक्षा की छात्रा थी, वो भी कविताओं के ताने-बाने बुनती थी। ये बालिकाएं आगे चलकर साहित्य जगत में इस तरह सम्मानित हुईं कि हम सब उनकी रचनाओं को आज भी लगभग सभी कक्षाओं में पढते हैं। जी हाँ मित्रों, पाँचवी कक्षा की बालिका महादेवी वर्मा थी और सातवीं में सुभद्रा कुमारी चौहान पढती थीं। आपकी रचना खूब लङीं मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी, कविता वीर नारी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

मणिपुर में अफ्सफा के खिलाफ 12 साल से अन्न तो दूर पानी भी हलक से न उतारने वाली इरोम शर्मिला, सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम को निरस्त करवाना चाहती हैं क्योकि एएफएसपीए के तहत सैनिकों द्वारा बालात्कार, यौनउत्पीङन और फर्जी मुढभेङ के मामले सामने आते रहें हैं।
इम्फाल से 10 किलोमीटर दूर मालोम (मणिपुर) गांव के बस स्टॉप पर बस के इंतजार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया। मणिपुर के एक दैनिक अखबार हुये लानपाऊ की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवंबर, 2000 को इस क्रूर और अमानवीय कानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गईं। शर्मिला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार कानून को पूर्णत: हटा नहीं लेती, तबतक उनकी भूख हड़ता जारी रहेगी।

5 मार्च 2013 को कानूनी कारवाई के तहत न्यायालय ने कहा कि- हम आपका सम्मान करते हैं, लेकिन लॉ ऑफ लेंड आपको इस बात की इजाजत नही देता कि आप अपनी जिंदगी ले लें। शर्मिला जिस तरीके से अफ्सफा से प्रभावित राज्यों के लोगों के मौलिक अधिकारों के लिये लङ रही हैं, उनके दृढंसंक्लप और जज्बे को सलाम करना लाज़मी है।

तालिबान के खिलाफ आवाज उठाकर 14 वर्षीय पाकिस्‍तानी बालिका मलाला यूसुफजई आज हक और हिम्मत की मिसाल बन गई है। लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं के अधिकार के लिए आवाज  उठाकर शांति कार्यकर्ता मलाला ने सिर्फ दहशतगर्दों के खिलाफ ही बड़ी आवाज नही बनी हैं, बल्कि  उसके प्रयासों ने अंधियारे के बीच उम्मीद की एक किरण जगा दी है। यही नहीं,  उसकी बहादुरी ने पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को आतंकवाद के खतरे के खिलाफ नए सिरे से एकजुट होने की प्रेरणा दी है। मलाला को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया। गत वर्ष नौ अक्टूबर को आतंकवादी संगठन तालिबान ने स्कूल से लौटते समय मलाला के सिर में गोली मारी थी जिसके बाद पूरी दुनिया में लड़कियों की शिक्षा के लिए आवाज बुलंद करने वाली यह छोटी सी बच्ची संघर्ष की पहचान बन गई है।

48 वर्षिय नसरीन सतुदेह ईरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं। वे कट्टरपंथी शासन विरोधी विचारों के लिये सरकार की आँख की किरकिरी बनी हईं हैं। जनवरी 2011 में ग्यारह साल की उनको एकांकी सजा दी गई है। जेल में रहते हुए भी उनका जज़्बा काबीले तारीफ है। जेल से अपनी बेटी को बहुत ही सकारात्मक खत लिखा है उसका कुछ अंश – मेरी सबसे दुलारी मेहरावे, मैं तुमसे कहना चाहती हुँ कि तुम लोगों के और तुम्हारी तरह के दूसरे बच्चों के बाल-अधिकारों की हिफाजत को ध्यान में रखकर और उनके बेहतर भविष्य के लिये ही मैने ये पेशा अपनाया था। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे और मेरी तरह के हालात में रह रहे बहुतेरे परिवारों की तकलीफ व्यर्थ नही जायेगी। दरअसल, इंसाफ तभी प्रकट होता है जब चारो ओर घनघोर निराशा छाने लगती है और हम इंसाफ की उम्मीद करना छोङ देते हैं। मुझसे जिरह करने वालों और जजों के लिये गुस्सा नही पालना कि वे मेरे साथ ऐसा सलूक कर रहे हैं, बल्की अमन और चैन की दुआएं माँगना। ऐसा करोगी तो उनके साथ-साथ हमें भी खुदा ऐसे ही अमन चैन के आर्शिवाद देगा।

जिंदगी की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती ज्योति बचपन से थैलिसीमिया रोग से ग्रसित हैं। काफी मुश्किलों का सामना करते हुए ज्योति अंग्रेजी और मनोविज्ञान से एम ए कर चुकी हैं। आशावादी जज़बे के साथ स्वतंत्र लेखन का कार्यकर रहीं हैं। कंप्यूटर में महारत हासिल किये हुए अनेक थैलिसीमिया के मरीजों को फेसबुक के माध्यम से इस बिमारी के प्रति जागरूक करती रहती है। ज्योति द्वारा लिखित पुस्तक ड्रीम्स सेक, निराशा से आशा की ओर ले जाती है।

आत्मविश्वास के साथ ही युवतियों ने अपनी सही बात सही तरीके से कहना सीख लिया है। घर के संरक्षित कवच से बाहर आ संघर्ष करते-करते उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वयं हासिल कर ली है।

इतिहास के अनुसार समानाधिकार की यह लड़ाई आम महिलाओं द्वारा शुरू की गई थी प्राचीन ग्रीस में लीसिसट्राटा नाम की एक महिला ने फ्रेंच क्रांति के दौरान युद्घ समाप्ति की माँग रखते हुए इस आन्दोलन की शुरूआत की, फारसी महिलाओं के एक समूह ने वरसेल्स में इस दिन एक मोर्चा निकाला, इस मोर्चे का उद्देश्य युद्घ की वजह से महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार को रोकना था।

आज के परिपेक्ष्य में एक साहसी नारी अनेक लोगों को जागृत कर गई। वो आज भले ही सशरीर हमारे बीच नही है पर ऐसे कई सुधार कार्यक्रमों को आवाज दे गई जो नारी के सम्मान से जुङे हैं। साहस और आशावादी विचारों को रौशन करती भारत ही नही पूरे विश्व की आवाज है। 16 दिसंबर की निर्भया को अंर्तराष्ट्रीय वुमन ऑफ करेज अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है। इस बहादुर नारी ने नाजुक हालत में भी पुलिस को दो बार बयान दिया। इंसाफ की आस में जीने की इच्छाशक्ति दिखाई। मिशेल ओबामा और जॉन केरी 8 मार्च को अमेरिका में इस बहादुर लङकी के साहस को सम्मानित करेंगी।

प्रसिद्ध गायिका इला अरुण का कथन है कि नारी की उपलब्धियाँ पिछली सदी के आखिरी दशक से परवान चढ़ी हैं। इस सदी के पहले पायदान पर वह मजबूती से खड़ी है। हर जगह उसकी पूछपरख बढ़ी है। उसने ठान लिया है...मान लिया है...चट्टानों से टकराना जान लिया है...। वर्तमान को भरपूर जीना उसने सीख लिया है और भविष्य को अपने हाथों से सँवारने का संकल्प ले लिया है।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि :-

जीवन बगिया के फूलों को आशाओं के जल से सींचती है नारी,
तिनका-तिनका बुनती हुई अपना आसमान बनाती है नारी,
आने वाले जीवन में नई संभावना है नारी,
समय की रेखा पर इतिहास रचती हुई, सकारात्मक सोच की पहचान है नारी,
सफलता की इबारत लिखती हुई, कामयाबी की उङान भरती है नारी।।

Sunday 3 March 2013

सबक



कॉलेज में नया-नया दाखिला होने से कुछ दिन पहले एक लङके ने शोरूम में एक स्पोर्ट्स कार देखी। यह जानते हुए कि उसके पिता उसे यह कार दिलाने में सक्षम हैं, उसने उनके आगे माँग रख दी। कॉलेज के पहले दिन पिता ने उसे बुलाया और उसके हाँथ में एक उपहार थमा दिया। वह लङका बहुत खुश हुआ और उत्सुकता से उसे खोलने लगा। उपहार खोलते ही वो उदास हो गया क्योंकि उसमें एक किताब थी। किताब को वहीं छोङ कर वो नाराज होकर बाहर चला गया। समय बीतता गया वो एक सफल व्यपारी बन गया। एक दिन उसे अपने बुढे पिता की बहुत याद आई और वे उनसे मिलने का मन बनाने लगा। तभी उसके पास खबर आई कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया है। दुःख और पछतावे के साथ वो घर पहुँचा। एक दिन जब वे अपने पिता का समान संभाल रहा था, उसके हाँथ वह किताब लगी जो उसके पिता ने उसे कॉलेज के पहले दिन दी थी। उसने किताब के पन्ने पलटना शुरु किया तो उसमें लिखा था कार की चाभी लिफाफे में रखी है, जो इस किताब के पीछे है। लिफाफे पर कॉलेज के पहले दिन की तारीख थी।

य़े कहानी हमें ये सबक सिखाती है कि खुशी हमेशा उस रूप में नही मिलती जिस रूप में हम उसे सोचते हैं। कई बार बिना सोचे समझे, जल्दबाजी में लिये निर्णय ऐसी गलतियों को जन्म दे देते हैं जिन्हे चाह कर भी बाद में सुधारा नही जा सकता।

कहते हैं जिंदगी में सब को एहमियत दो क्योंकि जो खास होंगे वो खुशी देंगे और जो खास नही हुए वो एक सबक तो दे ही जायेंगे।"