Saturday 9 June 2018

बच्चों में मोबाइल की बढती आदत जिम्मेदार कौन??????

दोस्तों, फ्रांस में वहां की सरकार कानून बनाकर स्कूल में मोबाइल लाना प्रतिबंधित कर रही है। विश्व में फ्रांस पहला देश है जो अपने देश के बच्चों के भविष्य के प्रति इतनी गहराई से सोच रहा है। निःसंदेह ये सराहनिय कदम है किंतु, ये जानकर मन में विचार आया कि निश्चय ही वहाँ मोबाइल अत्यधिक आतंक मचा चुका होगा जिसके परिणाम स्वरूप ये कदम उठाया गया है।

मित्रों, विचार करने योग्य ये है कि स्थिती बदतर होनेपर ही हमसब क्यों सजग होते हैं। हम समय रहते क्यों नही उचित निर्णय लेते हैं। हम सब जानते हैं कि कोई भी टेक्नोलॉजी या कोई भी सुविधा कुछ फायदे तो कुछ दुष्परिणाम भी लाती है, पर हम उस नुकासान को अनदेखा कर देते हैं। आज अपने देश भारत की ही अगर बात करें तो एक साल के बच्चे के हांथ में मोबाइल देखा जा सकता, जिस उम्र में बच्चे अपना तो ख्याल रख नही सकते अभिभावक उनको मोबाइल थमा देते हैं। दो तीन साल के बच्चे तो मोबाइल पर गेम खेलना सीख जाते हैं। तीन चार साल के बच्चे जब मोबाइल को ऑपरेट करते हैं तो उनके अभिभावक ऐसे खुश होते हैं कि बच्चा नोबल पुरस्कार जीत गया, हर किसी से कहेंगे कि, हमसे ज्यादा इसको आता है मोबाइल के बारे में। सोचिए! जिस उम्र में शारिरीक और बौद्धिक शक्ती को मजबूत करने का समय होता तब बच्चा एक जगह बैठकर एक ही संसाधन में व्यस्त, ये व्यस्तता बच्चे की नीवं को हीला देती है जिसका आभास अभिभावकों को तब होता है जब बच्चे का विकास बाधित हो चुका होता है। गौरतलब है कि, बचपन में मोबाइल के उपयोग से बच्चों को छोटी उम्र में ही चश्में लग जाना, माशपेशियों का कमजोर होना, बौद्धिक क्षमता में कमी हो जाना, रचनात्मक और क्रियात्मक विकास का रुकना, मोटापे जैसी गंभीर बिमारी का बढना इत्यादि समस्यायें दिन प्रतिदिन बढ रही हैं। रिसर्च बताते हैं कि, मोबाइल के अधिक उपयोग से दो तीन साल के बच्चों को ब्रेन कैंसर का खतरा सबसे ज्यादा है। अभी हाल में एक अध्ययन के मुताबिक बच्चों में ग्रिपिंग पॉवर कम हो रही है वो पेंसिल ही नही पकङ पा रहे हैं। मोबाइल के साथ बढने वाले बच्चे एकांकी हो जाते हैं क्योंकि उनको मोबाइल की इतनी आदत लग चुकी होती है कि किसी और के साथ तालमेल नही बैठा पाते यहाँ तक कि पढाई में भी ध्यान नही देते जिसका परिणाम वे पढाई में कमजोर हो जाते हैं फिर डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं।

मित्रों, कई अभिभावक तो आजकल बच्चे को बहला फुसलाकर खाना खिलाने के बजाय मोबाइल पर कार्टून दिखाकर खाना खिलाते हैं, बच्चे का पूरा ध्यान कार्टून पर, क्या खाया, कितना खाया कुछ पता नही पर माँ-बाप खुश बच्चा खा लिया फिर बाद में बच्चे को कार्टून की आदत इतनी लग गई की खाना खाना तो भूल गया कार्टून देखने की आदत जरूर पढ गई। आज बच्चों के साथ खेलने का वक्त नही होता अभिभावकों के पास, यदि बच्चा रोया तो उसके साथ समय व्यतीत करने की बजाय मोबाइल पकङा देते हैं। बच्चा मोबाइल पर क्या देखरहा है ये जानने का भी वक्त नही होता। हिंसक खेल बच्चे की मनोवृत्ति को किस दिशा में ले जा रहे इसका उनको अंदाज ही नही है। जब स्थिती विस्फोटक हो जाती है या बच्चा कहना नही सुनता तो इस आदत का जिम्मेदार भी उसको ही माना जाता है। विचार किजिए! एक छोटा बच्चा जो ठीक से चल भी नही पाता उसके पास मोबाइल स्वयं तो चलकर नही आता होगा। बच्चों तक मोबाइल की पहुँच माता-पिता या घर के बङे सदस्यों द्वारा ही होती है। कहने का आशय ये है कि, बच्चों में मोबाइल की आदत के जिम्मेदार पालक ही हैं जो भविष्य के दुष्परिणाम से अनिभिज्ञ अपने बच्चे को एक ऐसे जहर की आदत डाल रहे जिसका असर बच्चे की नीवं को खोखला कर रहा है और बच्चे के स्वाभाविक विकास को कुंठित कर रहा है।

मित्रो, किसी भी टेक्नोलॉजी का उपयोग गलत नही है किंतु उसका उपयोग कब, कैसे और किसको कितना करना है ये ज्ञान होना अति आवश्यक है। प्रकृति ने भी मनुष्य के विकास को उम्र के आधार पर एक संतुलन दिया है जिसका स्वाभाविक प्रवाह सम्पूर्ण विकास को सहज बनाता है।

अतः आज के सभी अभिभावकों से मेरा निवेदन है कि, समय रहते मोबाइल जैसे जहर को बच्चों से दूर रखकर उनमें बालसुलभ मनोवृत्ति को अंकुरित करने में अपना योगदान दिजिये। कहानी सुनाकर एवं उनके साथ खेलकर उनमें उनकी बौद्धिक और शारीरिक क्षमता का विकास किजिये। रंग-बिरंगे रंगों से उनकी दुनिया को सुखद और स्वाभाविक बनाइये। बच्चे तो कुम्हार की वो मिट्टी हैं जिन्हे आप जिस आकार में ढालेंगे वो ढल जायेंगे।
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धन्यवाद 😊