Thursday 27 September 2012

खूबसूरती को बढाता है अदरक


 
 
 शरद ऋतु की भीनी भीनी ठंड के मौसम में मित्रों, सुबह – सुबह अदरक की चाय मिल जाए तो पूरा दिन ताजगी भरा हो जाता है। चाय के साथ – साथ भोजन को जायकेदार बनाने वाले अदरक की दिलचस्प बात ये है कि वो खूबसूरती को भी बढाता है। अदरक को फल, सब्जी या दवा भी मान सकते हैं।

 वास्तव में अदरक भूमिगत रूपान्तरित तना है। इसका वैज्ञानिक नाम ( ज़िन्जीबर आफीसिनेल ) है।

अदरक त्वचा को निखारने व आकषर्क बनाने में मदद करता है। सुबह खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी के साथ अदरक का एक टुकङा खाने से त्वचा में निखार आता है। दवा के रूप में अदरक गठिया, आर्थराइटिस तथा साइटिका जैसे रोगो में प्रमुखता से उपयोग किया जाता है।

अदरक गर्भवती महिलाओं को मार्निग सिकनेस से निजात दिलाता है। अदरक में कोलेस्ट्राल का स्तर कम करने, एंटीफंगल तथा कैंसर प्रतिरोधी गुण भी पाया जाता है। आज अनेक शोधो ने अदरक को रामबाण का दर्जा दिया है।

फूडस् दैट फाइट पेन पुस्तक के लेखक आर्थर नील बर्नाड के मुताबित अदरक में दर्द मिटाने के प्राकृतिक गुण पाये जाते हैं। ये बिना किसी दुष्प्रभाव के दर्द निवारक की तरह काम करता है।

नाइज़ीरीया में एक शोध के अनुसार अदरक में किसी चीज को प्राकृतिक रूप से संरक्षित करने का गुण पाया जाता है। अदरक का सत्व साल्मोनेला नामक जीवाणु को समाप्त करने में मददगार होता है। पाचन की समस्या होने पर रोजाना सुबह अदरक का एक टुकङा खाने से बदहजमी नही होती है।

मित्रों, अदरक एक ऐसा नाम जो हमें आसानी से सब्जी के ठेले पर भी मिल जाता है किन्तु इसके फायदे इसे अनमोल बना देते हैं।

 

Sunday 23 September 2012

अनेकता में एकता को रौशन करते हमारे त्यौहार

उत्सव जीवन दर्शन है। कहते हैं, सात वार नौ त्यौहार वाला देश है भारत। भारतवर्ष में विभिन्न संस्कृतियों का समागम है। सर्व विदित है कि प्रथम पूज्य मंगल मूर्ती श्री गणेंश उत्सव से ही सभी त्यौहारों का श्री गणेश होता है। जिस तरह सात रंगो के इंद्रधनुष से आकाश की खूबसूरती में चार चाँद लग जाता है, वैसे ही विभिन्न जाती एवं धर्म के उत्सव भारत को खूबसूरत बनाते हैं।

भारत की संस्कृति में त्यौहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। भारत के सभी त्यौहार  समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सदभावना को बढ़ाते हैं। भारत में त्यौहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है।

पित्रों को याद करना हमारी भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठ संस्कार है। श्राद्धपक्ष में पित्रों को तर्पण देकर उत्सवों का सिलसिला शूरू हो जाता है। पूरे विश्‍व की तुलना में भारत में अधिक त्‍यौहार मनाए जाते हैं। प्रत्‍येक त्‍यौहार का अपना महत्व होता है। सभी देवी देवता, वृक्ष, ग्रह-नक्षत्र, फसल, सहायक पशु, नदी और बदलते मौसम को भी त्‍यौहारों में स्थान दिया जाता है।

कृषी सहायक जानवारों के लिये गोवर्धन पूजा, तो कहीं गायों को बछङे के साथ बछवारस पूजा जैसे धार्मिक कृतियों के कारण जीवों से प्रेमभाव बढ़ता है और नकारात्मक दृष्टिकोण से सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर जाने में सहायता मिलती है। तुलसी, वट, आँवला, तथा पीपल जैसे औषधिय पौधों की पूजा करके पौधों का महत्व और बढ जाता है। मौसम के बदलते मिजाज को भी शीतला माता की पूजा से उत्सवमय बना कर हम सब आनन्दित होते हैं। फसल की कटाई हो या बुआई, सभी को बीहु, लोहङी, ओणम, पोंगल, बैशाखी जैसे त्यौहार महत्वपूर्ण बना देते हैं।

रिश्तों को मजबूत बनाने के लिये पति के नाम से करवाचौथ तो भाई के लिये रक्षाबन्धन, बहन बेटीयों के लिये तीज तो कहीं बच्चियों के लिये नवरात्री पूजा, पुत्रों के लिये अहोई व्रत जैसे त्यौहार रिश्तों को आनंदित कर देते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार- जीवन एक उत्सव है।

ईद में गले मिल कर भाई-चारे को बढावा मिलता है, सेवई की मिठास हमारी संस्कृति को मिठा बना देती है। क्रिसमस पर सांता क्लॉज का उपहार खुशियों की सौगात लाता है। सभी त्यौहार आपसी भाई-चारा और सकारात्मकता के साथ शुभ संदेश देते हैं। दिपावली पर दिये जलाकर अमावश्या के अंधकार को दूर करके जीवन को ये संदेश मिलता है कि सार्थक सोच का एक दीपक जीवन को रौशन कर सकता है। मित्रों, जिस प्रकार तिल और गुड़ के मिलने से मीठे-मीठे लड्डू बनते हैं उसी प्रकार विविध रंगों के साथ जिंदगी में भी खुशियों की मिठास बनी रहे। जीवन में नित नई ऊर्जा का संचार हो और पतंग की तरह ही सभी सफलता के शिखर तक पहुंचे। कुछ ऐसी ही शुभकामनाओं के साथ हम सब मकर संक्राती का पर्व मनाते हैं। त्यौहार सभी धार्मिक संप्रदायों और वर्गों के बीच मेल-मिलाप बढ़ाने में सहायक सिद्ध  होते हैं।

त्यौहार हमारे जीवन की जङता को उत्साह में बदल देते हैं। प्रकृति भी हमें मौसम के माध्यम से त्यौहारों के आगमन का एहसास करा देती है। ठंडक का बढना घटना, मौसमी फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को खुशनुमा बना देती है। शरद ऋतु की भीनी भीनी ठंड में गुजरात का डांडिया, उत्तर भारत में रामलीला का आयोजन तो बंगाल में दुर्गापूजा समुचे भारत को एक रंग में रंग देते हैं। जीवन एक बगिया है जिसमें उत्सव से हरियाली आती है। उत्सव या त्यौहार इसलिए होते हैं कि जीवन से दुख मिटाकर व्यक्ति एक होकर सुखी रहे। उत्सव के माध्यम से हम सभी प्रकृति तथा ईश्वर की प्रर्थना करते हैं और उसे धन्यवाद देते हैं।

जहाँ त्यौहार दिलों को मिलाते हैं वहीं ये हम सभी को अपनी परंपराओं से पीढी-दर-पीढी जोङते हैं। ईश्वर, अल्लाह या वाहे गुरू कहो, सभी धर्म एक ही धारा में बहते हैं। हमारे त्यौहार भी इन धर्मो से जुङे हुए हैं जहाँ सभी धर्म आपस में विश्वास और मानवता का पाठ पढाते हैं। मित्रों, हम सभी को ये प्रण करना चाहिये कि त्यौहारों के माध्यम से पूरे उत्साह के साथ गंगा जमुनी संस्कृति को विश्वास के दीपक से सदैव रौशन करेंगे। धरती के हर छोर पर उत्साह और उल्लास का वातावरण हो इसी शुभकामना के साथ कलम को विराम देते हैं।
       सुख सपनो की मधुर मनोहर झङियाँ आई,
        त्यौहारें ने खुशियों की बौछार लगाई।

Tuesday 18 September 2012

मंगल मूर्ती वरदविनायक गणेश

  
रिद्धी सिद्धी के देवता, काटो सर्व कलेश।
सर्व प्रथम सुमिरन करें, गौरी पुत्र गणेश।।
गणेश जी बुद्धि के देवता  हैं। हमें जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति गणेश जी की अनुकंपा (बुद्धि) से ही मिल सकती है। गणेश जी, पूजा-पाठ के दायरे से बाहर निकलकर हमारे जीवन से इतना जुड गए हैं कि किसी भी काम को शुरू करने को हम श्री गणेश करना कहते हैं। गणेशोत्सव तो साल में केवल एक बार होता है, परंतु श्री गणेश का स्मरण हमारी दिनचर्या में शामिल है।
समस्त काज निर्विघ्न संपन्न हो इसके लिए गणेश-वंदना की परंपरा युगों पुरानी है। मानव तो क्या, देवता भी सर्वप्रथम इनकी अर्चना करते हैं।
गणेश पुराण के अनुसार गणपति अपनी छोटी-सी उम्र में ही समस्त देव-गणों के अधिपति हैं क्योंकि वे किसी भी कार्य को बल से करने की अपेक्षा बुद्धि से करते हैं। बुद्धि के त्वरित व उचित उपयोग के कारण ही गणेश जी, पिता महादेव से वरदान लेकर  सभी देवताओं में मंगलमूर्ति रुप में प्रथम पूज्य हैं।
जल के अधिपति श्री गणेश माने गए हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि जीवोत्पत्ति सबसे पहले जल में हुई। अतएव गणपति को प्रथम पूज्य माना जाना विज्ञान सम्मत भी है। पुराणों व अन्य धर्म ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है की भगवान ब्रह्मदेव ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्री गणेश विभिन्न रुप में अवतरित होंगे. सतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापरयुग में गजानन एवं धूम्रकेतु नाम से कलयुग में अवतार लेंगे।  
 हिन्दु पंचाग के अनुसार भाद्रपक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक ये उत्सव मनाया जाता है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि हम सभी एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र, विघ्नराज, द्वैमातुर, गणाधिप, हेरम्ब, गजानन, आदी नामों से स्मरण किये जाने वाले वरद विनायक गणेश जी का जन्मोत्सव, गणेशोत्सव  अर्थात (गणेश+उत्सव) पूरे भारत में मनाते है, परन्तु महाराष्ट्र का गणेशोत्सव पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में मंगलकारी देवता के रूप में व मंगल मूर्ती के रूप में पूजे जाते हैं। दक्षिण भारत में  चिंतामणी गणेश कला शिरोमणी के रूप में लोकप्रिय हैं।
पूणें में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गजानन की स्थापना शिवाजी की माँ जीजाबाई ने की थी। परन्तु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव  को जो स्वरूप दिया उससे श्री गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। पहले गणेश पूजा केवल परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देना केवल धार्मिक आस्था न थी अपितु आजादी की लङाई, छुआछूत दूर करने, तथा समाज को संगठित करके एक आन्दोलन का स्वरूप देना था। जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सभी विघ्न बाधाओं को पार कर हमारा भारत स्वतंत्र हुआ।
बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधारोपण किया था वो आज विराट वृक्ष बन गया है। आज हम सब संपूर्ण भारत में इसे धूमधाम से मनाते हैं।
मित्रों, गणेश जी को दुर्वा (दूब) क्यों चढाते हैं या तुलसी क्यों नही चढाते इससे जुङी एक कथा है:- अंगलासुर नामका दुष्ट राक्षस थ। वह मुंह से आग उगलता था । उसकी दृष्टि के सामने जो भी आता था, उसे वह जला डालता था । उसके नेत्रों से अग्नि की ज्वाला निकलती थी । मुखसे वह अत्यधिक धुआं निकालता था । सभी को उससे बहुत भय लगता था। अंगलासुर ने अनेक जंगल जला डाले थे । वह खेत की फसल, पशु-पक्षी, मनुष्य सबको जलाकर राख कर देता था। उसके आतंक को समाप्त करने हेतु, एक दिन गणपती ने अपने छोटे रूपको परिवर्तित कर के अंगलासुर से तिगुने उंचे हो गए । यह देखते ही अंगलासुर  भयभीत हो गया । श्री गणेशजी ने अंगलासुर राक्षस को सुपारी के समान खा लिया, जिससे गणेश जी का शरीर अत्यधिक जलने लगा । इस जलन को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एवं ऋषि- मुनियों ने उनको दूब अर्पण किये जिससे उनकी जलन मिट गई। तभी से गणेंश जी को दूब जरूर चढाई जाती है।
तुलसी को देव वृक्ष के रूप में पवित्र माना जाता है। फिर भी भगवान गणेश को पवित्र तुलसी नहीं चढ़ाना चाहिए। इससे जुड़ी एक पौराणिक कथा है -     एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप में लीन थे। इसी दौरान विवाह की  इच्छा से तीर्थयात्रा पर निकली देवी तुलसी वहां पहुंची। वह श्री गणेश को देखकर मोहित हो गई।
तुलसी ने विवाह की कामना से उनका ध्यान भंग कर दिया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा इस तरह के कृत्य को अशुभ बताया। साथ ही तुलसी की मंशा  जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया। इस बात से आहत होकर तुलसी ने श्री गणेश को दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारी संतान असुर होगी। ऐसा शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम पर असुरों का साया तो होगा। किंतु भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए देववृक्ष के रूप में जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। किंतु मेरी पूजा में तुलसी का चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। मान्यता है कि तब से ही भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।
मित्रों, पुराणों एवं वेद के आधार पर गणेश जी के बारे मे कुछ और बताने का प्रयास कर रहे हैं
(1) गणेश जी ने विघ्नासुर नाम के राक्षस का भी वध किया। इसलिए उन्हें विघ्नेश्वर कहा जाता है।
(2)  अष्टविनायक गणेश में बल्लालेश्वर गणेश ही एकमात्र ऐसे गणेश माने जाते हैं, जिनका नाम भक्त के नाम पर प्रसिद्ध है। यहां गणेश की प्रतिमा को ब्राह्मण की वेशभूषा पहनाई जाती है।
(3) महेश्वर का गोबर गणेश मंदिर पहली नजर में देशभर में स्थित अपनी ही तरह के हजारों गणेश मंदिरों की ही तरह है लेकिन औरंगजेब के समय में इसे मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया था। जिसका प्रमाण इस मन्दिर का गुंबद है, जो मस्जिद की तरह है। गोबर गणेश मंदिर में गणेश की जो प्रतिमा है, वह शुद्ध रुप से गोबर की बनी है। इस मूर्ति में 70% से 75% हिस्सा गोबर का है और इसका बीस-पच्चीस फीसदी हिस्सा मिट्टी और दूसरी सामग्री से बना है इसीलिए इस मंदिर को गोबर गणेश मंदिर कहते हैं। विद्वानों के अनुसार मिट्टी और गोबर की मूर्ति की पूजा पंच भूतात्मक होने तथा गोबर में लक्ष्मी का वास होने से लक्ष्मी तथा ऐश्वर्यकी प्राप्ती हेतु की जाती है।
(4)  वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में माना जाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है।
               वरद विनायक की ज्योति हम सभी के जीवन रौशन करे यही प्रार्थना करते हैं।
            प्रथम पूजक, विध्नहर्ता हैं गणेंश।
            सुखकर्ता, विद्याबुद्धी प्रदाता हैं गणेंश।
           सबकी मनोकामना पूरी करते हैं गणेंश।
      वंदन करो, नमन करो, दिल से बोलो जय गणेंश।।
                 एकदंन्तं महाकायं लम्बोदरं गजाननं ।
                विघ्ननाशकरं देवम् हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥
           
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Saturday 15 September 2012

दिशा भ्रमित होता भारत का कर्णधार





 आज जहाँ देखो वहाँ युवा वर्ग बड़े रौष में नजर आता हैं जरा-जरा सी बात पर इरीटेट(irritate) हो जाना उसकी आदत बनती जा रही है। समाचार पन्नों में आये दिन पढऩे को मिलता है कि किसी 14-15 साल के बच्चे ने अपने सहयोगी की हत्या कर दी या कहीं किसी ने अध्यापक को मार दिया। कहीं किसी युवा ने लडक़ी पर तेजाब डाल दिया। ये तेजाबी मानसिकता बढ़ती ही जा रही है।
बढ़ती हुई इस विषैली मानसिकता का मूलकारण बच्चों की बचपन की दिनर्चया का बदल जाना काफी हद तक जिम्मेदार है। डॉ. स्टेनले हॉल की पुस्तक ऐंडोलसेंस में बच्चों के बारे में वैज्ञानिक आधार पर लिखा है कि बच्चों के मनोभावों पर परिवेश का महत्वपूर्ण एवं निर्णायक प्रभाव रहता है।
पुराने समय में बच्चे, पंचतंत्र, चंपक एवं नंदन जैसी बाल पत्रिकाओं को पढ़ते थे, जो उनमें सहयोग तथा सभी प्राणी जगत से प्रेम करना सिखाती थी। अल्बर्ट ऑइनस्टाइन ने कहा है कि--
If you want your children to be intelligent, read them fairy tales. If you want them to be more intelligent, read them more fairy tales.”
Albert Einstein
पहले बच्चे, ऐसे खेल खेलते थे जिससे, टीम भावना का विकास होता था और शारीरिक विकास भी हो जाता था। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक होता था। आज के परिवेश में वीडियो गेम खेलते हैं, वो भी ऐसे जो मारधाड़ से भरपूर हैं। हर स्टेज में कई किरदारों को मारकर अपने जीत के लक्ष्य को हासिल करते हैं। बच्चों के मानस पटलपर आक्रोश का असर कब अपनी छाप बना लेता है पता ही नही चलता और ये आक्रोश उनके व्यवहार में शामिल हो जाता है। बाल्यावस्था में बच्चों का मस्तिष्क कोमल एवं बातों को ग्रहण करने वाला होता है। यदि उस दौरान उसे अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान करा दिया जाए तो बाल मस्तिष्क उसे शीघ्र ग्रहण करके व्यावहारिक रूप देने का प्रयास करेगा, जो समाज एवं राष्ट्र के लिये हितकर होगा।
आजकल एक वायरस (virus) बहुत तेजी से अपना असर दिखा रहा है बच्चे ना नही सुनना चाहते। इस वायरस को फैलाने में माँ-बाप भी जिम्मेदार है। एक या दो बच्चे आज परिवार में होते हैं उनकी सारी इच्छाएं पूरी कर दी जाती है। इनमें से ही कुछ बच्चे बड़े होकर जरा सी ना पर अपने माँ-बाप को भी मार सकते है।
भारत में एक होड़ सी है कि पाश्चात्य सभ्यता के अनुसार जीवन यापन करना। जो बातें वहाँ सरदर्द का कारण बन गई हैं, वो हम यहाँ बड़े शौक से अपनाते हैं। आजकल एक बड़ी बहस चल रही है कि सेक्स एजुकेशन बच्चों को जरूर देना चाहिए। माना सही है, ज्ञान सब तरह का होना चाहिए किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर ज्ञान की एक मानसिक उम्र होती है, उसी के अनुसार ज्ञान दिया जाए तो बेहतर होता है। अधकचरा ज्ञान, अपरिपक्व ज्ञान नुकसान के सिवाय कुछ नही दे सकता जिस तरह अधपका खाना पेट दर्द का कारण बनता है, उसी तरह अधपका ज्ञान मानसिकता को बिमार करता है।
बच्चों का मन बहुत कोमल होता है इसलिए हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को ऐेसे खेल या ज्ञान न दे जो उन्हे अपराधी बनने में मदद करते हैं। बच्चों की फरमाइश पर उन्हे ना कहना भी सीखें क्योंकि जिस तरह आजकल नित नये शर्मसार किस्से सुनने को मिल रहे हैं, वो कब भीषण रूप ले लेंगे हम सोंच भी नही पायेंगे।
आज हम सोचने पर मजबूर हैं कि क्या हम वाकई 21वीं सदी में हैं, जो नई टेक्नोलॉजी और ज्यादा साक्षर युवा की फौज है। आदि-मानव काल में भी इतनी क्रूरता न रही होगी जिस तरह की विक्षिप्त मानसिकता आज जन्म ले रही हैं।
समय रहते सचेत रहना बहुत जरूरी है वरना ये तेजाबी वायरस पूरे समाज को ही जला देगा।
बच्चों का मन मक्खन की तरह निर्मल होता है, वो तो कुम्हार की उस मिट्टी की तरह हैं जिसे जिस रूप या आकार में ढालो ढल जायेंगे।
दोस्तों, हम सब प्रण करें कि बच्चों को कहानियों और अच्छे खेलों के माध्यम से उनके मन को वो शक्ति प्रदान करेंगे जो उनकें मन के भीतर जाकर उनमें संस्कार, सर्मपण, सदभावना और भारतीय संस्कृति पर गर्व करना सिखाये। बाल साहित्य में ऐसे अनेक किस्से हैं, जो प्रकृति के माध्यम से परोपकार की भावना को सिखाते हैं।
कल का सूरज बच्चों को शिष्ट एवं शांत प्रकाश से रौशन करे यही अभिलाषा हैं।