Friday 27 June 2014

विवाह जैसे पवित्र बंधन पर तलाक का ग्रहणं क्यों???

हिन्दु धर्म में प्रचलित सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है विवाह, जिसके गठबंधन से दो लोगों यानि की वर एवं वधु ही नही बल्की दो परिवारों, दो संस्कारों का भी मिलन होता है। मानव समाज की महत्वपूर्ण प्रथा विवाह के अंर्तगत वर एवं वधु अग्नि को साक्षी मान कर तन, मन और आत्मा के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हमारे पुराणों, वेदो एवं साहित्यों में भी विवाह की मर्यादा को स्थापित किया गया है।समाज में  हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाने वाला वैवाहिक बंधन का कार्यक्रम दो दशक पहले तक 10 - 12 दिन तक चलता था। समय के साथ 5 दिन का हो गया फिर तीन दिन में ही विवाह कार्यक्रम संपन्न होने लगे। आज आलम ये है कि समाज का अति महत्वपूर्ण संस्कार महज तीन घंटे में संपन्न हो जाता है। समय की कमी का रोना रोने वालों के लिए वो दिन दूर नही जब विवाह जैसा पवित्र बंधन "रेडी टू ईट" की तरह दो मिनट में ही पूर्ण हो जायेगा। 

कहते हैं "सोना तप कर ही कुन्दन बनता है" उसी प्रकार वैवाहिक बंधन भी अपनी-अपनी रीति-रिवाजों के अनुसार हवन की वेदी पर अग्नि के समक्ष किये गये वादों से मजबूत होता है। समय के परिवर्तन ने और आधुनिकता की आँधी से इस पवित्र संस्कार में बदलाव की बयार बह रही है। जहाँ गोत्र, जाति, धर्म एवं गुण आदि का कठोरता से पालन होता था वहाँ अब लङके लङकियों की राय और पसंद को महत्व दिया जा रहा है। पूराने जमाने की मान्यताओं, उपजाति, योग्य वर, सुशील दुल्हन जैसी कसौटियों से हट कर पालक की सहमति से अंर्तजातिय विवाह को सहमति मिल रही है। जाति तो अब केवल राजनैतिक उपकरण रह गई है।  

शादी को लेकर अब लचीला और व्यवहारिक रवैया अपनाया जा रहा है। वैचारिक सामजस्य पर अधिक जोर दिया जा रहा है। वर-वधु की तलाश पंडितों या रिश्तेदारों की बजाय वैवाहिक विज्ञापनो तथा इंटरनेट के माध्यम से की जा रही है। मन में प्रश्न ये उठना स्वाभाविक है कि आज अधिक लचिलापन, वैचारिक महत्व और उच्च शिक्षा के बावजूद वैवाहिक बंधन तलाक जैसी कुप्रथा की अग्नि में पहले से ज्यादा क्यों सुलग रहे हैं?

विज्ञान की नित नई टेक्नोल़ॉजी जहाँ विकास के नये आयाम खोल रही है वहीं, वैचारिक सामजस्य के बावजूद विवाह जैसे पवित्र बंधन को विच्छेद भी कर रही है। एक सर्वे के अनुसार विगत एक साल में तलाक का कारण आधुनिक परिवेश में व्याप्त फेसबुक और वाट्सअप जैसी सुवधाएं भी हैं। कई बार नेटवर्क प्रॉब्लम की वजह से कुछ ऐसी गलतफहमी हो जाती है कि बात तलाक तक पहुँच जाती है। वास्तव में हम सभी आज आधुनिकता के रंग में इस कदर रंग गये हैं कि एक दूसरे की बातों को धैर्य से सुनने की शक्ति को कहीं खोते जा रहे हैं। एक तरफ तो हमारी नई टेक्नोल़ॉजी और दूसरी तरफ सामाजिक दुषित मान्यता रिश्तों को तोङने में "आग में घी" का काम करती हैं। 

आज हम कितने भी आधुनिक होने का परचम फैलाएं किन्तु अभी भी सिर्फ लङकियों को ही अच्छी पत्नी एवं अच्छी बहु बनने की नसीहत दी जाती है। कोई भी अभिभावक अपने बेटे को एक अच्छा पति एवं अच्छा दामाद बनने की नसिहत क्यों नही देते?  21वीं शदी में लङका और लङकी की बराबरी की बात करते हैं। हिन्दु अधिनियम 955 के तहत दोनों को बराबरी का दर्जा देते हैं। वेदों के अनुसार भी पत्नि को आधा अंश कहते हैं। "ताली तो दोनो हाँथ से ही बजती है" फिर सिर्फ एक को नसिहत देने से विवाह जैसे पवित्र बंधन को कब तक टूटने से बचाया जा सकता है। 


कुछ लङके प्यार  को समझते हुए भावनात्मक भावनाओं से युक्त यदि अपनी पत्नी की काबलियत का आदर करते हैं और उनकी कही बात को  अहमियत देते हैं तो, हमारे अपने कहे जाने वाले रिश्ते ही इस भावना को "जोरू का गुलाम" जैसी उपाधी दे देते हैं। कई बार ऐसे आघातों से दामपत्य जैसा मधुर रिश्ता धाराशायी हो जाता है। 

विवाह संबन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए काउनसलर (सलाहाकारों) की बढती बयार यही दर्शाती है कि हमारे समाज में आज हम भले ही अधिक शिक्षित हो गये हों, अधिक आर्थिक संपन्न हो गये हों परन्तु भावनात्मक रिश्तों को आपस में सुलझाने में असर्मथ हैं। ये सलाहकार मनोवैज्ञानिक दृष्टीकोंण से समझा जरूर सकते हैं किन्तु रिश्ते सदैव मधुर रहें इसकी गारंटी नही देते। अतः वैवाहिक युगल को अपनी समस्याओं को आपसी बातचीत और धैर्य के साथ स्वविवेक से हल करना चाहिए, जिससे आधुनिकता के परिवेश में भी  हम अपनी संस्कृति जो की भावनात्मक रिश्तों की नींव है, उससे दूर न हों सकें। 

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, विवाह जैसे पवित्र संस्कार को जिस पर सृष्टी  को आगे बढाने का दायित्व भी है ऐसे पवित्र बंधन को अपने प्यार, समर्पण और आपसी समझदारी से इतना मजबूत करना चाहिये कि आधुनिकता और सामाजिक दुषित सोच  इस बंधन को तोङ न सकें। 

Marrige is a thousand little things.... 
It's giving up your right to be right in the heat of an argument. It's forgiving another when the let you down . It's loving someone enough to step down so they can shine. It's frindship. It's being a cheerleader and trusted confidant. It's place of forgiveness that welcomes one home and arms they can run to in the mist of a storm. 
It's grace. 

Wednesday 25 June 2014

उत्तराखण्ड के पाँच प्रयाग



भारत वर्ष में पवित्र नदियों के संगम को प्रयाग कहा जाता है। इलाहाबाद में गंगा, जमुना एवं सरस्वती के संगम को प्रयाग राज कहा जाता है। ऐसे ही उत्तराखण्ड के पाँच प्रयागों का हमारे धर्मों में विषेश महत्व है। जो इस प्रकार हैः-


देवप्रयागः- अलकनंदा तथा भगीरथ नदियों के संगम पर देवप्रयाग नामक स्थान स्थित है। इसी संगम स्थल के बाद इस नदी को गंगा के नाम से जाना जाता है । यह समुद्र सतह से १५०० फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग में शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर हैजो की यहां के मुख्य आकर्षण हैं। रघुनाथ मंदिर द्रविड शैली से निर्मित है। देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। देवप्रयाग में कौवे दिखायी नहीं देतेजो की एक आश्चर्य की बात है।



रुद्र प्रयागः- रुद्र प्रयाग मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम पर स्थित है। अलकनंदा का उद्गम स्थल बद्रीनाथ धाम है एवं मंदाकिनी शिव के क्षेत्र केदारनाथ से प्रवाहित होती है। रुद्र प्रयाग में ही नारद जी ने रुद्र रूप शिव से संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। यहाँ शिव के रुद्र अवतार का दर्शन होता है। यहीं पर भगवान रुद्र ने श्री नारदजी को `महतीनाम की वीणा भी प्रदान की थी। यहीं से केदारनाथ के दर्शन हेतु यात्रा मार्ग आरंभ होता है। यहाँ की संध्या आरती का सौभाग्य हम दोनों को भी प्राप्त हुआ जो अति आनंदमय क्षण था।

कर्ण प्रयागः-  कर्ण प्रयाग में अलकनंदा तथा पिंडर नदी का संगम स्थल है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी हैजिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहीं पर महादानी कर्ण द्वारा भगवान सूर्य की आराधना और अभेद्य कवच कुंडलों का प्राप्त किया जाना प्रसिद्ध है। कर्ण की तपस्थली होने के कारण भी इस स्थान को कर्णप्रयाग कहा जाता है।

नंद प्रयागः- नंदाकिनी एवं अलकनंदा के संगम को नंद प्रयाग कहते हैं। कर्णप्रयाग से उत्तर में बदरीनाथ मार्ग पर 21 किमी आगे नंदाकिनी एवं अलकनंदा का पावन संगम है। पौराणिक कथा के अनुसार यहां पर नंद महाराज ने भगवान नारायण की प्रसन्नता और उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था। यहां पर नंदादेवी का भी बड़ा सुंदर मन्दिर है। नन्दा का मंदिरनंद की तपस्थली एवं नंदाकिनी का संगम आदि योगों से इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा। संगम पर भगवान शंकर का दिव्य मंदिर है। यहां पर लक्ष्मीनारायण और गोपालजी के मंदिर दर्शनीय हैं। यह सागर तल से २८०५ फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है।है।

विष्णु पुराणः- विष्णु पुराण धौली गंगा तथा अलकनंदा का संगम स्थल है। यहाँ विष्णु जी की प्रतिमा से सुशोभित मंदिर और विष्णुकुण्ड दर्शनिय है। यहीं से सूक्ष्म बदरिकाश्रम प्रारंभ होता है। इसी स्थल पर दायें-बायें दो पर्वत हैंजिन्हें भगवान के द्वारपालों के रूप में जाना जाता है। दायें जय और बायें विजय हैं। स्कंद पुराण में इसका वर्णन वर्णित है।

भारत की संस्कृति में नदियों को देवी रूप प्रदान किया गया है, अतः उपरोक्त प्रयागों का दर्शन धार्मिक यात्रा में विशेष महत्व रखता है। इन पाँच प्रयागों के पश्चात ही देव प्रयाग के बाद से ही इस धरती पर माँ गंगा का अवतरण होता है। ऋषिकेश से अलकनंदा मंदाकिनी नंदाकिनी धौली गंगा पिंडर नदी तथा भागीरथी माँ गंगा के नाम से इस धरती पर पूज्यनिय हैं। पवित्र पावनी जीवनदायनी मोक्षदायनि माँ गंगा को निमर्ल एवं स्वच्छ रखने का प्रण करते हुए शत् शत् नमन करते हैं।

                

Tuesday 24 June 2014

केदारनाथ धाम


हिमालय की गोद में तपस्वियों, ऋषियों की तपो भूमि केदारनाथ शिव धाम समुन्द्र तल से 11735 फिट की ऊँचाई पर स्थित अत्यन्त शोभायमान स्थान है। यहाँ परम् पिता महादेव का ग्यारहवाँ ज्योर्तिलिंग श्री केदारेश्वर के रूप में विद्यमान है। पौराणिक कथानुसार केदारनाथ से संबंधी प्रचलित कथा इस प्रकार हैः-

कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद गोत्र हत्या के पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए पांडव काशी गये परन्तु वहाँ वे भोले भंडारी विश्वनाथ का दर्शन कर प्रायश्चित्त नहीं कर सके। ऐसा मानना है कि शिव शंकर उन्हे दर्शन देना नहीं चाहते थे, अतः वे हिमालय पर चले गये। पांडव महादेव को ढूढंते हुए हिमालय पहुँचे किन्तु शिव वहाँ से भी अदृश्य हो गये। इस स्थान को गुप्त काशी कहा जाता है। पांडव गौरी कुण्ड आदि स्थानों पर शिव को ढूंढते हुए आगे बढ रहे थे कि तभी नकुल और सहदेव को एक नर भैंसा दिखा जिसका रूप विचित्र था। विचित्र भैंसे को देखकर भीम उसके पीछे दौङे अत्य़धिक भागम-भाग के कारण भीम थक गये परंतु भैंसा भीम के हाँथ नहीं लगा। तभी भैंसे को दूर खङे देख भीम ने उसपर गदा से प्रहार किया तब भी वो भैंसा जमीन में मुख छिपाए बैठा रहा। भीम ने उसकी पूंछ पकङ कर जोर से खींचा तो भैंसे का मुख नेपाल में प्रकट हुआ जिसे पशुपतीनाथ के नाम से जाना जाता है। भैंसे का पार्श्वभाग वहीं रह गया, उसमें से दिव्य ज्योति प्रकट हुई। इस ज्योति में भगवान शिव शंकर प्रकट हुए और उन्होने पांडवों को दर्शन दिये। महादेव के आशिर्वाद से पांडव गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए। पांडवों की प्रार्थना पर भगवान भोले नाथ त्रीकोंणिय आकार में भक्तों के कल्यांण हेतु वहीं विराजमान हो गये। नर भैंसे का पश्च भाग त्रीकोंणी था अतः शिव का ये रूप त्रीकोंणिय आकार में पूज्यनिय है।
नर भैंसे के रूप में प्रत्यत्क्ष शिवजी पर गदा से प्रहार करने की वजह से भीम बहुत दुःखी हुए तथा भोलेभंडारी शिव से क्षमा याचना माँगी तथा उनकी पीठ की घी से मालिश किये। आज भी केदार नाथ में पानी से अभिषेक करने के बजाय घी से अभिषेक किया जाता है। केदार नामक हिमालय चोटी पर स्थित होने के कारण इस ज्योर्तिलिंग को केदारेश्वर ज्योर्तिलिंग के रूप में पूजा जाता है।

केदारनाथ मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर बङे पत्थरों से बना मंदिर है। ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार 1019 में राजा भोज ने इसे बनवाया था। 1800 में अहिल्लयाबाई होल्कर ने इसका जिर्णोद्वार करवाकर मंदिर पर स्वर्ण कलश स्थापित करवाया। मंदिर के सभामंडप में नंदी, पांडव, द्रोपदी, कुंती तथा कृष्ण भगवान की मूर्तियां भी स्थापित हैं। ज्योर्तलिंग का आकार त्रीकोंणिय होने के कारण इस पर जालाभीषेक नहीं किया जाता। केदार नाथ की प्रातः कालीन पूजा को निर्वाण दर्शन कहा जाता है तथा सांयकालीन पूजा को शृगांरदर्शन कहा जाता है। केदारनाथ धाम की महिमा का वर्णन गरुण पुराण,  शिव पुराण, सौर पुराण तथा पद्म पुराण आदि में वर्णित किया गया है। कार्तिक मास में जब जोर की हिम वर्षा होती है तो श्री केदारेश्वर का भोगसिंहासन निकालकर मंदिर का द्वार बंद कर दिया जाता है। चैत्र मास तक केदारनाथ जी का निवास उखीमठ में होता है।

वर्ष 2013 में आई प्राकृतिक सुनामी में जहां संपूर्ण बस्ती का विनाश हो गया वहीं केदार नाथ मंदिर का सुरक्षित रहना ईश्वरीय चमत्कार ही है। शिव की अद्भुत महिमा का ऐसा असर हुआ कि एक चट्टान पता नहीं कहाँ से आकर मंदिर के लिए सुरक्षा कवच बन गई। इस रहस्य की गुत्थी विज्ञान भी सुलझाने में असर्मथ है। गौरी कुण्ड में भी केवल माता भगवती का मंदिर, सुरक्षित बचा रहना आस्था के विश्वास को और भी मजबूत करता है। सर्व शक्तिमान बाबा केदारनाथ का आशिर्वाद हम सभी पर रहे तथा विश्वास और आस्था की अलख हम सभी के मन में जलती रहे। ऐसी पवित्र मनोकामना के साथ सब मिलकर प्रेम से बोले ऊँ नमःशिवाय



  

Tuesday 17 June 2014

हमारी केदारनाथ यात्रा


उत्तराखण्ड के पवित्र चार धामों में से एक तथा भोलेभंडारी शिव के बारह ज्योर्तिलिंग का ग्यारहंवां ज्योर्तलिंग केदार नाथ का पट इस वर्ष 4 मई को भक्तों के दर्शनार्थ हेतु खोल दिया गया। भगवान केदार नाथ से आशिर्वाद लेने अनेक भक्तजन केदारधाम की यात्रा पर निकल पङे हैं। पिछले साल की त्रासदी के बावजूद  ईश्वरीय आस्था के सैलाब ने प्राकृतिक आपदा के सैलाब को इस कदर शिक्सत देने की थान ली है कि 60-70 साल के बुजुर्ग भी भोलेनाथ के दर्शन को पैदल कठिन मार्ग पर भी चलने के लिए उत्सुक हैं। हर तरफ भोलेनाथ, कोदारनाथ बाबा की जय जयकार के साथ लोग लम्बी कतारों में सोनप्रयाग में दर्शन यात्रा हेतु प्रतिक्षा में खङे नजर आ रहे थे। डॉक्टरी जाँच परिक्षण की कतार हो या पोनी के लिए टिकिट पंक्ति चँहुओर दर्शनार्थी प्रसन्न मन से अपनी बारी का इंतजार करते हुए थकते नही।

शिव शंकर बाबा केदार नाथ के दर्शन की अभिलाषा लिए हम लोगों की यात्रा ऋषीकेश से 16 मई 2014 को  गढवाल मंडल के सहयोग से शुरू हुई, जो रास्ते में स्थित पावन पाँच प्रयागों के दर्शन से और भी मनोहारी हो रही थी। रास्ते के मनोरम प्रकृतिक दृश्य यात्रा को उत्साह प्रदान कर रहे थे। यात्रा शुरू होने के कुछ समय पश्चात हम लोगों ने देवप्रयाग का दर्शन लाभ लिया, जहाँ भागरथी तथा अलखनंदा का संगम है। केदारनाथ धाम की यात्रा के सफर में उत्तराखण्ड के पाँच प्रयागों का दर्शन अतिमनोहारी है जिसकी विस्तार में चर्चा अगले लेख में करेंगे।

देवप्रयाग पर अल्पविराम के पश्चात हमारी यात्रा आगे बढी और दोपहर के भोजन हेतु रुद्र प्रयाग में गढवालमंडल के गेस्टहाउस में रुकी। रुद्रप्रयाग में अलखनंदा और मंदाकनी का संगम है। भोजन अवकाश के पश्चात यात्रा आगे बढती है एंव शाम को रामपुर पहुँच गई। रामपुर के गेस्टहाउस में हम सभी के लिए रात्रिविश्राम की व्यवस्था थी। वहीं हम सबको ये पता चला कि सुरक्षा की दृष्टी से सभी का मेडिकल चेकअप अनिवार्य है, जिसके लिए लंबी कतार लगी हुई है। ऐसी स्थिती में हमारे गाइड ने उचित निर्णय लिया सुबह मेडिकल चेकअप कराने के बजाय शाम को ही वो हम सभी को लेकर रामपुर से 6 किमी दूर सोनप्रयाग ले गया। सोनप्रयाग में मेडीकल चेकअप की व्यवस्था थी। लंबी प्रतिक्षा के बाद हम सभी का मेडिकल सर्टीफिकेट बन गया और हम सभी ने इसे केदारनाथ दर्शन हेतु एक सकारात्मक संदेश माना। हम लोगों को हेलीकॉप्टर से केदार नाथ जाना था किन्तु सरकार द्वारा तबतक  हेलीकॉप्टर यातायात की अनुमति नही प्राप्त हो सकी थी। अतः हम लोगों ने अपनी यात्रा पोनी के माध्यम से पूर्ण करने का निर्णय लिया। अगले दिन 17 मई को प्रातः 4 बजे हमलोग सोनप्रयाग पहुँचे और वहाँ रजिस्ट्रेशन के पश्चात पोनी के माध्यम से 17 किमी की दूरी तय करके लिंचौली पहुँचे।


सोनप्रयाग से ही एक वर्ष पूर्व हुई त्रासदी का असर दिखने लगा था। सुरक्षा की दृष्टी से 500 या 600 यात्रियों को ही आगे की यात्रा की अनुमति मिल रही थी। सोनप्रयाग से केदार नाथ धाम का रास्ता आपदा के कारण और भी कठिन हो गया है, फिर भी आस्था का सैलाब हर कठिनाईयों को पार करके बाबा केदार नाथ के दर्शन को उत्साहित था। रास्ते के मनोरम दृश्य तथा पवित्र धाम के दर्शन की अभिलाषा, आगे बढने का उत्साह दे रहे थे। पहाङियों पर घुमावदार तथा  ऊँचे-निचे रास्ते, तो कहीं बेहद मुश्किल मोङ मन में अनेक भावों को जन्म दे रहे थे। कभी खाई का डर तो कभी झरनो की शीतलता मन को शान्त कर रही थी। मार्ग में सभी यात्रियों के मुख से ऊँ नमः शिवाय का स्वर गुँजायमान हो रहा था। गढवाल सरकार की तरफ से जगह-जगह पर चाय-पानी एवं भोजन की निःशुल्क व्यवस्था है, जहाँ यात्री अल्प विश्राम के पश्चात  जय भोले नाथ का जयकारा लगाते हुए आगे बढ रहे थे।  


जैसे-जैसे हम आगे बढ रहे थे रास्ता और अधिक कठिन हो रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बाबा केदार नाथ हम सभी की परिक्षा ले रहे हों। ईश्वर की कृपा से मौसम सकारात्मक था। लिंचौली के बाद लगभग 4 किमी का सफर हमें पैदल पूरा करना था। कहीं-कहीं बर्फ के बीच में से चलना तो कहीं सीधी पहाङी पर चढना। यात्रा अत्यधिक मुश्किल थी,  एक किमी का सफर पूरा करने में एक घंटे का समय लगा। मार्ग में सेवाभाव में लगे लोग सभी दर्शनार्थियों को आगे बढने के लिए प्रेरित कर रहे थे। शिव की कृपा और लोगों के सकारात्मक सहयोग से बर्फिली पहाङियों के रास्ते तथा ऊँचे-निचे दुर्गम मार्ग भी पार हो गये। जैसे ही मंदिर का गुम्बद दिखा, हम सभी में उमंग का ऐसा संचार हुआ कि थकान काफूर हो गई। जगत पिता केदारनाथ के आर्शिवाद हेतु हमारे पैर मंदिर की ओर चल पङे, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि, कोई पिता अपने बच्चों को गले लगाने के लिए बाँहें फैलाए खङा हो। चारो तरफ बर्फ की सफेद चादरों के बीच बाबा केदारनाथ का मंदिर मनोहारी प्रतीत हो रहा था। अक्सर हम सबके मन में जो छवी है कि, कैलाश पर शिव बर्फ के पहाङों पर बैठे हैं, उसी दृश्य का आभास होने लगा था।  

मंदिर के अंदर परम् पिता केदारनाथ बाबा का प्रतीक ग्रेफाइट की एक शिला से बना हुआ है जो त्रीकोंणिय आकार का है। जिसमें बुद्धि के देवता गणेंश एंव माता पार्वती,  शिवशंकर केदारनाथ के संग विराजमान हैं। मंदिर के अंदर स्थित पुजारी जी के द्वारा हमें मंत्रोचार से 20 मिनट तक  पूजा अर्चना करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिससे अद्भुत मानसिक शान्ति का आभास हो रहा था। दुर्गम एवं कठिन रास्तों की थकान दर्शन मात्र से पलभर में दूर हो गई। मंदिर परिसर में हमने लगभग एक घंटे का समय व्यतीत किया। शिव के दर्शन से प्राप्त आर्शिवाद का ऐसा असर हुआ कि वापसी का सफर रंच मात्र भी दुष्कर नही लगा। पहाङी रास्तों पर रात्री का सफर लगभग असंभव होता है अतः हम लोग लिंचौली में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा बनाये गये टेन्टहाउस में रात्री विश्राम के लिए रुके, जहाँ अत्यधिक ठंड  से बचने के लिए प्रत्येक यात्रियों को स्लीिपिंग बैग दिया गया था। अगले दिन प्रातः 5 बजे हम लोग वापस सोनप्रयाग के लिए प्रस्थान किये। प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि  अधिकांश दूरी हम पैदल ही चलकर पार कर सके।  

ईश्वर की कृपा से ही हम बाबा केदार नाथ का दर्शन लाभ प्राप्त कर सके। ये सारस्वत सत्य है कि  ईश्वर की कृपा के बिना एक पत्ता भी नही हिलता उनकी कृपा हो तो मार्ग के सभी संकट पलभर में दूर हो जातें हैं। परन्तु प्रयास करना मनुष्य का परम् धर्म है, अतः आपदा के खौफ से बाहर निकलकर केदारनाथ की यात्रा के इच्छुक लोगों को यात्रा की शुरूवात जरूर करनी चाहिये क्योंकि ईश्वर भी उसी की सहायता करता है जो आगे बढने का प्रयास करता है।पवित्र धाम केदारनाथ की अद्भुत छवि का वर्णन शब्दों में असंभव है क्योंकि उसे सिर्फ वहाँ जाकर महसूस ही किया जा सकता है। अपने अनुभव को इस लेख द्वारा व्यक्त करना एक प्रयास है। केदार नाथ के दर्शन के पश्चात हम लोगों की यात्रा बद्रीनाथ धाम के दर्शन हेतु अग्रसर हुई। एक सप्ताह की हमारी यात्रा में 12 लोगों का समूह था, जो अलग-अलग प्रान्त के थे, फिर भी यात्रा के दौरान ऐसा सकारात्मक वातावरण बना रहा कि हम सब एक परिवार जैसे ही रहे तथा भारतीय संस्कृति को आत्मसात करते हुए हर्षोल्लास के साथ हम सभी का सफर दोनो धाम अर्थात केदारनाथ तथा बद्रीनाथ के दर्शन से पूर्ण हुआ। 




बाबा केदारनाथ की कथा एवं पाँच प्रयागों का उल्लेख हम अपने अगले लेख में करेंगे। ऊँ नमः शिवाय