Tuesday 29 July 2014

प्रेमचंद जी की कहानी 'मंत्र'


प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय हिन्दी और उर्दु के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मुशी प्रेमचंद और नवाब राय तथा उपन्यास सम्राट के नाम से अविभूत प्रेमचंद एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक विरासत हैं। ठेठ देहाती धोती-कुर्ता ग्रामीण वेष-भूषा में गोरी सूरत, घनी काली भौहें, छोटी-छोटी आँखें, नुकीली नाक और बङी-बङी गुछी हुई मूँछों वाला मुसकराता चेहरा मुंशी प्रेमचंद के व्यक्तित्व को परिलाक्षित करता है। बचपन से ही रोने-खीजने वाली परिस्थितियों को हंसी में उङाने वाले प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही नामक गॉव में हुआ था।

आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के पक्षधर मुशी प्रेमचंद जी अपनी इस मनोवैज्ञानिक धारणा को प्रतिष्ठित करके पाठकों के सम्मुख रखते हैं। मंत्र कहानी का रूप भी इसी प्रकार का है जिसमें यथार्थ और आदर्श का गहरा द्वन्द है और अंत में विजय आदर्श की होती है। कहानी में भगत अपने आर्दशत्मक व्यवहार से पाठकों पर गहरी छाप छोङता है। वहीं डॉ. चढ्ढा का भी चरित्र कहानी के अंत में आदर्श को स्पर्श करता है।

                           मंत्र
डॉ. चढ्ढा गोल्फ खेलने जा रहे थे। उसी समय एक ग्रामीण बिमार पुत्र को लेकर आता है। परन्तु डॉ.साहब उसको एक नजर भी देखने का कष्ट नही उठाते। वो बेचारा ग्रामीण उनसे लाख विनती करता है, अपनी पगङी तक उतार कर रख देता है और ये भी कहता है कि यदि उन्होने रोगी को नही देखा तो वो मर जायेगा। परंतु डॉ. चढ्ढा पर उसकी याचना का कोई प्रभाव नही पङता। डॉ. साहब मोटर में बैठकर चले जाते हैं। उसी रात उस वृद्ध ग्रामीण का एक मात्र सहारा उसका 7 वर्ष का पुत्र मर जाता है।

वहीं दूसरी ओर डॉ. साहब के पुत्र का नाम कैलाश था, जो कॉलेज में पढता था। इस घटना को कई वर्ष बीत चुके थे। कैलाश की बीसवीं सालगिरह थी। उसकी प्रेमिका और सहपाठिनी मृणालीनी भी इस अवसर पर उपस्थित थी। कैलाश को साँप पालने का शौक था। उसने सर्पों के बारे में एक सपेरे से बहुत कुछ सीखा था। जन्मदिन के उपलक्ष पर मृणालिनी ने कैलाश से सांप दिखाने का आग्रह किया। पहले तो उसने मना कर दिया किन्तु आग्रह बढने पर दिखाने के लिए राजी हो गया। मित्रों ने कटाक्ष किया कि दाँत तोङ दिया होगा। कैलाश ने कहा कि सबके दाँत सुरक्षित हैं। इसपर लगभग कई दोस्त कहने लगे दिखाओ तो सच माने। कैलाश इस बात से तिलमिला गया और एक काले साँप को पकङ कर बोला कि ये मेरे पास सबसे विषेला साँप है, मैं इसके दाँत दिखाता हुँ। इस क्रिया में कैलाश ने उस साँप की गरदन दबा दी। दबाव के कारण विषधर ने मुहँ खोल दिया जिससे दाँत साफ दिखाई देने लगे। परंतु ज्यों ही कैलाश ने साँप की गरदन ढीली की उसने कैलाश को काट लिया। जङी-बूटी लगाई गई, झाङ-फूक वाले को बुलाया गया। सारे उपाय व्यर्थ हो गये कैलाश की हालत बिगङती गई। आनंद का माहौल दुःख में बदल गया। पूरे गॉव में आग की तरह ये खबर फैल गई कि डॉ.चढ्ढा के बेटे को साँप ने काट लिया।

उस समय जोर की ठंड पङ रही थी, बुढा ग्रामीण भगत अपनी झोपङी में आग ताप रहा था उसे भी ये समाचार मिला।  80 साल के जीवन में अभी तक यदि कहीं भी साँप काटने की बात भगत सुनता तो दौङा चला जाता था क्योंकि जहरीले से भी जहरीले साँप का जहर वो उतार सकता था। परंतु इसबार उसके मन में प्रतिक्रिया का भाव जागा। उसे उपने बेटे का दम तोङता चेहरा याद आ गया। उसने सोचा अब डॉ. चढ्ढा को पता चलेगा कि बेटे का दर्द क्या होता है। लेकिन कुछ पल बाद ही भगत के मन में ख्याल आया कि जीवन तो अमुल्य है उसे बचाना पुन्य काम है। उसके मन में आक्रोश और कल्याण भावना में द्वन्द होने लगा। अंत में कल्याण की भावना भगत पर हावी हो गई क्योंकि वो बहुत नेक इंसान था। गरीब होते हुए भी इंसानियत का धनी था।

डॉ. के उदासीन व्यवहार के बावजूद भगत चढ्ढा की कोठी पर गया। उस समय रात्री के 2 बज रहे थे, भयंकर ठंड पङ रही थी। भगत ने कैलाश को देखा और डॉ. से बोला की अभी कुछ नही बिगङा है, कहांरो से पानी भरवाओ। कैलाश के ऊपर पानी डाला जाने लगा और वृद्ध भगत मंत्र पढने लगा। प्रातः काल होते-होते कैलाश ने आँखे खोल दी। उसे ठीक करके भगत चुप-चाप वहाँ से चला गया। सुबह भगत का चेहरा देखकर डॉ. चढ्ढा को याद आया कि ये वही बुढ्ढा है जो एकबार अपने बेटे को इलाज के लिए लाया था, लेकिन तब तक भगत अपने घर जा चुका होता है। डॉ. चढ्ढा को अपने किये पर पछतावा होता है। वो भगत से क्षमा माँगने के लिए उसे ढूढते हैं। डॉ. अपनी पत्नी से कहते हैं कि, गरीब और अशिक्षित होते हुए भी इस वृद्ध ने सज्जनता और कर्तव्य का आदर्श प्रस्तुत किया है।


प्रस्तुत कहानी में प्रेमचंद जी ने इंसानियत और कर्तव्य की शिक्षा देते हुए ये समझाया है कि बदले की भावना को कभी भी सच्चे आर्दशों पर हावी नही होने देना चाहिए और कैलाश के चरित्र के माध्यम से ये समझाया है कि शेखी बघारने से कितना बङा नुकसान हो सकता है। जन-मानस में भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर को भगत के व्यवहार से ये बोध हो जाता है कि, समाज में हर किसी को एक दूसरे की आवश्यकता हो सकती है। कोई बङा या छोटा नही होता। प्रेमचंद जी की सभी कहानियाँ सामाजिक पहलु को साकार करते हुए जन-मानस को सकारात्मक संदेश देती हैं। 

Monday 28 July 2014

ईद मुबारक



ऐ खुदा दुनिया से बैर को मिटा दे,
नेकी और अमन की खुशबु से, चमन मेहका दे।

सदभावना और भाईचारे के साथ, ईद मुबारक हो

Monday 21 July 2014

रुढीवादी सोच को अलविदा कहें


10 जुलाई को 2014 के आम बजट में वित्तमंत्री ने घोषङा की कि, 100 करोङ रूपये बेटी बचाओ, बेटी पढाओ पर खर्च किया जायेगा। 10 जुलाई को ही केन्द्र सरकार सी सबसे छोटी ईकाइ ग्राम पंचायत ने ऐसा तुगलकी फरमान जारी किया कि इंसानियत भी शर्मसार हो गई। करोङों की योजनाओं को ग्राम पंचायत के संवेदनाहीन फैसले ने धज्जियां उङा दी। साल दर साल योजनाएं बनती हैं, ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नही है 2013 को ही देखें निर्भया कांड में अनेक आन्दोलन हुए। सरकार द्वारा बेटीयों की सुरक्षा हेतु निर्भया कोष भी बनाया गया। आज देश में ही नही पूरे विश्व में नारी सुरक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है जिसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कई योजनाएं शुरू की। महिलाओं के सम्मान और उनके संरक्षण हेतु देश के पहले एकीकृत संकट समाधान केन्द्र 'गौरवी' का 16 जून 2014 को भोपाल में आरंभ हुआ। फिर भी NCRB ( National Crime Records Bureau) के अनुसार भारत में  प्रतिदिन 93 महिला हैवानियत का शिकार होती है। मन में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी सजगता के बावजूद आज बेटीयां सुरक्षित क्यों नही हैं????????????

भारत भूमी पर कहा जाता है कि,  "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"  यहाँ तो कन्या को देवी मानकर नौ दिन पूजा भी की जाती है। विचार किजीए फिर भी  महिलाओं और बेटीयों के प्रति अभद्रता क्यों ??

सुरक्षा, इंसाफ, न्याय, योजनाएं ये सिर्फ शब्द मात्र हैं ज़मीनी हकीकत तो ये है कि आज हमारा समाज मानवता से परे संवेदनाहीन नजर आ  रहा है। सरे आम बेटीयों के साथ बदसलुकी और तमाशबीन बेबस लाचार समाज सिर्फ मूकदर्शक रह गया है। हमारी मानवीय सामाजिक सोच को जैसे लकवा मार गया है। ऐसी बेमेल धार्मिक परंपराएं जहाँ माताएं बेटे की लंबी उम्र के लिए उपवास और धार्मिक अनुष्ठान करती हैं वहीं बेटी की खुशहाली या लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या अनुष्ठान नही होता। जन्म से ही भेद-भाव का असर दिखने लगता है बेटीयों को उपेक्षित तथा बेटों को आसमान पर बैठा दिया जाता है। भेद-भाव का बीज हम सब बोते हैं और बाद में चाहें कि बेटा बेटी का सम्मान करे ये क्या स्वाभाविक हो सकता है ! जब बीज ही असमानता को बोयेंगे तो फल समानता का कैसे मिलेगा।

सोचिए ! जिस दुनिया में बेटीयों को जन्म लेते ही पक्षपात का शिकार होना पङता हो वहाँ बेटीयाँ कितनी भी काबिल हों जाएं उन्हे लङकों से कमतर ही माना जायेगा क्योंकि हमारी बुनियादी सोच ही दोहरी मानसिकता के साथ फल-फूल रही है। आज भी अनेक परिवारों में भले ही लङकी डॉक्टर या इंजिनीयर हो वो लङके से ज्यादा कमाती हो फिर भी उसे सुन्दरता और दहेज की कसौटी पर कसा जाता है। विवाह के लिए लङके वालों के समक्ष नुमाईश की तरह पेश किया जाता है, जहाँ पसंद नापसंद का अधिकार लङकों को दिया जाता है। हमारी विषाक्त सामाजिक सोच से लङके को शंहशाह बना दिया जाता है वो जो चाहे कर सकता है। जिसका असर 21वी सदी के भारत पर भी छाया हुआ है। आज भी पुरूष प्रधान समाज की तूती बजती है, जहाँ 5 साल की बच्ची हो या 50 साल की महिला कोई सुरक्षित नही है। 

समाज का लगभग आधा भाग यानि की स्त्री वर्ग की भूमिका को भी अनदेखा नही किया जा सकता। हमारी माताओं की भी जिम्मेदारी है बेटीयों को भेद-भाव मुक्त समाज देने की किन्तु कई बार वो स्वयं ही इस दकियानुसी सोच का हिस्सा होती हैं। कहते हैं कि, औरत ही औरत की दुश्मन होती है। इस बात की गहराई हाल ही में घटी बोकारो की घटना से समझी जा सकती है।   10 जुलाई को झारखंड के बोकारो की एक ग्राम पंचायत के तुगलकी  फरमान  को  यथावत एक महिला ने ही आगे बढाया। सोचकर ही मन सिहर जाता है कि 10 साल की बच्ची को एक महिला ने ही हैवानियत की अग्नी में कैसे ढकेल दिया ! 

यदि हमें स्वस्थ भारत और बेटीयों के लिए भयमुक्त भारत बनाना है तो समाज में बेटीयों का सम्मान जन्म से ही होना चाहिए। सामाजिक ढांचे के सभी पहलुओं पर संजीदगी से विचार करना चाहिए। जहाँ स्त्री को केवल एक उपभोग की वस्तु ही समझा जाता है, ऐसे माध्यमों पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए। नारी को बाजारवाद की वस्तु न मानकर उसे भी समाज का सम्मानित हिस्सा मानना चाहिए। स्वस्थ समाज के लिए मनोरंजन की आङ में फैल रहे अश्लील कार्यक्रमों और विज्ञापनों को कठोर कानून से बन्द करना भी एक आवश्यक कदम है। विकास का मतलब ये कदापी नही है कि हम पाश्चात्य के खुलेपन को भी स्वीकारें। समाज में जागरुकता से  पक्षपात की अमानवीय सोच को समाप्त किया जा सकता है। 

रूढीवादी विषाक्त सोच भले ही आज सुरासा के मुहँ की तरह है फिर भी उसका अन्त किया जा सकता है। यदि समाज के दोनों आधार स्तंभ (नर और नारी )  मिलकर बेटी और बेटा को एक नजर से देखेंगे और समाज में व्याप्त रूढीवादी सोच को अलविदा कहेंगे तो, समभाव के दृष्टीकोंण से जलाई अलख से बेटीयों के सम्मान का सूरज जरूर उदय होगा।  

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैंः-  हम वो हैं जो हमारी सोच ने हमें बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिये कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौंण हैं, विचार दूर तक यात्रा करते हैं। 

अतः सुसंस्कारों और सकारात्मक सोच से भ्रमित लोगों के मन में सामाजिक रिश्तो के प्रति आदर की भावना को जागृत करके महिलाओं और बेटीयों के साथ हो रहे दुराचार को रोका जा सकता। सुसंस्कृत शिक्षा से बेटी बचाओ, बेटी पढाओ योजनायें अवश्य सफल होंगी। 

मित्रों, यदि आपको लगता है कि इसके अलावा भी कुछ और पहलु  हैं जिसमें भी सुधार होना चाहिये तो अपने विचार अवश्य लिखें। सभ्य सामज का आगाज हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है। 
धन्यवाद















Friday 18 July 2014

HAPPY RAINY DAY



गर्मी की तपिश के बाद बारिश की बूंदे जीवनदायनी होती हैं। मुरझाए हुए पेङ-पौधों में जान आ जाती है। चारो तरफ की हरियाली देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पेङ-पौधे बारिश का स्वागत कर रहे हों। नाचते हुए मोर,  कोयल की बोली तथा पक्षियों का कलरव मौसम के ताल को और भी संगीतमय कर देते हैं। किसान के लिए बारिश ईश्वरीय वरदान की तरह होती है, तो वहीं  धरती के सभी सजीव जगत के मन को सावन की बूंदे हरा-भरा कर देती है। 

बरखा रानी आई कर सोलह श्रंगार।
मेघों की काली साङी और बिजली की पायल पहने लगती अति सुंदर।
रह-रह कर वह बरसाती ऐसी रसधार कि मगन हो नाच उठे सारा संसार।

भारतीय सिनेमा ने भी  बरसात को और भी मनोहारी बना दिया है। बारिश की बूंदो से तरबतर लोग स्वतः ही बरसात के गानो को गुनगुनाने लगते हैं। बच्चों के लिए तो मानो मौज-मस्ती की बरसात हो जाती है, अधिक बारिश से स्कूल की छुट्टी और फिर कागज की नाव बनाकर पानी में तैराना कितना खुशनुमा नजारा होता है, जहाँ न कोई चिन्ता न कोई फिकर बस फुल टू मस्ती।

रिमझिम बारिश के साथ अदरक की चाय और पकोङे का कॉम्बिनेशन तो हर दिल अजीज होता है। कई जगहों पर तो सिर्फ बरसात में बनने वाले झरने लोगों के लिए पिकनिक स्पॉट बन जाते हैं। हर तरफ प्रकृति अपनी रिमझिम फुहार से गमों की तपिश को भी राहत दे देती है और त्योहारों की भी खुशनुमा शुरुवात हो जाती है। सावन में  राखी, तीज, कजरी और हर-हर महादेव की गूंज वातावरण को पवित्र उल्लास से तरबतर कर देती है।

ये बारिश की बूंदे एक तरफ तो हरियाली तो दूसरी तरफ प्रेम का संदेश भी देती हैं। किसी को चुङी में तो किसी को पायल में अपने साथी की आवाज सुनाई देने लगती है। धरती पर पङने वाली बूंदो से सोंदी-सोंदी मिट्टी की खुशबु वातावरण को अपने आने का एहसास करा देती है। कहते हैं कुदरत के कणं-कंण में संगीत बसता है, ये बातें बरसात में शत् प्रतिशत सच हो जाती हैं जब बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ पानी की बूंदे नृत्य करती हुई झरनों के माध्यम से प्रकृति को और भी मनोहर बना देती हैं। कवियों की कलम तो बारिश की बूंदो से ऐसी सम्मोहित हो जाती हैं कि कवि की कल्पना को कविताओं में अभिव्यक्त करने को आतुर हो जाती हैं। किसी ने सच कहा है कि,  "Rain is not only drops of water, It is the Love of Sky for Earth."

Enjoy the Love of Nature
Happy Rainy Day 





Saturday 12 July 2014

जातिय, धार्मिक और भाषाई बंधनो से मुक्त भारत हो



पुरातन काल से भारत वर्ष सदा ही ज्ञान का आधार रहा है। भारत की धरती पर अनेक जाति, धर्म और सम्प्रदाय तथा भाषा के लोग इस प्रकार रहते हैं जैसे कि, एक वाटिका में अनेकों सुगंधित पुष्प। भारत की धरती हमेशा 'अतिथी देवो भवः' को आत्मसात करते हुए अनेक नामों से पहचानी जाती है। कोई इसे हिन्दोस्तान कहता है तो कोई इण्डिया जिसमें हिंदुज़म, जैनिज़म,  बौधिज़म, सिखीज़म, इस्लाम तथा ईसाइ धर्म समाया हुआ है। ऐसे अद्भुत भारत देश को 11 सितंबर 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद जी ने गौरवान्वित किया। भारत की श्रेष्ठ धार्मिक छवी से प्रभावित होकर 'न्यूयार्क हेरल ट्रिबूट्स' ने लिखा था कि, भारत जैसे देश में धार्मिक मिशनरियों को भेजना कितनी बङी मूर्खता थी।


आज उसी धरती पर धर्म, जाति और भाषा, विवाद का विषय बनता जा रहा हैं। कहने को तो हम विकासशील देश से आगे कदम बढाते हुए विकसित राष्ट्र की ओर अग्रसर हो रहे हैं। नई-नई तकनिकों का आविष्कार कर रहें हैं। फिर भी धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले महानुभावों के असंवेधानिक वचनो के जाल में उलझ जाते हैं। जबकि हम सब ही नही वरन् विज्ञान भी इस बात को मानता है कि, कोई शक्ति है जो पूरे ब्रह्माण्ड को  चला रही है। उस सर्वशक्ति को हम सभी ने अपने-अपने अुनसार एक रूप और नाम दे दिया है। ये रूप हमारी आस्था के प्रतीक हैं। किसी ने सच कहा है कि मानो तो ईश्वर न मानो तो पत्थर। हमारी आस्था के प्रतीक राम, रहीम, शिव, ईसामसीह हों या पैगंबर साहेब, गुरू नानक या साई बाबा हों या कृष्ण  ये सभी उस शक्ति का मूर्त रूप हैं जहाँ मनु्ष्य अपनी परेशानियों से निजात पाने के लिए अरदास ( प्रार्थना ) करता है। जिस दर पर सुकून और खुशियाँ मिल जाती हैं वही उस व्यक्ति के लिए पूजित हो जाता है।


कबीर दास जी कहते थे कि, 
"हिन्दु कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमान।
आपस में दौऊ लङै मरतु हैं, मरम कोई नही जाना।।"

अर्थातः- हिन्दु कहते हैं कि हमारे राम सब कुछ हैं और मुसलमान कहते हैं कि रहीम ही सबकुछ हैं। इस तरह से ये आपस में लङते मरते रहते हैं। जबकि  सच तो यही है कि राम और रहीम एक ही हैं।


प्रकृति भी हमें धार्मिक, भाषाई और जातिय सिमाओं में नही बाँधती। सूरज सबको एक समान धूप देता है, हवा हिन्दु, मुस्लिम, सिख्ख या ईसाइ नही देखती। पेङ सभी के लिए फल देता है। परन्तु सबसे बुद्धिमान कहा जाने वाला प्राणी मनुष्य ही शान्ति के चमन को भेद-भाव की दुषित मानसिकता से नष्ट कर रहा है।  सोचिए ! यदि किसान जातिय और धार्मिक बंधनो में बंध जाये तो जिवन उपयोगी मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ती क्या संभव हो पायेगी ?

जब कोई व्यक्ति जिंदगी और मौत से जूझ रहा होता है तब उसे एवं उसके परिजन को डॉक्टर ही भगवान नजर आता है  तब वो ये नहीं देखते कि डॉक्टर किस जाति या धर्म को मानने वाला है। डॉक्टर भी इन बंधनो से मुक्त मरीज के इलाज को ही प्रथमिकता देते हैं। कल्पना किजीए यदि डॉक्टर भी भेद-भाव करने लगे तो क्या होगा ?  वहीं दूसरी तरफ परेशानी की इस घङी में परिजन अपने अस्वस्थ प्रियजन की सलामती के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। अपने मित्रों के परामर्श पर अन्य विपरीत धर्म के प्रतीकों से मन्नत माँगने में भी परहेज नहीं करते क्योंकि यहाँ प्रियजन की सलामती प्रमुख होती है और प्रियजन के ठीक हो जाने पर आस्था की एक नई ज्योति प्रज्वलित होती है, जो धार्मिक एवं जातिय बंधनो से मुक्त होती है। 


हमारे संविधान में भी प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने अनुसार धर्म, जाति एवं भाषा मानने को स्वतंत्र है। फिर क्यों कभी मौलवियों का फरमान तो कभी मठाधीशों के कट्टर अस्वभाविक बयानों से देश की शान्ति को भंग करने का प्रयास किया जाता हैं। जबकि हमारी पवित्र पुस्तकें कुरान, गीता, रामायण या बाइबल में इंसानियत की सीख दी गई है।  फिर भी इस अमुल्य सीख से बेखबर हमारे धर्माधिकारी विवादस्पद बयान दे देते हैं जिसका सबसे ज्यादा नुकसान उस निरिह जनता का होता है जिसके घर में दिन की आमदनी से रात का चुल्हा जलता है।  इस बात पर विचार करना चाहिए कि, क्या धार्मिक और जातिय प्रतिबंधो से विकास की इबारत लिख सकते हैं?   ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, स्वयं का या देश-दुनिया का विकास सभी के सहयोग से ही संभव है।


स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि,  "सभी धर्मों का गंतव्य स्थान एक है। जिस प्रकार विभिन्न मार्गो से बहती हुई नदियां समुंद्र में जाकर गिरती हैं, उसी प्रकार सब मत मतान्तर परमात्मा की ओर ले जाते हैं। मानव धर्म एक है, मानव जाति एक है।" 

मित्रों, हम सब मिलकर विकास के इस दौर में जातिय, भाषाई और धार्मिक बंधनो से मुक्त भारत का पुनरुथान करें। जहाँ की धरती पर युगों-युगों से सभी धर्मों तथा जातियों और अत्याचार पिङित मनुष्यों को आश्रय  मिलता रहा है, ऐसी पवित्र भुमि भारत देश में भारतीयता हमारी जाति हो और इंसानियत ही हमारा धर्म हो। 

जय भारत