Thursday, 28 August 2014

प्रथम पूज्य श्री गंणेश


"गणानां जीवजतानां यः ईशः , स्वामी स गणेशः" 

गणेंश समस्त जीव जगत के स्वामी हैं।सृष्टी की रचना के समय ब्रह्मा जी की,  सभी विघ्न बाधाओं को दूर करने वाले, देवाधीदेव गणेंश जी की पूजा किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में की जाती है। गणपति देवगणों के नायक होने के कारण गणनायक तथा गणाध्यक्ष कहलाते हैं। श्री गणेंश की पूजा करने से समस्त देवगणों की पूजा स्वतः ही हो जाती है। विघ्नहर्ता गणेंश मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करते हैं। बुद्धी के देवता गणपति रिद्धी सिद्धी के स्वामी हैं तथा शुभ लाभ, विघ्नविनाशक गजानन के पुत्र है। संतोषी मां  गणेंश जी की पुत्री है।  

प्रथम पूज्य पार्वती नंदन श्रीगणेंश  का सभी अंग सकारात्मक संदेश का प्रतीक है। गजानन का पेट उदारता और पूर्ण स्वीकृति का प्रतीक है। उनका अभय मुद्रा में उठा हाँथ संरक्षण का प्रतीक है जो हमें स्पष्ट संदेश देता है कि 'घबराओ नही' मैं तुम्हारे साथ हुँ और विनायक का दूसरा हाँथ नीचे की ओर एवं हथेली बाहर की ओर इस बात का संकेत देती है कि, विघ्नविनाशक गणेंशा हमें हर पल कुछ दे रहे हैं। एकदन्त श्री गणेंश जी का एक ही दाँत का होना हमें एकाग्रचित्त रहने की शिक्षा देता है। संकटनाशक लंबोदर अपने हाँथो में अंकुश और पाश लिये हुए हैं, जो की सजगता तथा नियंत्रण का प्रतीक है। विघ्नविनायक भालचंद्र की सवारी मुषक है। मूषक उस मंत्र के समान है, जो अज्ञान की एक-एक परत को धीरे-धीरे काटकर दूर करता है एवं उस परम ज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व बुद्धी के देवता श्री गंणेश करते हैं। श्री गंणेश के सभी प्रतिकात्मक अंगों से प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन को शुभमार्ग की ओर अग्रसर कर सकते हैं। संकटो को हरने वाले श्री गजानन का नाम अंग्रेजी वर्णमाला में भी अनेक आर्शिवादों का एक संदेश है, जो हममें नित्य नई ऊर्जा का संचार करता है। 

G- Get well Always
A- Active Throughout the Year
N- No Bad Evil can touch You
E- End of Troubles & All your Sorrow
S- Success at Every Point of Life
H- Happiness to You & Your Love once.


मित्रों, श्री गंणेश चतुर्थी की शुभकामनाओं के साथ ये कामना करते हैं कि, बुद्धी के देवता, कष्टनिवारक श्री गणेंश की कृपा हम सबपर सदा बनी रहे, सब कार्य में सफलता मिले एवं मानवीय भावनाओं का ह्रदय में संचार हो।प्रथम पूज्य श्री गंणेश जी के आर्शिवादों की कामना के साथ, सब मिलकर कहें गणपति बप्पा मोर्या, मंगलमूर्ती मोर्या 

(एक निवेदन, विघ्नविनाशक श्री गंणेश जी बारे में और अधिक पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें, धन्यवाद।)

http://roshansavera.blogspot.in/2012/09/blog-post_5322.html




Monday, 25 August 2014

कमजोरी को ताकत बनायें



स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि,  "विश्व में अधिकांश लोग इसलिए असफल हो जाते हैं, कि उनमें समय पर साहस का संचार नहीं हो पाता है और वे भयभीत हो उठते हैं परंतु जो लोग हर बाधाओं को साहस के साथ पार करते हैं वो इतिहास रचते हैं।" 

आज हम ऐसे ही एक आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्ति का परिचय देने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्होने अपनी कमियों को नजर अंदाज करते हुए सफलता की इबारत लिखी। मित्रों, दृष्टीसक्षम लोग आँख पर पट्टी बाँधकर चार कदम भी सीधे नही चल सकते। बिजली गुल हो जाने पर तुरंत रौशनी का इंतजाम करते हैं, हम अंधेरे से घबङाते हैं। परन्तु इस दुनिया में कई ऐसे लोग भी हैं जिनकी पूरी जिंदगी अँधेरों के साये में ही बीत जाती है। ऐसे लोग अपनी इस कमजोरी को ताकत बना लेते हैं और सकारात्मक सोच के साथ कामयाब जीवन यापन करने हेतु प्रयास करने लगते। 

ऐसे प्रेरणास्रोत लोगों में से एक हैं, इंदौर के आधारसिंह चौहान। आपका मानना है कि, जिंदगी में यदि कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो हर मुश्किल आसान हो जाती है। आधारसिंह चौहान एक दृष्टीबाधित व्यक्ति है परंतु उन्होने कभी भी इसे अपनी कमजोरी या लाचारी नही समझी हर बाधाओं को अपने दृणनिष्चय और सकारात्मक सोच से पार करते रहे। जिसका सुखद परिणाम उन्हे प्राप्त हुआ। खेलों में रुची रखने वाले आधार सिहं को  गोलाफेंक, तैराकी, लम्बी कूद और दौङ में विशेष रुची है। आपने कई राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेकर एक र्स्वण सहीत तीन रजत पदक और कांस्य पदक जीत कर उन लोगों के लिए एक मिसाल कायम की है जो, जरा सी अक्षमता से घबराकर जिंदगी से हार मान लेते हैं। 

आधार सिंह का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था, वे जन्म से सामान्य बच्चों जैसे ही थे किन्तु 6 वर्ष की उम्र में उनके साथ एक दुर्घटना घटित हुई, एक बैल की सींग मारने से उनकी दांयी आँख से दिखना बंद हो गया।  कहते हैं कि जब मुसिबत आती है तो अपने साथ कई और परेशानियों को भी साथ ले आती है।  बालक आधार के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ उनकी दूसरी आंख ने भी काम करना बंद कर दिया। अल्प अवस्था में इतना बडा आघात जिससे कोई भी अवसाद में जा सकता है, परंतु आधार ने हिम्मत दिखाई जिसमें उनके परिवार का भी पुरा सहयोग उन्हे प्राप्त हुआ।  
दोनो ऑखों से दृष्टिबाधित होने के बावजूद आधार हार नही माने और अपने गॉव बिनरखेडा जिला खंडवा से इंदौर अध्ययन के लिए आ गये। इंदौर में मधय प्रदेश दृष्टिहीन विदयालय में ब्रेल लीपी का अध्ययन किये एवं यहीं रहते हुए ८वीं की परिक्षा उत्तीर्ण किये तद्पश्चात सुभाष हायर सेकेन्डरी स्कूल से ११वीं की परिक्षा पास किये  इस संस्था में आपने कुर्सी बुनाई, पॉव पोछ हैंगर बनाना तथा टेलीफोन ऑपरेटिंग सीखी महत्वाकांक्षी आधार, संगीत के  क्षेत्र में आगे बढना चाहते थे, परन्तु उन्हे इस क्षेत्र में कुछ खास कामयाबी नही मिली। अतः उन्होने आगे बढने के लिए शिक्षा का मार्ग चुना और गुजराती कला विधि महामहाविदयालय से नियमित छात्र के रूप में बी. ए . की डिग्री हासिल किये और शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय से इतिहास में एम. ए. किये। आगे बढने की चाह के कारण अहिल्या विश्वविद्यालय से एम. फिल. की डिग्री हासिल करने में कामयाब रहे।    

अपनी योगयता के आधार पर आठ वषों तक मध्य प्रदेश के दृष्टीहीन एथलीटों में सर्व श्रेष्ठ खिलाङी रहे।  आधारसिंह की उप्लब्धियों को ध्यान में रखते हुए समाज कलयाण विभाग ने 1985 में आपको सम्मानित किया और तत्कालीन पटवा सरकार ने आपको विक्रम पुरस्कार से नवाजा। मध्य प्रदेश सरकार ने आधारसिंह की काबलियत को समझा और उन्हे 1990 में शासकीय विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया।  स्वयं दृष्टीबाधित होने के बावजूद वर्तमान में आधारसिहं चौहान विजयनगर स्थित शासकिय विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं।  नगर निगम, रोटरी क्लब तथा लॉयंस क्लब द्वारा सम्मानित आधारसिहं चौहान विभिन्न सामाजिक संघटनो से जुडे हुए हैं, वे राष्ट्रीय दृष्टीहीन संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। 

सेवाभावी एवं मिलनसार आधारसिंह चौहान आज आत्म निर्भर रहते हुए अनेक दृष्टीबाधितों को रोजगार दिलवाने में भी मदद करते हैं। अपनी कमजोरी पर विजय प्राप्त करने वाले आधार, जहाँ चाह है वहाँ राह है जैसी कहावतों को जिवन्त कर रहे हैं।  

किसी ने सच ही कहा है कि, सफलता अक्सर उन लोगों के पास आती है जो जोखिम लेते हैं अर्थात रिस्क लेते हैं, ये शायद ही कभी उन लोगों के पास जाती है, जो हमेशा परिणामों से डरते हैं। 

आज भी अपनी आगे बढने की चाह लिये दृणनिश्चयी आधार सिंह चौहान सकारात्मक सोच के साथ नित्य कुछ नया करने का प्रयास करते रहते हैं।
उनकी जैसी सोच लिए और भी कई दृष्टीबाधित लोग अपने-अपने प्रयासों से आत्मनिर्भर बनने में कामयाब हो रहे हैं। विपरीत परिस्थिती के बावजूद जो लोग दृणनिष्चय के साथ सफलता की इबारत लिख रहे हैं उनके लिये मेरा कहना है कि,  

आँधियों को जिद्द है जहाँ बिजली गिराने की, मुझे भी जिद्द है वहीं आँशियां बनाने की, हिम्मत और हौसले बुलंद हैं, खडा हूँ अभी गिरा नही हूँ, अभी जंग बाकी है, मैं हारा नही हुँ । 

एक अनुरोधः-  मित्रों,  किसी की कमजोरी पर तरस न खायें बल्की मानवता के नाते उन्हे अपना सहयोग दें।

धन्यवाद 

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Tuesday, 19 August 2014

कर्मवादी बने न की भाग्यवादी।


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना।
मा कर्मफलहेतुभूर्मा ते संगोsस्त्वकमर्णि।।

विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता में कर्म को सर्वोपरि माना गया है। गीता में कहा गया है कि कर्म करना मनुष्य का अधिकारिक कर्तव्य है। कर्म अर्थात सभी सजीव जगत द्वारा किया गया कार्य एवं जिसको करते वक्त किसी भी फल यानि की परिणाम की कामना नही करना चाहिए। परिस्थिती कैसी भी हो परिणाम कुछ भी हो, निष्काम भाव से अपने-अपने कर्तव्यों का यथाशक्ति पालन करना चाहिए। विधि का विधान भी यही कहता है कि, प्रत्येक प्राणीं को जिवन यापन हेतु कार्य करना अनिवार्य है।

परन्तु कई बार ये देखा जाता है कि हमारे समाज में पुरुषार्थवादी आदर्शों के स्थान पर भाग्यवादी विचारधारा की लहर इस प्रकार व्याप्त हो रही है कि, मनुष्य अपने कर्मों के प्रति उदासीन होकर भाग्य पर अधिक भरोसा करने लगा है। यत्र-तत्र लोग ये कहते हुए मिल जाते हैं कि, भाग्य में ही तकलीफ है तो मेहनत करने से क्या फायदा, जो कुछ होना है होकर रहेगा या सब विधि का विधान है.............इत्यादि। जो लोग ये कहते हैं कि किस्मत पहले लिखी जा चुकी है तो कोशिश करने से क्या फायदा, ऐसे लोगों को चाणक्य कहते हैंः- 

"तुम्हे क्या पता ! किस्मत में ही लिखा हो कि कोशिश करने से ही सफलता मिलेगी। पुरषार्थ से ही दरिद्रता का नाश होता है।"


हमारे समाज में कुछ भाग्यवादी विचारधारा के लोग अक्सर ये कहते हुए मिल जायेंगे कि, जितना भाग्य में लिखा है मिल ही जायेगा। ऐसे लोगों का मानना है, 
अजगर करे ना चाकरी, पंक्षी करे ना काम। दास मलुका कह गये सबके दाता राम।। जबकि  गीता में श्री कृष्ण ने सीधे एवं सरल तरीके से उपदेश दिया है कि, मनुष्य को किसी भी परिस्थिती में कुछ न कुछ तो कर्म करना ही होगा क्योंकि अर्कमण्यता में जीवन संभव नही है। जीवन, समाज और देश की रक्षा तथा उन्नति के लिए कर्म करना उसी तरह आवश्यक है, जैसे जिवन के लिए हवा और पानी।

मित्रों, मन में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, जब सब कुछ भाग्य अनुसार है तो जरा सी तकलीफ में हम लोग डॉक्टर के पास क्यों जाते हैं? जब रोगी को कष्ट निष्चित है और मृत्यु भी निष्चित है, तो उपचार में पैसा समय और श्रम लगाने की क्या आवश्यकता है?? फिर भी हम डॉक्टर के पास जाते हैं, वास्तव में हम तकलीफ को बर्दाश्त नही कर सकते इसीलिए जब पुरुषार्थ की बात आती है तो  भाग्य की दुहाई देकर मेहनत करने से भी कतराते हैं। सच्चाई तो ये है कि भाग्य का दूसरा नाम ही करम है। रामायण में कहा गया है कि, कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करे यो तस फल चखा।। अर्थात हमारे द्वारा किये गये कार्यों से ही हमारे भाग्य का निर्माण होता है। 

हममें से कई लोग जन्म-जन्मांतर की बातें करते हैं। जन्म पिछला हो या उसके पूर्व का, सभी जन्मों का लेखा-जोखा हमारे कर्मों पर ही निर्भर होता है। भाग्य को कोसने में समय नष्ट करने की बजाय यदि हर व्यक्ति अपने-अपने कार्यों पर ध्यान दे और ईमानदारी से मेहनत करे तो सफलता अवश्य प्राप्त होती। एक विद्यार्थी का कर्म है अध्ययन वो जितनी शिद्दत और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगा उसे सफलता अवश्य मिलेगी।  कई बार  मौसम का मिज़ाज किसान के अनुकूल नही रहता फिर भी किसान भगवान भरोसे या भाग्य भरोसे न रहते हुए अपने कर्म को पुरी निष्ठा से करता है। उसकी मेहनत से ही हम सबको जीवन हेतु अनाज प्राप्त हो पाता है। अक्सर भाग्यवाद हमें वस्तुस्थिति को समझने और उसका निराकरण करने की क्षमता से वंचित करता है। जिससे हमारा विचार कुंठित होता है और तर्क, विचार एवं कर्म में हमारी उदासीनता नजर आने लगती है, जो मानव प्रगति की सबसे बङी बाधक है। 

विनोबा भावे कहते हैं कि,  "कर्म वो आइना है, जो हमारा स्वरूप दिखा देता है। इसलिए हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए।" 

हमारी दुनिया में कई ऐसे लोग हुए हैं जिनको कहा गया था कि इसके भाग्य में तो विद्या नही है, किन्तु उन लोगों ने अपने कर्मों के द्वारा अपनी किस्मत ही बदल दी। संस्कृत व्याकरण के महान विद्वान पाणिनी बचपन में अल्प बुद्धि के थे। एक सबक भी याद नही कर पाते थे। एक बार गुरू जी ने उन्हे कुछ याद करने को दिया परंतु वे उसे याद न कर सके तो गुस्से में गुरू जी ने पाणिनी को सजा देने के उद्धेश्य से हाँथ आगे बढाने को कहा। जैसे ही गुरू जी ने हाँथ देखा तो गुस्से को खत्म करते हुए बोले इसके भाग्य में तो विद्या ही नही है, इसे क्या सजा दूं!  तब पाणिनी ने अनुरोध किया कि गुरू जी विद्या की भाग्य रेखा कौन सी है। शिष्य के अनुरोध पर गुरू जी ने हाँथ में लकीर का स्थान बता दिया। पाणिनी ने तुरंत चाकू से उस स्थान पर विद्या की रेखा बना दी और अध्ययन में पुरी लगन से जुट गये। उन्होने अष्टाध्यायाई नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहसत्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनी का अतुलनिय योगदान है। ये कहना अतिश्योक्ति नही होगी कि, अपने कर्मों के अथक प्रयास से ही पाणिनी जी ने अपना भाग्य स्वयं लिखा। 

गुरू नानक देव कहते हैं कि,  "कर्म भूमी पर फल के लिए श्रम सबको करना पङता है, रब तो सिर्फ लकीरें देता है उसमें रंग तो हम सबको भरना पङता है।"

हमें व्यर्थ की शंकाओं और आशंकाओं के मायाजाल से निकल कर उत्साह के साथ आशावादी और कर्मवादी बनना चाहिये। विवेकानंद जी भी कर्म को श्रेष्ठ बताते हैं। कहा जाता है कि, ईश्वर भी उसी की मदद करते हैं जो स्वयं कार्य करने का प्रयास करता हैं। अपने भाग्य के निर्माता हम स्वंय हैं। भाग्य तो पुरुषार्थ की छाया है, जो कर्मवादी के साथ उसके अनुचर की तरह चलता है। ईमानदारी और लगन से किये गये काम में सफलता अवश्य मिलती है। यही विश्वास और निष्ठा मनुष्य की नियति ( भाग्य ) को बदल देते हैं। अतः मित्रों, हमसब कर्मवादी बने न कि भाग्यवादी। 

ए.पी.जे. अब्दुल्ल कलाम के विचार से, 
If you salute your duty, You no need to salute Anybody,
But If you pollute your duty, You have to Salute to Everybody. 

अर्थात, यदि आप अपने कर्म को सलाम कर रहे हैं तो, कोई जरूरत नहीं पङेगी किसी को सलाम करने की किन्तु यदि आप अपने कर्म के प्रति उदासीन हैं तो आपको हर किसी को सलाम करना पङेगा।  







Tuesday, 12 August 2014

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई





                             
                 अनेकता में एकता की पहचान 
                            मेरा भारत महान 

नोटः-   पूर्व में मेरे द्वारा लिखे लेख को पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें

आजादी के 66 वर्षों बाद भी क्या हम आजाद हैं ?

http://www.achhikhabar.com/2013/08/14/15-august-independence-day-swatantrta-divas-essay-in-hindi/

Sunday, 10 August 2014

वन्दे मातरम्


भारत की आजादी से पूर्व अनेक देशभक्त अपने-अपने प्रयासों से जातिय बंधनो से मुक्त होकर भारत माता को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। उसी दौरान आजादी के संघर्ष में वन्दे मातरम् जन-जन की आवाज था।  गीता का ज्ञान, कुरान की आयते तो गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणीं को एक उदद्घोष में भारत माता के वीर सपूत गुंजायमान कर रहे थे। वन्दे मातरम् अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा। इस राष्ट्रीय उद्घोष का इतिहास एक सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। सबसे पहले इस गीत का प्रकाशन 1882 में हुआ था और इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितम्बर 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त हुआ था। 

वन्दे मातरम् गीत की रचना प्रख्यात उपन्यासकार बंम्किमचंद चटोपाध्या ने की थी। उन्होने 19वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल के मुस्लिम शासकों के क्रूरता पूर्वक व्यवहार के विरोध में आन्नद मठ नामक एक उपन्यास लिखा। जिसमें पहली बार वंदे मातरम् गीत छपा जो पूरे एक पृष्ठ का था। इस गीत में मातृभूमि की प्रशंसा की गई थी। ये गीत संस्कृत और बंगला भाषा में प्रकाशित हुआ था। 

वन्दे मातरम् का उद्घोष सबसे अधिक 1905 में हुआ जब तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड कर्जन ने "बाँटो और राज करो" की नीति का अनुसरण करते हुए बंगाल को दो टुकङों में विभाजित करने की घोषङा की और इस विभाजन को बंग-भंग का नाम दिया। लार्ड कर्जन की इस नीति का जबरदस्त विरोध हुआ। उस समय विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी आन्दोलन के साथ-साथ वन्दे मातरम् को व्यापक रूप से जन-साघारण ने अपनाया। इसके बाद अंग्रेजों के विरुद्ध जो भी आन्दोलन हुआ उसमें वंदे मातरम् जन-जन की वाणी बना। बंगाल से शुरु हुआ ये उद्घोष पूरे देश में फैल गया।


अखिल भारतिय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी वंदे मातरम् उद्घोष को अपनाया। समय के साथ-साथ और परिस्थितियों के अनुसार वंदेमातरम् गीत में अनेकों बार संशोधन किय गये। अंत में इसके विस्तार को हठाकर चार पंक्तियों तक सिमित कर दिया गया। कांग्रेस के अधिवेशनों का प्रारंभ इसी गान के गायन से प्रारंभ होता था और समाप्त होता था। अतः ये गीत राष्ट्रीयता के रंग में रंग गया। 


सन् 1896 में  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता के अधिवेशन में रविन्द्रनाथ टैगोर ने वन्दे मातरम् गीत गाया था। 1905 में बनारस के अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी चौधरानी ने स्वर दिया। अधिवेशन में सभी धर्म के लोग होते थे, वे सभी इस गीत के प्रति खङे होकर अपना सम्मान व्यक्त करते थे। अंततः ये हमारा राष्ट्रीय गीत बना। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तब 14 से 15 अगस्त की मध्य  रात्रि में सत्ता के हस्तांतरण के लिए तत्कालीन केन्द्रिय असेम्बली का गठन किया गया जिसका प्रारंभ वंदे मातरम् के गायन से हुआ। ये गीत सुमधुर तरीके से सुचेताकृपलानी द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस विशेष अधिवेशन का सामापन भी वन्दे मातरम् गीत से हुआ। असेम्बली के कक्ष में उपस्थित सभी सदस्यों ने इस गायन में श्रद्धा पूर्वक भाग लेकर उद्घोष के प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। पूरा कक्ष वंदे मातरम् की गुंज से गुंजायमान हो गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त जब भारत का संविधान निर्मित हो रहा था, तब ये प्रश्न उठा कि वंदे मातरम् गीत को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाये या किसी अन्य गीत को। उस दौरान तत्कालीन संगीतकारों का ये मानना था कि,  वंदेमातरम् गीत को लयबध करना कुछ कठिन है। अतः इसके अतिरिक्त किसी अन्य गीत को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया जाये। अंत में  रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित 'जन  मन गण' को अपनाया गया।


वैसे तो संविधान सभा के अधिकांश सदस्य वंदे मातरम् को ही राष्ट्र गीत मानते थे क्योंकि ये गीत जनता के मानस पटल पर छाया हुआ था। परंतु जवाहरलाल नेहरु के आग्रह पर 'जन मन गण' को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया और साथ ही साथ वन्दे मातरम् को भी अनिवार्य माना गया। केवल तत्कालीन मुस्लिम लीग इस गीत का विरोध करती रही। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 को वन्दे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धि एक व्यक्तव्य पढा जिसे सभा द्वारा स्वीकार किया गया। 


इस गीत की प्रसिद्धी का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, 2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक सर्वे में शीर्ष दस गीतों में वन्दे मातरम् गीत दूसरे स्थान पर था। इस सर्वे में लगभग 150 देशों ने मतदान किया था। 

ये अजीब विडम्बना है कि पिछले कुछ समय से वन्दे मातरम् पर विवाद उत्पन्न हो रहा है। विवाद मुख्यतः ये है कि इस गायन से मुर्ती पूजा का भाव प्रकट होता है। इस कारण मूर्ती पूजा के विरोधी सम्प्रदाय इसकी उपेक्षा करने लगे हैं। जबकि स्वतंत्रता से पूर्व मौलाना अबुल कलाम आजाद और सिमान्त गाँधी यानि की खान अब्दुल्ल गफ्फार खाँ जो की पाँचो समय की नमाज पढते थे, वे भी वन्दे  मातरम् के प्रति खङे होकर सम्मान व्यक्त करते थे। परंतु आज कुछ अलग तरह की राजनितिक वातावरण के कारण मातृ भूमी को नमन करता वन्दे मातरम् गीत उपेक्षित हो रहा है। जबकि सैकङों देशभक्त इस उद्घोष को बोलते-बोलते फांसी के फंदे पर झूलकर शहीद हो गये। 

मित्रों, सवतंत्रता दिवस की 68वीं वर्षगाँठ पर हम सब ये संक्लप लें कि शहिदों की शहादत को याद करते हुए वन्दे मातरम् को सम्पूर्ण भारत में गुंजायमान करेंगे। 


वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम्,
शस्यश्यामलाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 

शुभ्रज्योत्सना पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 

अर्थात, हे भारत माँ मैं आपकी वंदना करता हुँ। स्वच्छ और निर्मल पानी, अच्छे फलों,  सुगन्धित सुष्क समीर (हवा) तथा हरे भरे खेतों वाली माँ, मैं आपकी वंदना करता हूँ। सुन्दर प्रकाशित रात,  सुगंधित खिले हुए फूलों एवं घने वृक्षों की छाया प्रदान करते हुए, सुमधुर वाणी के साथ वरदान देने वाली भारत माता मैं अपकी वंदना करता हूँ। मैं आपकी वंदना करता हूँ।  

जय भारत












Saturday, 9 August 2014

रक्षाबंधन की हार्दिक बधाई

बंधन स्नेह और विश्वास का

पवित्र रिश्ते को केवल धागे से न जोङो, हर दिन रक्षा बंधन समझो।
मूक दर्शक न बन मानव,  सब बेटी और बहनों की रक्षा का मन में प्रण हो। 
मानवता की रक्षा का संक्लप लिए रक्षाबंधन का ये पर्व समस्त सजीव जगत के लिए शुभ और सुरक्षित हो। 


                                     रक्षाबंधन की बहुत बहुत बधाई 

नोटः- रक्षाबंधन पर मेरे द्वारा लिखे लेख को पढने के लिए लिकं पर क्लिक करें।