यह कैसी आधुनिकता
हमें वो वक्त याद आता है जब
संयुक्त परिवार हुआ करते थे, हर कोई एक दूसरे के सुख-दुख का साथी था। आज जाने
अनजाने में या मजबूरी में खुशियों के
वो पल हम सबसे दूर हो गये हैं। आज
पैसा सर्वोपरि हो गया, रिश्ते
गौंण हो चुके है, मोह-माया का अर्थ ही बदल
गया, आज के परिवेश में माया-मोह कहना शायद ज्यादा उचित होगा। हम सब पता नही किस
चीज के पीछे भाग रहे हैं, हमारी आवश्यकताएँ इतनी ज्यादा हो चुकी हैं कि हम ये भूल
गये कि कब हम साथ बैठ कर एक दूसरे के सुख-दुख को सुनें।
परिवार के जीवन यापन हेतु
पैसा भी जरूरी है, किन्तु इसकी सीमा कौन तय करेगा। आज माया-मोह के वायरस से हम सब
ग्रसित होते जा रहे हैं। प्रश्न ये उठता है कि, क्या पैसा कमाने या भौतिक साधन एकत्र
करने में ही आत्मीय सुख है? आज आधुनिकता के सभी साधन बच्चों को मिल रहे हैं। बच्चे कार्टून चैनल तथा विडीयो गेम के साथ बङे हो रहें हैं।
दादा-दादी तथा नाना-नानी की कहानियों से वंचित हो रहे हैं। आज लुका-छिपी,
सेवन-स्टोन या आइस-वाटर जैसे खेल इतिहास बनते जा रहे हैं, जबकि ये खेल हमें मिलजुल
कर रहना, संघठन में शक्ती है,
इसकी शिक्षा देते हैं। ये कैसी आधुनिकता जिसने वृद्धाश्रमों की तादाद बढा दी है।
आज त्यौहार पहले से ज्यादा धूम-धाम से मनाते हैं, शादियों में दिल खोल
कर खर्च करते हैं। पर वो अपनापन कहीं खो गया है, सब एक छलावा सा नजर आता है। आत्मीयता
कहीं खो गई है।
काश आधुनिकता के युग में
कुछ ऐसा हो जाए हर जगह भाई-चारा, अमन एवं शान्ति कायम हो जाए। दादा-दादी की
कहानियाँ हर बच्चे को नसीब हो जाए। कबीर दास की सीख याद आती है,
“साईं इतना दीजिये, जामें कुटुम्ब समायें।
मै भी भूखा न रहूँ, साधू भी
भूखा न जाए।।
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