Tuesday, 26 February 2013

रौशनी का कारवाँ


मित्रों, ये कविता अंधेरों से डरती सहमती हुई अपने हौसले के दम पर उम्मीद के आंचल को ओढे हुए, एक अद्भुत विश्वास के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करने की कहानी को रौशन कर रही है। ये कविता एम.ए. की छात्रा रजनी शर्मा द्वारा लिखी गई है। रजनी दृष्टीबाधित छात्रा होने के बावजूद अपने अथक परिश्रम से कई बार सामान्य बच्चों के साथ पढते हुए अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर चुकी है। विज्ञान के विकास से आजकल वो कंप्युटर का भी बखुबी उपयोग करने में सक्षम है। अपनी संस्था में कई दृष्टीबाधित बच्चियों को कंप्युटर सिखाने का भी प्रयास कर रही है। शासन द्वारा आयोजित अनेक सांस्कृतिक गतिविधियों में प्रथम स्थान लाकर संस्था को गौरवान्वित कर चुकी है। रजनी जैसी और भी छात्राएं हैं जिन्हे पढाने का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ है, ये छात्राएं उन लोगों के लिये प्रेरणा स्रोत हैं जो छोटी-छोटी परेशानियों से घबरा जाते हैं और अपने लक्ष्य को छोङ देते हैं।

                   रौशनी का कारवाँ
मेरे जीवन में अंधेरों का धुआँ सा है,
इन अंधेरों में ये मन गम हुआ सा है,
आशा मिलने की भी कोई उम्मीद नही है लेकिन,
इन अंधेरों में एक साया छुपा हुआ सा है।
                            चलते-चलते लगी अगर कोई ठोकर
                            चलना है फिर भी हमें रो-रोकर
                            जीवन की हर चाह को हमने खोकर
                            आशाओं का दीप भी बुझा हुआ सा है।
प्रकृति में कितनी सुंदरता है,
ईश्वर में कितनी निर्ममता है,
अंधेरों में ये मन सहमता है,
जीवन हर क्षंण अंधेरों पर रुका हुआ सा है।
                        अंधेरा है बहुत मगर इतना घना नहीं,
                        अंधेरों में ये मन अभी रमा नही है,
                        जीवन है निरंतर ये अभी थमा नही है,
                       पूरा होगा एक दिन हर सपना अधुरा,
                       इस विश्वास का दामन अभी पकङा हुआ सा है।
कामयाबी की एक लम्बी राह है,
सितारों पर मेरी निगाह है,
मन में नदियों सा प्रवाह है,
सितारों की मंजिल अभी दूर है लेकिन,
चाँद का रास्ता आगे झुका हुआ सा है।
                               भले ही मंजिल हो अभी दूर,
                               वो भी मिलेगी एक दिन जरूर,
                              आखिर कहेंगे यही हम हुजूर,
                              अंधेरे बहुत है जीवन में लेकिन,
                         रौशनी का कारवाँ साथ चलता हुआ सा है।

                                                   ऱजनी शर्मा  

दोस्तों, एक निवेदन है- आपका साथ एवं नेत्रदान का संकल्प कई दृष्टीबाधित बच्चों के जीवन को रौशन कर सकता है। रजनी का हौसला बढाने के लिये इस कविता पर अपने विचार जरूर लिखें।
धन्यवाद



Sunday, 24 February 2013

संत रविदास ज्यन्ती



कर्मप्रधान एवं व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानने वाले संत रैदास मूर्तीपूजा, तीर्थयात्रा में विश्वास नही करते थे। कबीर के समकालीन संत कवि रविदास का जन्म 1398 ई. में माघ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट एक गाँव में हुआ था। रविवार के दिन जन्म होने के कारण आपका नाम रविदास रखा गया। आपके गुरु स्वामी रामानन्द थे।

रैदास की वाणी में भक्ति की सच्ची भावना और  समाज के हित की कामना सदैव परिलाक्षित होती थी। मानवीय प्रेम से ओत-प्रोत आपकी बातों से श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। आपके भजनों तथा उपदेशों से लोगों की शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: आपके अनुयायी बन जाते थे। कहा जाता है कि संत रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था।
संत रैदास जी की काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग दिखता है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। आपके पदों में उपमा और रूपक अलंकारों का बहुत ही सुन्दर समन्यवय दिखाई देता है। सीधे-सादे पदों में संत कवि रैदास जी ने हृदय के भाव बड़ी स़फाई से प्रकट किए हैं। संत रैदास जी के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित हैं।

काशी में गंगा तट पर एक झोपड़ी में संत रैदास अपनी पत्नी के साथ रहते थे और जीविकोपार्जन के लिये जूते बनाते थे। जूते बनाने से जो भी आमदनी होती थी, उसी से रैदास खुशी-खुशी जीवन निर्वाह करते थे। फुरसत के समय में भगवद् भजन करते और सुख की नींद सो जाते। अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।

एक बार एक त्यौहार के दिन रैदास अपनी दुकान पर कठौती में जूता बनाने के लिये चमङा भीगो रहे थे कि उनका एक शिष्य जो गंगा नहाने जा रहा था, उसने रैदास से भी चलने का आग्रह किया। उन्होने शिष्य को समझाया कि मुझे अभी एक ग्राहक का जूता बनाकर देना है। यदि मैं काम छोङकर गंगा स्नान को जाता हुँ तो मन जूते में लगे रहने के कारण मुझे पुण्य नही मिलेगा। अतः जिस काम में मन ना लगे उसे नही करना चाहिये। यदि मन स्वच्छ है तो इस कठौती में ही गंगा स्नान का पुण्य मिल सकता है।
तभी से ये कहावत प्रसिद्ध हुई कि- मन चंगा तो कठौती में गंगा।

आपकी समयानुपालन की प्रवृत्ति तथा मधुर व्यवहार के कारण आपसे सभी लोग बहुत प्रसन्न रहते थे। शुरु से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे।

ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक निर्धन स्त्री उनके पास आकर रोने लगी। उसने कहा कि विवाह में जाने के लिये मैं कङा माँग कर लाई थी, किन्तु गंगा स्नान के दौरान एक कङा वहीं गिर गया। संत रैदास जी बोले कि, तो कङा गंगा में ही जाकर ढूंढो वहीं मिलेगा। वह स्त्री करुण स्वर में बोली कि वहाँ कैसे ढूंढ सकते हैं?? और ना ही मेरे पास इतने पैसे हैं कि नया कङा बनवा कर वापस कर सकूं। वो संत रैदास से सहायता का आग्रह करने लगी। अन्त में स्त्री की व्याकुलता देखकर रैदास जी माँ गंगा का ध्यानकर जैसे ही कठौती में हाँथ डाले कङा उनके हाँथ में आ गया और स्त्री की समस्या का समाधान हो गया। समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए आप सदैव तत्पर रहते थे।

ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम कबीर दास जी ने ही रैदास को संत रैदास कहा था। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। आज भी सन्त रैदास के उपदेश अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान और भक्ती के अनुठे संगम के साथ आपने कर्म की प्रधानता को भी सजीवता से समझाया है। हिन्दी साहित्य में संत कवि रैदास जी का स्थान महत्वर्पूण हैं और साहित्य जगत के आसमान में आप सदैव विद्यमान हैं।



Sunday, 17 February 2013

ताराघर (Planetarium)



प्लेनेटेरियम की कल्पना सबसे पहले आर्कमीडीज ने की थी। लगभग उन्नीसवीं शताब्दी तक कई देशों में स्टैटिक प्लेनेटेरियम बनने शुरु हो गये थे। तारामंडल यानि प्लेनेटेरियम(Planetarium), विशाल गुंबदनुमा ऐसा भवन है जहाँ कृतिम रूप से ग्रह नक्षत्रों को दिखाया जाता है। इसकी गुंबदनुमा छत अर्धगोलाकार होती है, जिसे ध्वनीनिरोधक कर दिया जाता है। यही ग्रहनक्षत्रों के प्रकाशबिंबों के लिये पर्दे का काम करती है। इसके मध्य में बिजली से चलनेवाला एक प्रक्षेपक (Projector) पहिएदार गाड़ी पर स्थित रहता है। इसके चारों ओर दर्शकों के बैठने का प्रबंध रहता है। भारत में लगभग 30 ताराघर हैं। कोलकता स्थित एम पी बिड़ला ताराघर, एशिया का सबसे बङा एवं विश्व में दूसरे नम्बर का ताराघर है। मुंबई, नई दिल्ली, बंगलौर तथा इलाहाबाद में स्थित ताराघर जवाहरलाल नेहरु के नाम से जाना जाता है। चार ताराघर बिड़ला घराने द्वारा स्थापित किये गये, जो कोलकता, चैन्नई, हैदराबाद व जयपुर में स्थित हैं। सितंबर १९६२ में प्रारंभ कोलकाता स्थित एम पी बिड़ला ताराघर देश का पहला ताराघर है।
एक स्टडी के अनुसार अमेरिका में प्रत्येक एक लाख आबादी के पीछे एक प्लेनेटेरियम है। यहाँ न्यूयार्क में स्थित हेडेन प्लेनेटेरियम 21 मीटर लम्बा है। इसमें लगभग 430 लोग एक साथ बैठकर शो देख सकते हैं।
जवाहर लाल नेहरू का साइंस और बच्चों में रुझान था। इसी को देखते हुए इंदिरा गांधी ने उन्हीं के नाम पर बच्चों के लिये विज्ञान के क्षेत्र में एक सराहनीय प्रयास किया। इस तरह नेहरू तारामंडल अस्तित्व में आया। दिल्ली तारामंडल जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल फंड के पैसे से बनाया गया था पर आज इसे नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी चलाती है। तारामंडल को बनाने की शुरुआत सन् १९८२ में हुई थी और सन् १९८४ में इसका पहला प्रोग्राम शुरू कर दिया गया था। इसका उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया था। पहले शो का नाम था अवर कॉस्मिक हेरिटेज। इस शो में ब्रह्मांड के बनने के बारे में अब तक मान्य सिद्धान्त बिग बैंग के जरिए ग्रहों, उपग्रहों और आकाशगंगा के अस्तित्व में आने की कहानी बताई गई थी। तारामंडल के पहले डायरेक्टर कर्नल सिंह थे।
दिल्ली स्थित तारामंडल का मुख्य आकर्षण सोयूज टी-10 प्रोग्राम है। इसमें आंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा की चन्द्रमा यात्रा के दौरान इंदिरा गॉधी से ह्ई बातचीत की आवाज सुनाई जाती है।
1990 में थ्री डाईमेंशनल डिजिटल प्लेनेटेरियम की शुरुवात हुई। डिजिटल या पोर्टेबल प्लेनेटेरियम पहली बार जापान के ताकायुनकी ओहरा ने तैयार किया था। लियो प्लेनेटेरियम फुले हुए गुब्बारे की तरह दिखाई देता है। ये स्कूल के कमरे के आकार का होता है, जो पैराशूट मटैरियल से बना होता है। इसकी भीतरी दिवार का फैब्रिक सिल्वर कोटेड होता है। इसमें हवा लगातार अंदर आती रहती है एवं निकलती रहती है तकि सांस लेने में दिक्कत न हो। इसमें एक पंखा भी लगा होता है जो सतह की हवा निकाल कर एटामॉस्फेरिक प्रेशर बनाता है और उसे सही आकार में रखता है। औसतन 80 लोगों की इसमें बैठ सकते हैं। दिल्ली स्थित लियो प्लेनेटेरियम के संस्थापक विकास नौटियाल हैं।


Wednesday, 6 February 2013

चंद्रशेखर आजाद


ब्रिटिश सरकार जिसके आतंक से सबसे अधिक डरती थी, उस अमर शहीद का जन्म मध्यप्रदेश के अलिराजपुर जिले के भाभरा गाँव में हुआ था। मातृभूमी की आजादी के लिये अपना सर्वस्य न्यौछावर करने वाले प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चंद्रशेखर आजाद 15 वर्ष की अल्पआयु में गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुङ गये थे। जलियावाला बाग कांड के नरसंहार की वजह से अंग्रेजों के प्रति उनमें रौष पहले से ही था। शुरुवाती दौर में ही वे जन-जन में आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। 
चंद्रशेखर, आजद नाम से कैसे प्रख्यात हुए, इसका एक किस्सा है—
चंद्रशेखर, गाँधी जी के आवहान पर स्वदेशी की भावना से प्रभावित होकर झंडा हाँथ में लेकर जोशीले नारे के साथ छात्रों के जलूस में शामिल हो गये थे। पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया और मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर किया गया। मजिस्ट्रेट ने उनसे सवाल पूछना प्रारंभ किया-
नाम ? आजाद !
पिता का नाम ? स्वाधीन
मजिस्ट्रेट को लगा कि लङका जिद्दी है। उन्होने अगला सवाल किया  और तुम्हारा घर ?
आजाद भी उसी अंदाज में बोले- जेलखाना।
मजिस्ट्रेट के गुस्से  पारा चढ गया। उसने आजाद को 15 बेंतों की सजा सुनाई। जेल के बाहर खुले मैदान में आजाद, वंदेमातरम् और महात्मा गाँधी की जय के उद्घोष के साथ नंगी पीठ पर बेंतों की मार सह लिये और उफ तक न किये।
जेल से बाहर आने पर सर्वप्रथम डॉ. सम्पूर्णानंद ने उन्हे आजाद नाम से संबोधित किया था। तद्पश्चात चंद्रशेखर इसी नाम से लोकप्रिय हुए।

असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922  में चौरि-चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये।

झाँसी और ओरछा के बीच सतारा नदी के किनारे लगभग ढीमरपुर से आजाद अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देते थे। वे दिन में पं. हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से ढीमरपुरा ग्राम में रामकथा सुनाते थे और जीवन यापन के संसाधनों की व्यवस्था करते थे।

चन्द्रशेखर आज़ाद हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार की घटना है आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहाँ एक दिन पुलिस आ गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से पूछा-"बाबा! आपने आजाद को देखा है क्यासाधु भेषधारी आजाद तपाक से बोले- "बच्चा आजाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आजाद रहते‌ हैं, हम भी तो आजाद हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाँथ जोडकर माफी माँगी और वापस लौट गयी।

एक बा‍र आजाद कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे। प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया क‍रते थे। आजाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने हवेली को घेर लिया है। प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आजाद से कहा कि वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आजाद हँसते हुए बोले- "आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाह‍र चलकर मिठाई बाँट आयें।" आजाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ चल दिये। दोनों मिठाई बाँटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आजाद मिठाई-वाला बनकर निकल गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड चुका है। ऐसे थे आजाद!

27 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क में आजाद बैठे हुए थे तभी पुलिस ने उन्हे घेर लिया दोनो तरफ से खूब गोलियाँ चली। एक अकेले आजाद ने पुलिस के छक्के छुङा दिये थे, किन्तु जब केवल एक गोली बची तो आजाद उसे अपनी कनपटी पर दाग दिये और जीतेजी अंग्रेजों के हाँथ नही आये।

उनके शहीद होने पर गाँधी जी ने कहा था-
चन्द्रशेखर की मृत्यु से मेँ आहत हूँ। ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं। फिर भी हमें अहिंसक रूप से ही विरोध क‍रना चाहिये।"

पं. जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा-
"चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।"

पं. मदनमोहन मालवीय जी ने कहा--
"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"

मातृभूमि की आजादी के लिये क्रान्तिकारी शहीद आजाद का बलिदान भारत के जनमानस में एक गौरवमय उदाहरण है। आजाद एक सच्चे सिपाही थे। आजादी के ऐसे ही दिवानों की कुर्बानियों से भारत की स्वाधीनता का इतिहास लिखा गया है। 

Saturday, 2 February 2013

अवसर



अक्सर लोग मेहनत करने से घबराते हैं और सफलता प्राप्त करने के लिये किसी शार्ट-कट यानी सरल रास्ते को अपनाते हैं। जिदगी के अहम फलसफे को समझना नही चाहते कि, कठिन संर्घष से ही व्यक्ति का जीवन प्रमाणिक बनता है और मुश्किलें उसके जीवन में वह आग होती है, जिनसे गुजरने पर उसकी अशुद्धियाँ जल कर समाप्त हो जाती हैं। जैसे- सोना जलकर ही कुन्दन बनता है, उसी तरह कठिन चुनौतियाँ व्यक्तित्व को निखारती हैं।

मित्रों, सफल होने के लिये दो चीज महत्वपूर्ण हैं- अवसर को पहचानना और समय पर सही निर्णय लेना। कई बार ऐसा हो जाता है कि हम सही अवसर पहचानने में चूक जाते हैं और बाद में पछताते हैं। इसी तरह निर्णय क्षमता भी व्यक्ति की सफलता को प्रभावित करती है क्योंकि आने वाला पल कई बार ऐसी अन्जानी परिस्थिती को प्रस्तुत कर देता है जो हमारी योजनाओं और संभावनाओं से परे होती है। ऐसे पलों में हमारा एक सही निर्णय हमें लक्ष्य तक ले जाता है, वहीं गलत निर्णय असफलता को अंजाम देता है।

एक बार एक कलाकार की बनाई मूर्तियों की प्रर्दशनी लगी थी लोग उसकी बनाई मूर्तियों को बङे ध्यान से देख रहे थे। उन्ही मूर्तियों में एक मूर्ती बहुत ही अजीब सी थी, उसका चेहरा बालों से ढका हुआ था एवं उसके पर भी थे। एक दर्शक ने कलाकार से पूछा ये किसकी मूर्ती है? कलाकार ने कहा ये अवसर है, इसका कोई रूप नही होता ये किसी भी रूप में आ सकता है। अतः इसका चेहरा ढका हुआ है और पंख ये समझाते हैं कि ये हवा के झोंके की तरह कब आता है, कब चला जाता है समझना मुश्किल होता है। सच ही तो है मित्रों, कई बार हमें ऐसे अवसर मिलते हैं जो हमारी जिंदगी को नया आयाम दे सकते हैं जिसे हम नजर अंदाज कर देते हैं और अपनी ही धुन में आगे बढते जाते हैं।

सही अवसर को पहचानने और सही निर्णय लेने के अलावा भी हमारे अंदर एक अंर्त-दृष्टी विकसित होनी चाहिये, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में आने वाले संकटों को पहचान सकें और उन्हे दूर करने  लिये वर्तमान में ही उसका समाधान निकाल सकें। मित्रों, ये भी एक बङा सच है कि हम लोग आने वाले संकट को हमेशा पहचान जायें ये जरूरी नही है। परन्तु यदि हम अपने जीवन को ध्यान से देखे तो ये पता चलेगा कि जीवन में आने वाले संकट अपनी दस्तक जरूर देते हैं। उसी तरह हमारी उन्नती के अवसर भी आते हैं लेकिन हम उसे हल्के से लेते हैं। कई बार हम अपने बङे लक्ष्य को हासिल करने के चक्कर में छोटे अवसरों को नजर अंदाज कर देते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि एक नन्हा सा बीज एक दिन विशाल वृक्ष बन जाता है।
विलयम शेक्सपियर ने कहा है कि- सही समय पर बोया गया सुर्कम का बीज ही महान फल देता है।

कठिनाइयाँ हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं। कोई इन मुश्किलों को देखकर डर जाता है, घबरा जाता है या इनसे बचने का प्रयास करता है, तो कोई इसे स्वीकार करता है तथा मुश्किलों से मुकाबला करने का प्रयास करता है। अगर देखा जाये तो हर मुश्किल चुनौती हमारे लिये कुछ न कुछ उपहार लेकर आती है और ये उपहार उसे स्वीकार करने के बाद या उसे पार करने पर ही मिलता है। ये भी एक प्रकार का अवसर होता है, ये तो हम पर निर्भर करता है कि हम उसे स्वीकारते हैं या उससे पिछे हट जाते हैं। कहते हैं, भाग्य भी बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों को भी कष्ट और कठिनाइयोँ का सामना करना पडता हैं।किसी ने सच ही कहा है कि- 
"Every experience is an opportunity to learn & grow"

दोस्तों, अवसर को समझते हुए, अपने विश्वास के बल पर यदि हम आगे बढने का प्रयास करेंगे तो फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानी चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता। मजबूत इरादों के साथ, जीवन को सहज और सुव्यवस्थित बनाने का प्रयास तो कर ही सकते है। रविन्द्र नाथ टैगोर की पंक्ती से कलम को विराम देते हैं---

हम ये प्रार्थना न करें कि, हमारे ऊपर खतरे न आयें,
बल्की ये करें कि, हम उनका सामना करने में निडर रहें।