Friday, 25 October 2013

आत्मनिर्भरता



आज की हाई प्रोफाइल और प्रतिस्पर्धा से भरी जीवन शैली में हम अपने बच्चों को सुपर किड देखना चाहते हैं। उसे शैक्षणिकं योग्यता के साथ-साथ अन्य विधाएं जैसे- नृत्य, गीत हो या तैराकी, घुङसवारी में भी योग्य बनाने का प्रयास करते हैं। ये सच है कि व्यक्तित्व को निखारने में शैक्षणिंक योग्यता के साथ इन शिक्षाओं का भी विशेष स्थान है। परंतु वास्तविकता में हम इस जद्दोजहद में एक महत्वपूर्ण शिक्षा को अनदेखा कर देते हैं। बच्चों को बचपन से उसकी जिम्मेदारियों से अवगत नही कराते। आलम ये है कि, सुबह उठाने से लेकर स्कूल के गृहकार्य तक लगभग सारे कार्य हम अभिभावक करते हैं। उम्र के अनुसार यदि बच्चों को उनकी जिम्मेदारियों का भी बोध कराएं तो निःसंदेह बङे होकर यही बच्चे समय प्रबंधन तथा आत्मनिर्भरता को समझ सकते हैं। परिवार तथा समाज के जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं, जो संपन्न राष्ट्र की महत्वपूर्ण ईकाइ है।

जिम्मेदारियों और फायदों के बीच सीधा संबंध होता है। घर के अन्य सदस्यों के समान ही छोटे-बङे कामों में बच्चों को शामिल करने से उनकी आत्मनिर्भता की बुनियाद मजबूत होती है। वही इमारत मजबूत होती है जिसकी नींव मजबूत होती है, उसी प्रकार बच्चे की बुनियाद आत्मनिर्भरता के सबक से बनाई जाए तो उसे कभी भी, किसी भी परिस्थिति में किसी के सहारे की जरूरत नही पङेगी। विषणु शर्मा द्वारा रचित पुस्तक पंचतंत्र में भी ये समझाया गया है कि राजा-महाराजाओं के बच्चों को भी बचपन से गुरुकुल में भेज दिया जाता था। जहाँ वे सुख-सुविधाओं से दूर पूर्णतः आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा ग्रहण करते थे।
पौधों में पानी देना, पालतु जानवर को खाना देना जैसा कार्य 7 साल के बच्चे से कराया जा सकता है। इससे उनमें प्रकृति को भी समझने की इच्छा होगी। पशु-पक्षी सभी अपने बच्चों को बहुत जल्द आत्मनिर्भर बनना सिखाते हैं। केवल इंसान ही अपने बच्चे को कुछ ज्यादा ही बच्चा समझता है और एक दिन युवा हुए बच्चे से ऐसी उम्मीद लगाता है कि वो सारी जिम्मेदारियाँ, आत्मनिर्भरता के साथ बहुत अच्छे से निभाए ये कैसे संभव हो सकता है। कमजोर लता जो दुसरों के सहारे बढती हैं वो कभी वृक्ष नही बन सकती। यदि व्यक्ति हर काम में दूसरे की मदद लेता है तो फिर उसे सदा दूसरों पर ही निर्भर रहने की आदत पड़ जाती है। यह आदत आगे चलकर कष्ट ही देती है। आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास उपजता है जो प्रत्येक कार्य को करने व उसमें सफल होने की प्रेरक शक्ति है। अत: दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय अपने काम स्वयं करें।
विनोबा भावे आत्मनिर्भता के महत्व को समझते थे इसीलिए सर्वोदय आंदोलन में अन्य बातों के अलावा आत्मनिर्भर गांवों की कल्पना भी शामिल किए थे।  दिसंबर 1949 में हैदराबाद से वापस आने के बाद विनोबा जी ने पवनार आश्रम में इसका प्रयोग प्रारंभ किया था। उन्होंने बिना बैलों के आश्रम में खेती की और सब्जी बोई। सिंचाई के लिए पानी निकालना बड़ा कठिन कार्य था। रहट में एक डंडे के स्थान पर आठ डंडे लगाए गए जिसके फलस्वरूप एक घंटे में सात सौ चक्कर लगे, जबकि पहले केवल 25 चक्कर लगते थे। इस प्रकार थोड़े परिश्रम से भरपूर पानी मिला और देखते ही देखते समस्त भूमि हरी-भरी हो गई। ईंट पत्थर निकालने के बाद 125 मन सब्जी पैदा हुई। हाथों से की जाने वाली खेती को विनोबा जी ने ऋषि खेती का नाम दिया था। पानी की कमी को पूरा करने के लिए पांच-छ महीनों में खुदाई करके एक कुआं तैयार कर लिया गया। एक साल में ही खेती से 135 किलो ज्वार, 4 क्विंटल मूंगफली और 6 क्विंटल अरहर दाल पैदा हुई। आश्रमवासी अपने वस्त्र भी हाथ से कते सूत के ही पहना करते थे। इस प्रकार आश्रमवासी विनोबा जी के मार्गदर्शन में पूर्णरूप से आत्मनिर्भर हो गए। उसके बाद अनेक गांवों ने उनका अनुकरण किया। 

कहने का आशय है कि, बचपन से लेकर किशोरावस्था और युवावस्था तक विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए जब बच्चा सही अर्थो में जिम्मेदार बनता है, तो वो वास्तविक सुपरकिड बनता है। उसके यही प्रयास, अनुभव और आपसी जिम्मेदारियां उसे एक सफल इंसान बनाते हैं। वो अपने बल पर अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब होता है।  

Tuesday, 15 October 2013

एक अपील

आपके अमुल्य तीन घंटे किसी की आँखों की रोशनी बन सकते हैं। अहिल्याबाई की पावन नगरी इंदौर के पाठकों से एक निवेदन है कि, इंदौर में Old GDC. Collage में B.A. 2nd Year की परिक्षाएं 23 अक्टुबर से शुरु हो रही है। वहाँ सामान्य छात्राओं के साथ कुछ दृष्टीबाधित छात्राएं भी परीक्षा देंगी, परिक्षा के समय सहलेखक (Scribe) की आवश्यकता की पूर्ती हेतु हम आपके सहयोग की अपेक्षा करते हैं। परिक्षा में सहलेखक का सहयोग केवल बालिकाएं ही दे सकती हैं। जो छात्रा 12वीं या B.A. 1st Year में अध्ययन कर रही है वे यदि दृष्टीबाधित बच्चियों की परिक्षा देने को इच्छुक हों तो, वे हमें मेल कर सकती हैं।

अधिक जानकारी के लिये आप हमें मेल कर सकते हैं। E-mail : voiceforblind@gmail.com

 मेरी पूर्व की अपील पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें
http://roshansavera.blogspot.in/2013/04/a-request.html

 

Saturday, 12 October 2013

रावण का अंहकार


हम सब दशहरे का त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूप में मनाते हैं। रावण बहुत बुद्धिमान और अनेक विद्याओं में निपुण था। फिर भी रावण के अन्त को हम सब बुराई का प्रतीक मानते हुए उसे जलाते हैं। प्रेमचन्द जी कहते हैं कि, आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।
रावण में भी सबसे बङी बुराई यही थी कि, उसे अंहकार का भ्रम हो गया था। अंहकार, व्यक्ति के जीवन को ऐसे नशे में डुबो देता है, जिसके कारण व्यक्ति स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है और सोचता है कि पूरी दुनिया उसी से चल रही है। रावण में भी ऐसी भावना ने अपना रूप विकसित कर लिया था जिसका परिणाम ये हुआ कि सब कुछ अंहकार की ज्वाला में जल गया। वास्तव में अंहकार का कोई सच्चा अस्तित्व है ही नही। वीर का असली दुश्मन तो उसका अहंकार ही होता है।   

किसी ने सच ही कहा है, आप ने क्या कमाया उस पर कभी घमंड न करें क्योंकि शतरंज की बाजी समाप्त होने पर राजा और मोहरे एक ही डिब्बे में रख दिये जाते हैं।

अहंकार एक ऐसा बीज है जिससे कभी भी सकारात्मक फसल नही उगती बल्की बुराईयों की जङें गहरी हो जाती है। कहते हैं, अहंकार को कितना भी पोषण दीजिए उसकी तृप्ति संभव नही है। अहंकार तो गुब्बारे के समान है जो हवा भरने पर फूल जाता है यही हवा रूपी अहंकार जब ज्यादा हो जाता है तो गुब्बारा फूट जाता है। जरा सा कुछ हासिल हो जाने पर हम सब भी गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं और अंहकार के वायरस को अपने भावों में समा लेते है। ये भूल जाते हैं कि कोई भी उपलब्धी किसी एक का परिणाम नही होती उसमें कई लोगों का योगदान होता है। कहावत को भूल जाते हैं कि, अकेला चना भाङ नही फोङता। हम हैं कि खुद को सर्वे-सर्वा समझ कर अहंकार की अग्नि में स्वयं को तबाह कर देते हैं 

वाल्टेयर ने कहा है कि, मनुष्य जितना छोटा होता है, उसका अंहकार उतना ही बड़ा होता है।“
अतः मित्रों सच्ची विजय या सही मायने में दशहरे का महत्व तभी है जब हम अपने अंदर के अहंकार रूपी रावण को ऊँचाई से उतार कर धरातल पर ले आयें। जन मानस की याद में अच्छे विचारों के साथ रहें। इसके लिए हमें विनम्रता और शालीनता को जीवन का अंग बना लेना चाहिए।

विद्वानों ने सच ही कहा है कि, कभी भी कामयाबी को दिमाग में और नाकामयाबी को दिल में जगह नही देनी चाहिए क्योंकि, कामयाबी दिमाग में घमंड और नाकामयाबी दिल में मायुसी पैदा करती है।

दशहरे से संबधित पूर्व की पोस्ट को पढने के लिए दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 

 
 

 

Friday, 4 October 2013

माँ दुर्गा का अनुपम पर्व



जब हम भय की जगह निर्भय होकर प्रत्येक कठिनाई को परास्त करने में सक्षम हो जाते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं तब शक्ति की कृपा का अनुभव होने लगता है। माँ दुर्गा शक्ति का रूप हैं। रणक्षेत्र में श्री कृष्ण ने युद्ध शुरु होने से पहले अर्जुन को माँ शक्ति की उपासना और आह्वान करने के लिए कहा था, जिससे न्यायसंगत शक्ति के साथ सफलता प्राप्त हो। जीवन भी एक प्रकार का संग्राम है। इसमें पल-पल परिस्थितियाँ बदलती रहती है। विपरीत परिस्थिती में भी स्वयं को कायम रखने के लिए एक विषेश प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है। जो जीवन  मझधार में अटकी नैया को सकुशल अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करती है। ऐसी ही अपरिमित शक्ति का भंडार गायत्री मंत्र (ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुवर्रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्) के तीसरे अक्षर में समया हुआ है। जो शक्ति की प्राप्ति और सदुपयोग की शिक्षा देता है।

शक्ति और सत्ता, ईश्वर कृपा से प्राप्त होने वाली पवित्र धरोहर है, जो मनुष्य को इसलिए दी जाती है कि वह निर्बलों की रक्षा कर सके। परंतु यत्र-तत्र अक्सर देखने को मिल जाता है कि दुर्बल सबलों का आहार हैं। शक्ति तो वह तत्व है जिसके आह्वान से अविद्या, अंधकार तथा सभी परेशानियों का अंत हो जाता है। मन में शक्ति का उदय होने पर साधारण मनुष्य भी गाँधी, आर्कमडीज, कोलंबस, लेनिन, आइंस्टाइन जैसी हस्ती बन जाते हैं। बौद्धिक बल की जरा सी चिंगारी तुलसी, सूर, वाल्मिकी, कालीदास जैसे रचनाकारों को जन्म दे देती है।

माँ के इस अनुपम पर्व पर हम सभी अष्टभुजी दुर्गा की पूजा करते हैं। आठ भुजाओं से तात्पर्य हैः- स्वास्थ, संगठन, यश, शौर्य, सत्य, व्यवस्था, विद्या तथा धन। इन आठ विधओं का सम्मलित रूप ही शक्ति है। यदि हम सच्ची लगन के साथ माँ की उपासना निरंतर करें तो जीवन की यात्रा शक्ति की कृपा से निःसंदेह सुखद और सफल हो जाती है।

सर्वव्यापी, सर्वसम्पन्न माँ शक्ति की कृपा आप सभी पर सदैव बनी रही इसी मंगल कामना के साथ कलम को विराम देते हैं।

नोट- (नवरात्री से संबन्धित मेरी पूर्व की पोस्ट को पढने के लिए दिये गये लिंक पर क्लिक करें।)
जय माता दी

   

Tuesday, 1 October 2013

सत्य और अहिंसा के पुजारी

सत्य, अहिंसा  तथा देश हित को सर्वोपरी मानने वाले भारत के गौरव को शत्-शत् नमन।



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