आज की हाई प्रोफाइल और प्रतिस्पर्धा से भरी जीवन
शैली में हम अपने बच्चों को सुपर किड देखना चाहते हैं। उसे शैक्षणिकं योग्यता के
साथ-साथ अन्य विधाएं जैसे- नृत्य, गीत हो या तैराकी, घुङसवारी में भी योग्य बनाने
का प्रयास करते हैं। ये सच है कि व्यक्तित्व को निखारने में शैक्षणिंक योग्यता के
साथ इन शिक्षाओं का भी विशेष स्थान है। परंतु वास्तविकता में हम इस जद्दोजहद में
एक महत्वपूर्ण शिक्षा को अनदेखा कर देते हैं। बच्चों को बचपन से उसकी
जिम्मेदारियों से अवगत नही कराते। आलम ये है कि, सुबह उठाने से लेकर स्कूल के
गृहकार्य तक लगभग सारे कार्य हम अभिभावक करते हैं। उम्र के अनुसार यदि बच्चों को
उनकी जिम्मेदारियों का भी बोध कराएं तो निःसंदेह बङे होकर यही बच्चे समय प्रबंधन
तथा आत्मनिर्भरता को समझ सकते हैं। परिवार तथा समाज के जिम्मेदार नागरिक बन सकते
हैं, जो संपन्न राष्ट्र की महत्वपूर्ण ईकाइ है।
जिम्मेदारियों और फायदों के बीच सीधा संबंध होता
है। घर के अन्य सदस्यों के समान ही छोटे-बङे कामों में बच्चों को शामिल करने से
उनकी आत्मनिर्भता की बुनियाद मजबूत होती है। वही इमारत मजबूत होती है जिसकी नींव
मजबूत होती है, उसी प्रकार बच्चे की बुनियाद आत्मनिर्भरता के सबक से बनाई जाए तो
उसे कभी भी, किसी भी परिस्थिति में किसी के सहारे की जरूरत नही पङेगी। विषणु शर्मा द्वारा रचित पुस्तक पंचतंत्र में भी ये समझाया गया है कि राजा-महाराजाओं के बच्चों को भी बचपन से गुरुकुल में भेज दिया जाता था। जहाँ वे सुख-सुविधाओं से दूर पूर्णतः आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा ग्रहण करते थे।
पौधों में पानी देना, पालतु जानवर को खाना देना जैसा
कार्य 7 साल के बच्चे से कराया जा सकता है। इससे उनमें प्रकृति को भी समझने की
इच्छा होगी। पशु-पक्षी सभी अपने बच्चों को बहुत जल्द आत्मनिर्भर बनना सिखाते हैं।
केवल इंसान ही अपने बच्चे को कुछ ज्यादा ही बच्चा समझता है और एक दिन युवा हुए
बच्चे से ऐसी उम्मीद लगाता है कि वो सारी जिम्मेदारियाँ, आत्मनिर्भरता के साथ बहुत
अच्छे से निभाए ये कैसे संभव हो सकता है। कमजोर लता जो दुसरों के सहारे बढती हैं
वो कभी वृक्ष नही बन सकती। यदि व्यक्ति हर काम
में दूसरे की मदद लेता है तो फिर उसे सदा दूसरों पर ही निर्भर रहने की आदत पड़ जाती
है। यह आदत आगे चलकर कष्ट ही देती है। आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास उपजता है
जो प्रत्येक कार्य को करने व उसमें सफल होने की प्रेरक शक्ति है। अत: दूसरों पर निर्भर
रहने की बजाय अपने काम स्वयं करें।
विनोबा भावे आत्मनिर्भता के महत्व को समझते थे
इसीलिए सर्वोदय आंदोलन में अन्य बातों के अलावा आत्मनिर्भर गांवों की कल्पना भी
शामिल किए थे। दिसंबर 1949 में हैदराबाद से वापस आने के बाद विनोबा जी ने पवनार
आश्रम में इसका प्रयोग प्रारंभ किया था। उन्होंने बिना बैलों के आश्रम में खेती की
और सब्जी बोई। सिंचाई के लिए पानी निकालना बड़ा कठिन कार्य था। रहट में एक डंडे के
स्थान पर आठ डंडे लगाए गए जिसके फलस्वरूप एक घंटे में सात सौ चक्कर लगे, जबकि पहले केवल 25 चक्कर लगते थे। इस प्रकार थोड़े
परिश्रम से भरपूर पानी मिला और देखते ही देखते समस्त भूमि हरी-भरी हो गई। ईंट
पत्थर निकालने के बाद 125 मन सब्जी पैदा हुई। हाथों से की
जाने वाली खेती को विनोबा जी ने ऋषि खेती का नाम दिया था। पानी की कमी को पूरा करने के लिए पांच-छ
महीनों में खुदाई करके एक कुआं तैयार कर लिया गया। एक साल में ही खेती से 135 किलो
ज्वार, 4 क्विंटल मूंगफली और 6 क्विंटल
अरहर दाल पैदा हुई। आश्रमवासी अपने वस्त्र भी हाथ से कते सूत के ही पहना करते थे।
इस प्रकार आश्रमवासी विनोबा जी के मार्गदर्शन में पूर्णरूप से आत्मनिर्भर हो गए।
उसके बाद अनेक गांवों ने उनका अनुकरण किया। कहने का आशय है कि, बचपन से लेकर किशोरावस्था और युवावस्था तक विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए जब बच्चा सही अर्थो में जिम्मेदार बनता है, तो वो वास्तविक सुपरकिड बनता है। उसके यही प्रयास, अनुभव और आपसी जिम्मेदारियां उसे एक सफल इंसान बनाते हैं। वो अपने बल पर अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब होता है।