Tuesday, 19 November 2013

आधुनिक समाज में नारी का अस्तित्व



आम बोलचाल की भाषा में  ‘लेडिज फर्स्ट एक ऐसा कथन है, जो नारी के लिए सम्मान स्वरूप है। इतिहास साक्षी है, सिन्धुघाटी की सभ्यता हो या पौराणिंक कथाएं हर जगह नारी को श्रेष्ठ कहा गया है।
"यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता" वाले भारत देश में आज नारी ने अपनी योग्यता के आधार पर अपनी श्रेष्ठता का परिचय हर क्षेत्र में अंकित किया है। आधुनिक तकनिकों को अपनाते हुए जमीं से आसमान तक का सफर कुशलता से पूरा करने में सलंग्न है। फिर भी मन में ये सवाल उठता है कि क्या वाकई नारी को 'लेडीज फर्स्ट' का सम्मान यर्थात में चरितार्थ है या महज औपचारिकता है। अक्सर उन्हे भ्रूणहत्या और दहेज जैसी विषाक्त मानसिकता का शिकार होना पङता है। नारी की बढती प्रगति को भी यदा-कदा पुरूष के खोखले अंह का कोप-भाजन बनना पङता है।

आज की नारी शिक्षित और आत्मनिर्भर है। प्रेमचन्द युग में नारी के प्रति नई चेतना का उदय हुआ। अनेक शताब्दियों के पश्चात राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने नारी का अमुल्य महत्व पहचाना और प्रसाद जी ने उसे मातृशक्ति के आसन पर आसीन किया जो उसका प्राकृतिक अधिकार था। आजादी के बाद से नारी के हित में कई कानून बनाये गये। नारी को लाभान्वित करने के लिए नित नई योजनाओं का आगाज भी हो रहा है। बजट 2013-14 में तो महिलाओं के लिए ऐसे बैंक की नीव रखी गई जहाँ सभी कार्यकर्ता महिलाएं हैं। उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कठोर से कठोर कानून भी बनाये गये हैं। इसके बावजूद समाज के कुछ हिस्से को दंड का भी खौफ नही है और नारी की पहचान को कुंठित मानसिकता का ग्रहंण लग जाता है। "नारी तुम श्रद्धा हो" वाले देश में उसका अस्तित्व तार-तार हो जाता है। 
  
आधुनिकता की दुहाई देने वाली व्यवस्था में फिल्म हो या प्रचार उसे केवल उपभोग की वस्तु बना दिया गया है। लेडीज फर्स्ट जैसा आदर सूचक शब्द वास्तविकता में तभी सत्य सिद्ध होगा जब सब अपनी सोच को सकारात्मक बनाएंगे। आधुनिकता की इस अंधी दौङ में नारी को भी अबला नही सबला बनकर इतना सशक्त बनना है कि बाजारवाद का खुलापन उसका उपयोग न कर सके। नारी को भी अपनी शालीनता की रक्षा स्वयं करनी चाहिए तभी समाज में नारी की गरिमा को सम्पूर्णता मिलेगी और स्वामी विवेकानंद जी के विचार साकार होंगे।

विवेकानंद जी ने कहा था कि- "जब तक स्त्रियों की दशा सुधारी नही जायेगी तब तक संसार में समृद्धी की कोई संभावना नही है। पंक्षी एक पंख से कभी नही उङ पाता।"

इस उम्मीद के साथ कलम को विराम देते हैं कि, आने वाला पल नारी के लिए निर्भय और स्वछन्द वातावरण का निर्माण करेगा, जहाँ आधुनिकाता के परिवेश में वैचारिक समानता होगी। नारी के प्रति सोच में सम्मान होगा और सुमित्रानन्दन पंत की पंक्तियाँ साकार होंगी—

मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखि प्यारी को।।      

Wednesday, 13 November 2013

प्रशंसा के फूल


याद कीजिए जीवन के वो स्वर्णिम पल जब शिक्षक और अभिभावक अच्छी पढाई, उत्कृष्ट खेल प्रदर्शन या अच्छे व्यवहार के लिए शाबासी देते थे और ‘Keep it up’ कहकर हौसला बढाते थे। ये शब्द बाल सुलभ मन में उत्साह का संचार कर देते थे। कार्य को और बेहतर करने की प्रेरणा देते थे। आज भले ही हम बङे हो गयें हों फिर भी अच्छे कार्यों के हेतु, अपनो से मिली प्रशंसा जीवन में नई चेतना और सकारात्मक ऊर्जा देती है। प्रशंसा से भरे शब्द संघर्षमय जीवन में रामबांण औषधी की तरह हैं। सच्ची तारीफ सदा लाभदायक होती है। व्यक्ति में प्रशंसा के माध्यम से उसके कार्य करने की क्षमता कई गुना बढ जाती है।   

प्रशंसा का भाव एक ऐसी औषधी है, जिससे व्यक्ति के मन में उमंग तथा उत्साह का संचार होता है। प्रशंसा राह भ्रमित व्यक्ति को राह पर ले आती है, उसमें सकारात्मक भावनाओं का विकास होता है। सच्ची प्रशंसा करने से कभी पीछे नही हटना चाहिए।  कभी भी झूठी तारीफ नहीं करनी चाहिए क्योंकि झूठी प्रशंसा चाटूकारिता या कहें चापलूसी का प्रतीक है। संभवतः इससे दूर ही रहना चाहिए।  

प्रशंसा करना एक कला है, जो दिल की गहराइंयों से निकलनी चाहिए, तभी उसकी पहुँच दूसरे तक जायेगी । कभी भी किसी की प्रशंसा करते समय आडंबर का सहारा नही लेना चाहिए। जीवन में हमसभी की कई बार ऐसे लोगों से मुलाकात होती है जिन्हे हम व्यक्तिगत रूप से नही जानते फिर भी उनके कार्यो से प्रभावित होते हैं। यदि जीवन में ऐसा ही कोई व्यक्ति नेक काम करते दिखे या अपने कार्य को ईमानदारी से निभाते दिखे तो उसकी प्रशंसा करने से स्वंय को कभी भी रोकना नही चाहिए। प्रशंसा के शब्द अमृत के समान हैं जिसको व्यवहार में अपनाने से दोनो को ही शांति और प्रसन्नता की अनुभूति होती है, जो बहुमूल्य है।

जीवन की यात्रा के दौरान यदि व्यक्ति को प्रशंसा मिलती है तो उसका अपने कार्य के प्रति उत्साह बढ जाता है और वे अधिक ऊर्जा से अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है। अधिनस्त कर्मचारियों द्वारा किये गये उत्कृष्ट कार्यों पर बङे अधिकारियों द्वारा की गई प्रशंसा विकास की राह को आसान बनाती है। सामाजिक विकास हो या व्यक्तिगत विकास सभी एक दूसरे के सहयोग से सम्पूर्ण होते हैं, परन्तु आलम ये है कि हम उन सहयोग को भूल जाते हैं। विकास की दौङ में अप्रत्यक्ष लोगों की सराहना को नजर अंदाज कर देते हैं। जबकी प्रशंसा भरे शब्द तो सुगन्धित फूल के समान हैं जिसकी खुशबू व्यक्ति में अच्छे भावों को महका देती है।

सच्ची तारीफ अंधकार भरे जीवन में आगे बढने की चाह रूपी उजाले की ज्योति होती है। परंतु अपनी तारीफ स्वंय नही करनी चाहिए और दूसरों से मिली तारीफों से स्वंय में अंहकार को जगह नही देना चाहिए। प्रशंसा तो उस सीढी के समान है, जो हमें ऊपर भी ले जा सकती है और नीचे भी गिरा सकती है। किन्तु जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं जब स्वंय की पीठ भी थपथपा लेनी चाहिए और अपनी उपलब्धियों के बारे में सोचना चाहिए ताकि जीवन में आए निराशा के बादल स्व प्रेरणा से छँट जायें। स्व-सराहना जीवन में नई ऊर्जा के साथ कार्य करने की प्रेरणा देती है।

सच्ची प्रशंसा सदैव सकारात्मक भावों का ही विकास करती है। प्रशंसा के सदुपयोग से व्यक्ति का सकारात्मक और समुचित विकास होता है, परन्तु दुरपयोग से अंहकार एवं द्वंद का जन्म होता है। इसलिए प्रशंसा रूपी मिठास का सही समय पर, सही तरीके से उपयोग करना चाहिए और प्रशंसा करने का अवसर चूकना नही चाहीए। 

               
 

Wednesday, 6 November 2013

मानवता का प्रतीक है, सहयोग की भावना



मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जिसकी उन्नति सहयोग की बुनियाद पर निर्भर है। जिस प्रकार ईंट से ईंट जोङकर विशाल भवन बनता है, पानी की एक-एक बूंद से सागर बनता है। उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों के परस्पर सहयोग से ही मनुष्य का विकास संभव है। समाज और राष्ट्र की समृद्धि परस्पर सहयोग पर ही निर्भर है।

पूर्ण विकास सहयोग से ही होता है। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नही होता। कलाकार के सामने डॉक्टर अयोग्य है, तो डॉक्टर के सामने इंजीनियर, तो कहीं साहित्यकार के सामने व्यपारी। कहने का आशय ये है कि, सभी अपनी-अपनी विधाओं में पूर्ण हैं किन्तु संतुलित विकास के लिए एक दुसरे का सहयोग अति आवश्यक है। सहयोग की आदतें मनुष्य में मैत्री भावना का विकास करती हैं। गौतम, महावीर, ईसा हों या कृष्ण, कबीर, राम, रहीम सभी महापुरुषों में मैत्री की भावना समान है।

धरती पर जैविक संरचना कुछ इस प्रकार है कि समाज से परे अकेले व्यक्ति का विकास संभव नही है। प्राणी में शरीर के सभी अंग मिलकर कर कार्य करते हैं तभी व्यक्ति अनेक कार्य करने में सक्षम होता है। इतिहास गवाह है कि रावण, कंस, दुर्योधन हो या हिटलर, मुसोलिन, चँगेज खाँ तथा नादिरशाह जैसे शक्तिसंपन्न कुशल नितिज्ञ थे किन्तु सभी ने सामाजिक भावना का निरादर किया जिसका परिणाम है उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
  
सृजन का आइना है परस्पर सहयोग। जिस तरह आम के वृक्ष का विशाल अस्तित्व, मधुर फल, शीतल छाया दूसरें लोगों के सहयोग का ही परिणाम है। उसी प्रकार व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व समाज के प्रयत्नों का ही फल है।
मदर टेरेसा का कहना था कि, आप सौ लोगों की सहायता नही कर सकते तो सिर्फ एक की ही सहायता कर दें। 

सच ही तो है मित्रों, एक और एक ग्यारह होता है, बूंद-बूंद से ही घङा भरता है। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी पर निर्भर है कि लोग व्यक्तिवाद की मानसिकता को छोङकर सहयोग के महत्व को समझते हुए उसे जीवन का अहम हिस्सा बना ले। सहयोग की भावना की एक शुरुवात से ही "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना सजीव होती है।


Friday, 1 November 2013

शुभ दिपावली




अमावस की अँधियारी रात में, रौशनी का आगाज हो।

माटी के इस दिपक में, ज्ञान की बाती और बुद्धि का प्रकाश हो।

सुख-समृद्धि की रंगोली से, हर आँगन मंगलमय हो।

स्वास्तिक की शुभता में, सबके सपने साकार हो।

भाई-चारे की मिठास में, चहुँ ओर दियों की मंगल कामना हो।

हार्दिक बधाई के साथ दिपों के प्रकाश में, दिपावली शुभ हो।

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