Friday, 28 February 2014

प्रतिकूलताएँ भी वरदान बन सकती हैं


प्रकृति हमारी जननी है, जो हमें सदैव ऐसी परिस्थिती प्रदान करती है, जिसमें हम सभी का विकास होता है। जीवन में धूप-छाँव की स्थिती हमेशा रहती है। सुख-दुख एवं रात-दिन का चक्र अपनी गति से चलता रहता है। ये आवश्यक नही है कि, हर पल हमारी सोच के अनुरूप ही हो। प्रतिकूलताएँ तो जीवन प्रवाह का एक सहज स्वाभाविक क्रम है। सम्पूर्ण विकास के लिए दोनो का महत्व है। दिन का महत्व रात्री के समय ही समझ में आता है।
मनोवैज्ञानिक जेम्स का कथन है कि, ये संभव नही है कि सदैव अनुकूलता बनी रहे प्रतिकूलता न आए।

कई बार जीवन में ऐसी परिस्थिती आती है, जब लगता है कि सफलता की गाङी सही ट्रैक (रास्ते) पर चल रही है, परन्तु स्पीड ब्रेकर (गति अवरोधक) रूपी प्रतिकूलताएं लक्ष्य की गति को धीमा कर देती हैं। कभी तो ऐसी स्थिती भी बन जाती है कि सफलता की गाङी का पहिया रुक जाता है। अचानक आए अवरोध से परेशान होना एक मानवीय आदत है जिसका असर किसी पर भी हो सकता है। परन्तु जो व्यक्ति मानसिक सन्तुलन के साथ अपनी गाङी को पुनः गति देता है, वही सफलता की सीढी चढता है।

डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल्ल कलाम साहब का मानना है कि,
“Waves are my inspiration, not because they rise and fall,
But whenever they fall, they rise again.”

विपरीत परिस्थिती में निराशा का भाव पनपना एक साधरण सी बात है, किन्तु निराशा के घने कुहांसे से वही बाहर निकल पाता है जो अदम्य साहस के साथ अविचल संकल्प शक्ति का धनि होता है। ऐसे लोग पर्वत के समान प्रतिकूलताओं को भी अपने आशावादी विचारों से अनुकूलता में बदल देते हैं।

रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है कि, हम ये प्रर्थना न करें कि हमारे ऊपर खतरे न आएं, बल्कि ये प्रार्थना करें कि हम उनका सामना करने में निडर रहें

विपरीत परिस्थितियों में भी अपार संभावनाएं छुपी रहती है। अल्फ्रेड एडलर के अनुसार, मानवीय व्यक्तित्व के विकास में कठिनाइंयों एवं प्रतिकूलताओं का होना आवश्यक है। लाइफ शुड मीन टू यु पुस्तक में उन्होने लिखा है कि, यदि हम ऐसे व्यक्ति अथवा मानव समाज की कल्पना करें कि वे इस स्थिती में पहुँच गये हैं, जहाँ कोई कठिनाई न हो तो ऐसे वातावरण में मानव विकास रुक जायेगा।

अनुकूल परिस्थिती में सफलता मिलना कोई आश्चर्य की बात नही है। परन्तु विपरीत परिस्थिती में सफलता अर्जित करना, किचङ में कमल के समान है। जो अभावों में भी हँसते हुए आशावादी सोच के साथ लक्ष्य तक बढते हैं, उनका रास्ता प्रतिकूलताओं की प्रचंड आधियाँ भी नही रोक पाती। अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएँ तो एक दूसरे की पर्याय हैं। इसमें स्वंय को कूल (शान्त) रखते हुए आगे बढना ही जीवन का सबसे बङा सच है।


Thursday, 20 February 2014

लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन, जिम्मेदार कौन??




विश्व के सबसे बङे लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का आशय एक ऐसी शासन प्रणाली से है, जिसमें प्रभुसत्ता का अंतिम स्रोत जनता होती है। शासन नीतियों के निर्माण में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जनता भागीदारी करती है और सभी महत्वपूर्ण निर्णय जनसहमति से ही लिए जाते हैं। लोकतंत्र की व्यवस्था संविधान के अनुसार क्रियान्वित होती है और संविधान देश की जनता की आकांक्षाओं, भावनाओं, विचारों और मान्यताओं का प्रतिबिम्ब है। परन्तु विगत सप्ताह में जो कुछ लोकसभा में या राज्यसभा में हुआ उससे तो यही प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक एवं संवेधानिक अधिकार, 'पिंजरे में बंद पक्षी' की तरह हैं जो जिन्दा तो हैं किन्तु उङ नही सकते।


लोकसभा एवं राज्यसभा तथा विधान सभा में वर्तमान में हो रही अराजकता आज ऐसी विकृत मानसिकता को बढावा दे रही है जिसके लिए संविधान या लोकतंत्र का कोई महत्व ही नही दिखाई देता। तेलांगना का विरोध कर रहे सीमांध्र के समर्थक सांसदों द्वारा लोकसभा में तोङ-फोङ और मिर्चीस्प्रे जैसी अमानवीय घटना ने छः दशक पुराने लोकतंत्र के मंदिर लोकसभा में लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार कर दिया। तत्कालीन सरकार ने तो एक कदम और बढाकर सूचना के अधिकार को अनदेखा करते हुए, असंवेधानिक तरीके से आंध्रप्रदेश पुनर्गठन विधेयक पास करवा दिया तथा लोकतांत्रिक भावनाओं पर अराजकता का बुलडोजर चला दिया। जबकि संवेधानिक नियमों के अनुसार जब राज्यों के स्वरूप, गठन, कार्यक्षेत्र एवं अधिकारों का निर्धारण होता है तब नागरिकों के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों एवं राज्य और नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों का भी निर्धारण होता है।
जैलिनेक ने कहा है कि, संविधानहीन राज्य की कल्पना नही की जा सकती। संविधान के अभाव में राज्य, राज्य न होकर एक प्रकार की अराजकता होगी।

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि जिन राज्यों का गठन अराजकता के आधार पर हुआ हो, उससे ये उम्मीद लगाना कि पङौसी राज्य का सहयोग करेगा किसी छलावे से कम नही है।

लोकतंत्र के मंदिर में मार-पीट आम बात होती जा रही है। जनता के प्रतिनिधी जनता की बातें सदन में कहते हैं। अपनी बात रखना संवेधानिक अधिकार है और अपनी बात को मर्यादित तरीके से कहना सभ्यसमाज का सूचक है। परन्तु आज आलम ये है कि चुनाव जीत के लिए राजनेता अराजकता और अनैतिक तरीके से अपनी बात कहने में शर्म महसूस नही करते। विधायक विधानसभा में कपङे उतार कर किस सभ्यसमाज का प्रतिनीधित्व करते हैं??  उनके लिये तो लोकतंत्र केवल वोटतंत्र का ही परिचायक है। ऐसे नेता तो साम, दाम, दंड, भेद की नीति से राजनैतिक पद पर विराजमान रहना चाहते हैं।

इतिहास गवाह है कि विधानसभा में मार-पीट लगभग दो दशक पहले शुरू हो चुकी थी। महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक ने माइक व्यवस्था संभालने वाले का सिर फोङ दिया। बिहार में एक विधायक ने दूसरी पार्टी के विधायक की अंगुली काट ली। अब तो लोकसभा एवं राज्यसभा में भी लोकतंत्र के रक्षक कहे जाने वाले नेता लोकतंत्र की गरिमा को कलंकित करने में शर्म महसूस नही करते। उनके लिए तो राजनैतिक महत्वाकांक्षा, संविधान और लोकतंत्र की भावनाओं से भी ऊपर है।

जब भी देश में ऐसी कोई घटना घटती है सभी पार्टियां एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगती हैं, जबकि सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। और तो और जनता भी नेताओं को दोष देना शुरू कर देती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि, इन अपराधिक मानसिकता वाले व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधी बनाया किसने???

यदि समय रहते इस जहरीली मानसिकता वाले लोगों को न रोका गया तो ये चन्द लोग, लोकसभा एवं राज्यसभा तथा विधानसभा को तो गरिमाहीन करेंगे ही साथ में पूरे देश की हवा को भी मिर्चस्प्रे जैसी जहरीली मानसिकता से जहरीला कर देंगे। लोकतंत्र और संवेधानिक नियम केवल इतिहास के पन्नों में न सिमट जाए, उसके पहले ही लोकतंत्र को अपने वोट के अधिकार से सभ्य भारत का भाग्य विधाता बनना होगा…………



Thursday, 13 February 2014

करुणा की प्रतिमूर्ती (महाप्रांण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला)

दीनदुखियों पर अपना सर्वस्य न्यौछावर करने वाले निराला जी हिन्दी साहित्य के सिरमौर हैं। सरस्वती के वरद पुत्र माने जाने वाले निराला जी का जन्म बसंत-पंचमी को हुआ था। उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 अंकित की गई है। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 से प्रारंभ हुई। सरस्वती के साधक निराला जी ने हिंदी में माँ सरस्वती पर जितनी कविताएँ लिखी हैं शायद ही किसी और कवि ने लिखी हो। उन्होंने माँ सरस्वती को अनेक अनुपम एवं अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। महाप्राण निराला जी का जीवन निष्कपट था, जैसा वे कहते, वैसा ही उनका आचरण था।

वह तोङतीएवं पेट-पीठ मिलकर हैं दोनो एक जैसी कविताएं उनके अन्तः स्थल से उपजी कविताएँ थीं। उनके जीवन के अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जब उन्होने समाज के जरूरतमंद लोगों की सहायता पूरे दिल से की। ऐसे ही कुछ प्रसंग जो उनकी दरिया दिली को प्रकट करते हैं।

कलकत्ता के सेठ महादेव प्रसाद निराला जी को प्राण प्रण की तरह मानते थे। एक बार उन्होने जाङे के दिनों में निराला जी के लिए बहुत सुन्दर और शानदार शाल बनवाई और उसे निराला जी को सप्रेम भेंट की। निराला जी उसे पहन कर बहुत खुश हुए और सेठ जी की प्रशंसा भी किये। परन्तु एक दिन जब वे सेठ जी के दफ्तर जा रहे थे तो रास्ते में एक भिखारी मिला जिसके तनपर कोई कपङा नही था। निराला जी ने वो शाल ठंड से काँपते उस भिखारी को दे दी। जब सेठ जी को पता चला तो वे भिखमंगे के पीछे भागे किन्तु तबतक वे भिखारी वहाँ से जा चुका था। निराला जी ने सेठ जी से कहा क्यों परेशान हो रहे हैं? जाने दीजिए उसको, उसका जाङा ठीक से कट जायेगा। सेठ जी निराला जी से बोले कि धन्य हैं, महाराज आप !”

निराला जी का मन किसी का कष्ट देखकर उसकी सहायता को बेचेन हो जाता था। उनकी उदरता का एक और किस्सा है, एकबार निराला जी अपने एक प्रकाशक से तीन सौ रूपये लेकर इलाहाबाद में अपनी मुँहबोली बहन  महादेवी वर्मा के घर जा रहे थे। रास्ते में निराला जी को एक भिखारन मिली उसने कहा-  बेटा, इस भूखी-प्यासी भिखारन को कुछ दे दो।

निराला जी उसकी आवाज सुनकर रुक गये और उन्होने उससे पूछा कि यदि मैं तुम्हे पाँच रूपये दूँ तो कितने दिन भीख नही माँगोगी। बुढिया बोली एक हफ्ते तक। तब निराला जी ने कहा यदि मैं तुम्हे तीन सौ रूपये दूँ तो कितने दिन भीख नही माँगोगी, भिखारन बोली क्यों मजाक करते हो बेटा इतने रूपये मुझे कोई क्यों देगा। निराला जी ने कहा तुमने मुझे बेटा कहा है, निराला की माँ भीख माँगे ये तो मेरे लिए शर्म की बात है। मैं तुम्हे तीन सौ रूपये दूंगा, तब बुढिया भिखारन बोली मैं जिंदगी भर भीख नही माँगुगीं उस पैसे से कोई रोजगार करुंगी। ये सुनते ही निराला जी ने अपने सारे पैसे उसे दे दिये और महादेवी वर्मा जी के यहाँ चले गये जहाँ रिक्शेवाले को पैसा महादेवी वर्मा जी ने दिये।

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि निराला जी के मन में गरीब एवं असहाय लोगों के लिए करुणा की गंगा बहती थी। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनका संर्पूण जीवन धन-दौलत की माया मोह से परे समाज के हित में ही व्यतीत हो जाता है। निराला जी ऐसी ही महान आत्मा थे।  15 अक्टुबर सन् 1961 को करुणा की प्रतिमूर्ती महाप्रांण सूर्यकांत त्रीपाठी निराला जी भले ही इहलोक छोङकर परलोक सिधार गये। परन्तु अपने जीवन की सार्थकता को अपनी रचनाओं से एवं अपनी करुण भावना के माध्यम से जन-जन के ह्रदय में ऐसी अमिट छाप छोङ गये, जिसे जब तक सृष्टी है उन्हे कोई भुला नही सकता। 

 




Thursday, 6 February 2014

बेटी है तो कल है



हमारे देश में दिन-प्रतिदिन कन्याभ्रूण हत्या में इजाफा हो रहा है। सेंटरफॉर रिसर्च के अनुसार लगभग बीते 20 वर्षों में भारत में कन्याभ्रूण हत्या के कारण एक करोङ बच्चियां जन्म से पहले काल की बली चढा दी गईं हैं। लङकियों के प्रति अवहेलना की मानसिकता सिर्फ अनपढ लोगों में नही है बल्की पढे-लिखे वर्ग में भी व्याप्त है। कुछ समय पूर्व स्टार प्लस पर सत्यमेव जयते नामक कार्यक्रम प्रदर्शित हुआ था जिसमें कन्याभ्रूण पर भी एक परिचर्चा थी। उसमें कई ऐसी महिलाओं की आपबीती थी जिससे पता चला कि बेटी पैदा होने पर एक माँ के साथ हैवानियत जैसा व्यवहार किया गया। पेशे से डॉ. महिला को भी कन्याभ्रूण हत्या जैसी क्रूर मानसिकता का शिकार होना पङा। बालिकाओं के प्रति संवेदनाहीन एवं तिरस्कार जैसी भावना किसी भी देश के लिए चिंताजनक है।

युनिसेफ के अनुसार 10%  महिलाएं विश्व जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं। भारत एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ भी बेटियों की हो रही कमी से चिंतित है। भारत सरकार द्वारा देशभर में 24 जनवरी  को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र ने 11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा वर्ष 2012 में की। बच्चियों के प्रति समाज में जागरूकता और चेतना पैदा करने के लिए यह दिवस प्रति वर्ष मनाया जाता है। इन दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि समाज में हर बालिका का सम्मान हो, उसका भी महत्व हो और उसके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाए।

वर्ष 1991 मे हुई जनगणना से लिंग-अनुपात की बिगड़ती प्रवृत्ति को देखते हुए, कई राज्यों ने बेटीयों के हित के लिये योजनाएं शुरू की। जैसे कि- मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना एवं लाडली लक्ष्मी योजना,  भारत सरकार द्वारा धन लक्ष्मी योजना, आंध्र प्रदेश  द्वारा बालिका संरक्षण योजना, हिमाचल प्रदेश  ने बेटी है अनमोल योजना शुरू की तो पंजाब में बेटियों के लिए रक्षक योजना की शुरूवात की गई। ऐसी और भी योजनाएं अन्य राज्यों में चलाई जा रही है। बेशक आज बेटियों के हित में अनेक योजनाएं चलाईं जा रही हैं,  किंतु भारतीय परिवेश में बेटियों के प्रति विपरीत सामाजिक मनोवृत्तियों ने बच्चियों के लिए असुरक्षित और असुविधाजनक माहौल का ही निर्माण किया है। योजनाएं तो बन जाती हैं परन्तु उनका क्रियान्वन जागरुकता के अभाव में सिर्फ कागजी पन्नो में ही सिमट कर रह जाता है। बेटीयों का अस्तित्व, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास, सुरक्षा और कल्याण, समाज में व्याप्त रुढीवादिता और संकीर्ण सोच की बली चढ जाता है।

मंदिरों में देवी पूजा, नवरात्रों में कन्या पूजा महज चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात को ही चरितार्थ करती है क्योंकि अधिकांशतः तो बेटीयाँ उपेक्षा की ही शिकार होती हैं। आज हम चाँद से भी आगे जाने की बात करते हैं, दुनिया को मुठ्ठी में बंद करने की तकनिक का इजात कर रहे हैं। आधुनिक सोच का ढोल बजाते हैं लेकिन जब बेटे और बेटी की बात आती है तो, सारी उम्मीद बेटे से लगाते हैं। अपनी सारी जमापूंजी बेटे की शिक्षा ओर विकास पर खर्च कर देते हैं। बेटी को पराया धन कहकर उसकी शिक्षा पर अंकुश लगा देते हैं। ये दोहरा मापदंड बेटीयों के लिए किसी त्रासदी से कम नही है।  

कई बुद्धीजीवी वर्ग बेटी बचाओ का अभियान चला रहे हैं, जो नुक्कङ नाटकों के माध्यम से समाज में जागरुकता लाने का प्रयास कर रहे हैं। अभी हाल में अमर उजाला समाचार पत्र के माध्यम से एक नये नारे के आगाज हुआ बेटी ही बचायेगी इसमें कोई शक नही क्योंकि आज शिक्षा और हुनर को हथियार बनाकर बेटीयां भारतीय प्रशासनिक सेवा से लेकर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से लेकर अंतरिक्ष तक में अपना एवं देश का नाम रौशन कर रही हैं। यहाँ तक कि पुरूष प्रधान क्षेत्र जैसे कि- रेलवे चालक, बस चालक एवं ऑटो चालक में भी अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहीं हैं। फिरभी कुछ विपरीत सोच उसके अस्तित्व को ही नष्ट कर रहीं हैं।  

बेटी बचाओ जैसी योजनाएं और अनेक कार्यक्रम इस बात की पुष्टी करते हैं कि आज अत्याधुनिक 21वीं सदी में भी हम लिंगानुपात के बिगङते आँकङे को सुधार नही पा रहे हैं। पोलियो, कैंसर, एड्स जैसी बिमारियों को तो मात दे रहे हैं किन्तु बेटीयों के हित में बाधा बनी संकीर्ण सोच को मात नही दे पा रहे हैं। आज भी सम्पन्न एवं सुशिक्षित परिवारों में लङकी होने पर जितनी भी खुशी मनाई जाती हो, लेकिन लङके की ख्वाइश उनके मन से खत्म नही होती। जबकी आज माँ-बाप को कंधे देने का काम बेटी भी कर सकती है, अन्त समय में माँ-पिता के मुँह में वो भी गंगाजल डाल सकती है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि ऐसा कोई काम नही है जो बेटी नही कर सकती।

वक्त के साथ यदि हम सब अपनी सोच में भी परिवर्तन लांए, बेटी को भी बेटे जैसा अवसर दें तो यकिनन बेटी ही बचाएगी हमारी संस्कृति को एवं आने वाले कल को क्योंकि वे न केवल समाज को शिक्षा देने में सबल है बल्कि देश सम्भालने की भी हिम्मत रखती है। हम सब यदि ये प्रण करें कि लिंग भेद को मिटाकर बेटे को भी ऐसे संस्कार देंगे जिससे वे बहनों का सम्मान करें, दहेज जैसी कुप्रथाओं का अंत करें, बचपन से ही बेटों को नारी के सम्मान और आदर की घुट्टी पिलाएं जिससे बेटीयों के प्रति हो रही विभत्स घटनाओं का अन्त हो सके।
सोचिये! यदि बेटी न होगी तो बहन नही होगी, न माँ, न समाज, न देश होगा, न दुनिया होगी, फिर किस चाँद पर जायेंगे और और कौन सी दुनिया बसाएगें ????
मित्रों, सच तो ये है कि, बेटी है तो कल है, वरना विराना पल है। 



Monday, 3 February 2014

जय माँ शारदे


शुक्लां ब्रह्म-विचार-सार-परमामाद्यां जगद्व्यापिनी
विणा पुस्तक-धारिणीम् भयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धीप्रदा शारदाम्।।