दीनदुखियों पर अपना सर्वस्य न्यौछावर करने वाले निराला जी हिन्दी
साहित्य के सिरमौर हैं। सरस्वती के वरद पुत्र माने जाने वाले निराला जी का जन्म
बसंत-पंचमी को हुआ था। उनकी कहानी
संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 अंकित की गई है। वसंत पंचमी पर उनका
जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 से प्रारंभ हुई। सरस्वती के
साधक निराला जी ने हिंदी में माँ
सरस्वती पर जितनी कविताएँ लिखी हैं शायद ही किसी और कवि ने लिखी हो। उन्होंने माँ सरस्वती
को अनेक अनुपम एवं अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। महाप्राण निराला जी का जीवन
निष्कपट था, जैसा वे कहते, वैसा ही उनका आचरण था।
‘वह तोङती‘ एवं ‘पेट-पीठ मिलकर हैं दोनो एक’ जैसी कविताएं उनके अन्तः
स्थल से उपजी कविताएँ थीं। उनके जीवन के अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जब उन्होने समाज के
जरूरतमंद लोगों की सहायता पूरे दिल से की। ऐसे ही कुछ प्रसंग जो उनकी दरिया दिली
को प्रकट करते हैं।
कलकत्ता के सेठ महादेव प्रसाद निराला जी को प्राण प्रण की तरह मानते
थे। एक बार उन्होने जाङे के दिनों में निराला जी के लिए बहुत सुन्दर और शानदार शाल
बनवाई और उसे निराला जी को सप्रेम भेंट की। निराला जी उसे पहन कर बहुत खुश हुए और
सेठ जी की प्रशंसा भी किये। परन्तु एक दिन जब वे सेठ जी के दफ्तर जा रहे थे तो
रास्ते में एक भिखारी मिला जिसके तनपर कोई कपङा नही था। निराला जी ने वो शाल ठंड
से काँपते उस भिखारी को दे दी। जब सेठ जी को पता चला तो वे भिखमंगे के पीछे भागे
किन्तु तबतक वे भिखारी वहाँ से जा चुका था। निराला जी ने सेठ जी से कहा क्यों
परेशान हो रहे हैं? जाने दीजिए उसको, उसका जाङा ठीक से कट जायेगा। सेठ जी निराला जी
से बोले कि “धन्य हैं, महाराज आप !”
निराला जी का मन किसी का कष्ट देखकर उसकी सहायता को बेचेन हो जाता
था। उनकी उदरता का एक और किस्सा है, एकबार निराला जी अपने एक प्रकाशक से तीन सौ
रूपये लेकर इलाहाबाद में अपनी मुँहबोली बहन
महादेवी वर्मा के घर जा रहे थे। रास्ते में निराला जी को एक भिखारन मिली उसने
कहा- बेटा, इस भूखी-प्यासी भिखारन को कुछ
दे दो।
निराला जी उसकी आवाज सुनकर रुक गये और उन्होने उससे पूछा कि यदि मैं
तुम्हे पाँच रूपये दूँ तो कितने दिन भीख नही माँगोगी। बुढिया बोली एक हफ्ते तक। तब
निराला जी ने कहा यदि मैं तुम्हे तीन सौ रूपये दूँ तो कितने दिन भीख नही माँगोगी,
भिखारन बोली क्यों मजाक करते हो बेटा इतने रूपये मुझे कोई क्यों देगा। निराला जी
ने कहा तुमने मुझे बेटा कहा है, निराला की माँ भीख माँगे ये तो मेरे लिए शर्म की
बात है। मैं तुम्हे तीन सौ रूपये दूंगा, तब बुढिया भिखारन बोली मैं जिंदगी भर भीख
नही माँगुगीं उस पैसे से कोई रोजगार करुंगी। ये सुनते ही निराला जी ने अपने सारे
पैसे उसे दे दिये और महादेवी वर्मा जी के यहाँ चले गये जहाँ रिक्शेवाले को पैसा
महादेवी वर्मा जी ने दिये।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि निराला जी के मन में गरीब एवं असहाय
लोगों के लिए करुणा की गंगा बहती थी। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनका संर्पूण जीवन
धन-दौलत की माया मोह से परे समाज के हित में ही व्यतीत हो जाता है। निराला जी ऐसी
ही महान आत्मा थे। 15 अक्टुबर सन् 1961 को करुणा की प्रतिमूर्ती महाप्रांण
सूर्यकांत त्रीपाठी निराला जी भले ही इहलोक छोङकर परलोक सिधार गये। परन्तु अपने
जीवन की सार्थकता को अपनी रचनाओं से एवं अपनी करुण भावना के माध्यम से जन-जन के
ह्रदय में ऐसी अमिट छाप छोङ गये, जिसे जब तक सृष्टी है उन्हे कोई भुला नही सकता।
Nirala ji vastav me mahan vyaktitva ke dhani the. unki rachanaon ke sath hi unke vyaktitva ko bhi hamesha hi samman milta rahega.
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