हम लोग वर्ष में दो बार नवरात्री का पर्व पूरी श्रद्धा और भक्तिभाव से मनाते हैं, जिसमें देवी की आराधना की जाती है। श्री दुर्गा सप्तशती में भगवती की आराधना करते हुए कहा गया है कि,
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्म ताम्।। अर्थात, प्रकृति को देवी का प्रतिकात्मक रूप मानकर उनकी वंदाना की गई है। वहीं एक और श्लोक में कहा गया है कि,
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै ,नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।। अर्थात, माँ सभी प्राणियों में शक्ति रूप में विद्यमान हैं और जो देवी सभी प्राणियों यानि की नारी में माँ बनकर विद्यमान हैं वो आदि शक्ति हैं। इस तरह नारी और प्रकृति दोनो ही जीवन में आस्था का आधार हैं और दोनो ही जगतमाता का रूप हैं।
मानव सभ्यता के कितने वर्ष बीत गये इसका अंदाजा लगाना कठिन है। परंतु आज की आधुनिक सभ्यता वाली इक्कीसवीं शताब्दी के 14वर्ष बीत जाने के बाद भी नारी और प्रकृति दोनो ही शोषण के आघात से व्याकुल हैं। राम का वनवास तो चौदह वर्ष बाद पुरा हो गया किन्तु नारी और प्रकृति को कब तक उपेक्षित होना है इसका कोई आधार आज भी नज़र नही आ रहा है।
आज की शहरीकरण की सभ्यता ने हरे-भरे जंगल को विरान कर दिया है। मानव अपने स्वार्थ में प्राकृतिक संसाधनो का दोहन अंधाधुन कर रहा है, नित नई ओद्योगिक कारखानो की उष्मा से हिमखण्ड पिघल रहे हैं।आज मानव द्वारा प्रकृति से की गई छेडछाड का ही नतीजा है धरती के स्वर्ग कश्मीर में बांण का प्रकोप तथा पिछले वर्ष केदार नाथ की तबाही। आज मानव को विधात बनता देख अमरनाथ भी पृथ्वी पर अवतरित होने से डरते हैं। अपने को सर्वशक्तिमान समझता मानव हरी-भरी वसुंधरा का संहार करके अपने ही पैर पर कुल्हाङी मार रहा है, आधुनिकता के रंग का चश्मा पहने हमारी मानव सभ्यता को भविष्य का अंधकार नजर नही आ रहा है। प्रसिद्ध दार्शनिक मैजिनी ने अपने युग में कहा था कि, यदि मानव सभ्यता व संस्कृति को अपना अस्तित्व बरकरार रखना है तो उसे नारी की श्रेष्ठता सुनिश्चित करनी होगी। उसने अपने निश्कर्ष में ये भी कहा था कि नारी एवं प्रकृति के बिना जीवन संभव नही है।
हमारे शास्त्रों और वेदों में नारी और प्रकृति को शक्ति का स्वरूप माना है।
आज हम लोग बेटी बचाओ और पर्यावरण की सुरक्षा के लिये अनेक माध्यमों से प्रयास कर रहे हैं, परंतु ये भागीरथ प्रयास पूरी तरह से सफल नही हो पा रहा है क्योंकि विडंबना ये है कि, 365 दिन में से केवल 18 दिन ही यानि की शारदिय नवरात्र के नौ दिन एवं क्वार नवरात्र के नौ दिन ही हम लोग प्रकृति और नारी के बाल रूप कन्या को कुछ विशेष पूजते हैं। वर्ष के अधिकांश दिनों में तो हम आस्था, सम्मान और सुरक्षा को महज शब्द मात्र ही समझते हैं।
पाश्चात्य सभ्यताओं की बात करें तो, प्राचीन रोमन साम्राज्य में महिलाओं और प्रकृति को उपभोग का साधन माना जाता था। फ्रांस में स्त्री को आधी आत्मा वाला जीव एवं प्रकृति को जङ मानने का चलन था। प्राचीन चीनवासी महिलाओं में शैतान की आत्मा देखा करते थे, प्रकृति तो बस उनके लिये एक संसाधन थी। इस्लाम के प्रचार से पहले अरबवासी लङकियों को जिंदा दफन कर देते थे। हमारे भारत में ऐसी अमानविय विचारधारा का इतिहास नजर नही आता फिर भी आज आधुनिकता की चादर ओढे भारत में जमीनी हकिकत यही है कि, नारी एवं उसका अस्तित्व कुछ तामसी प्रवृतियों के आतंक से आतंकित है। मानव यदि सुसभ्य होने व सुसंस्कारित होने का दावा करता है तो उसी के बनाये हुए सभ्यता व संस्कृति के मानकों में नारी एवं प्रकृति के शोषण का कोई स्थान नही होना चाहिए।
शरशैया पर लेटे भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठर को सुशासन की शिक्षा देते हुए उपदेश दिया था कि, ' किसी समाज व शासन की सफलता इस तथ्य से समझी जानी चाहिये कि वहाँ नारी एवं प्रकृति कितनी पोषित हैं। उन्हे वहाँ कितना सम्मान मिला है।'
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज जब हम मंगल की यात्रा को सफल बना सकते हैं तो अपनी पृथ्वी को भी मंगलमय वातावरण प्रदान कर सकते। अतः इस नवरात्री के शुभ पर्व पर शक्ति और प्रकृति को जीवन पर्यन्त पोषित और सम्मानित करने का प्रण करें। जिससे भारत की गौरवमय संस्कृति पुनः गौरवान्वित हो जाये।
जय माता दी
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माँ दुर्गा का अनुपम पर्व
जीवन की आपा-धापी में क्या खोया क्या पाया
आज की शहरीकरण की सभ्यता ने हरे-भरे जंगल को विरान कर दिया है। मानव अपने स्वार्थ में प्राकृतिक संसाधनो का दोहन अंधाधुन कर रहा है, नित नई ओद्योगिक कारखानो की उष्मा से हिमखण्ड पिघल रहे हैं।आज मानव द्वारा प्रकृति से की गई छेडछाड का ही नतीजा है धरती के स्वर्ग कश्मीर में बांण का प्रकोप तथा पिछले वर्ष केदार नाथ की तबाही। आज मानव को विधात बनता देख अमरनाथ भी पृथ्वी पर अवतरित होने से डरते हैं। अपने को सर्वशक्तिमान समझता मानव हरी-भरी वसुंधरा का संहार करके अपने ही पैर पर कुल्हाङी मार रहा है, आधुनिकता के रंग का चश्मा पहने हमारी मानव सभ्यता को भविष्य का अंधकार नजर नही आ रहा है। प्रसिद्ध दार्शनिक मैजिनी ने अपने युग में कहा था कि, यदि मानव सभ्यता व संस्कृति को अपना अस्तित्व बरकरार रखना है तो उसे नारी की श्रेष्ठता सुनिश्चित करनी होगी। उसने अपने निश्कर्ष में ये भी कहा था कि नारी एवं प्रकृति के बिना जीवन संभव नही है।
हमारे शास्त्रों और वेदों में नारी और प्रकृति को शक्ति का स्वरूप माना है।
आज हम लोग बेटी बचाओ और पर्यावरण की सुरक्षा के लिये अनेक माध्यमों से प्रयास कर रहे हैं, परंतु ये भागीरथ प्रयास पूरी तरह से सफल नही हो पा रहा है क्योंकि विडंबना ये है कि, 365 दिन में से केवल 18 दिन ही यानि की शारदिय नवरात्र के नौ दिन एवं क्वार नवरात्र के नौ दिन ही हम लोग प्रकृति और नारी के बाल रूप कन्या को कुछ विशेष पूजते हैं। वर्ष के अधिकांश दिनों में तो हम आस्था, सम्मान और सुरक्षा को महज शब्द मात्र ही समझते हैं।
पाश्चात्य सभ्यताओं की बात करें तो, प्राचीन रोमन साम्राज्य में महिलाओं और प्रकृति को उपभोग का साधन माना जाता था। फ्रांस में स्त्री को आधी आत्मा वाला जीव एवं प्रकृति को जङ मानने का चलन था। प्राचीन चीनवासी महिलाओं में शैतान की आत्मा देखा करते थे, प्रकृति तो बस उनके लिये एक संसाधन थी। इस्लाम के प्रचार से पहले अरबवासी लङकियों को जिंदा दफन कर देते थे। हमारे भारत में ऐसी अमानविय विचारधारा का इतिहास नजर नही आता फिर भी आज आधुनिकता की चादर ओढे भारत में जमीनी हकिकत यही है कि, नारी एवं उसका अस्तित्व कुछ तामसी प्रवृतियों के आतंक से आतंकित है। मानव यदि सुसभ्य होने व सुसंस्कारित होने का दावा करता है तो उसी के बनाये हुए सभ्यता व संस्कृति के मानकों में नारी एवं प्रकृति के शोषण का कोई स्थान नही होना चाहिए।
शरशैया पर लेटे भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठर को सुशासन की शिक्षा देते हुए उपदेश दिया था कि, ' किसी समाज व शासन की सफलता इस तथ्य से समझी जानी चाहिये कि वहाँ नारी एवं प्रकृति कितनी पोषित हैं। उन्हे वहाँ कितना सम्मान मिला है।'
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज जब हम मंगल की यात्रा को सफल बना सकते हैं तो अपनी पृथ्वी को भी मंगलमय वातावरण प्रदान कर सकते। अतः इस नवरात्री के शुभ पर्व पर शक्ति और प्रकृति को जीवन पर्यन्त पोषित और सम्मानित करने का प्रण करें। जिससे भारत की गौरवमय संस्कृति पुनः गौरवान्वित हो जाये।
जय माता दी
नोट: दिये गये लिंक पर क्लिक करके उन्हे भी पढें तथा अपने विचार अवश्य व्यक्त करें.
माँ दुर्गा का अनुपम पर्व
जीवन की आपा-धापी में क्या खोया क्या पाया