बचपन की बात करते ही एक ऐसा चेहरा नजर आता है जिसमें मस्ति, खुशी, बेफ्रिक और मासूमियत झलकती थी, जिसे देखकर उनकी भूलों को माफ कर दिया जाता था, किन्तु आज के परिपेक्ष में देखें तो, परिपक्व अपराधों से, कम उम्र के बच्चे इस तरह जुङे हैं कि उनकी मासुमियत नजर ही नही आती।
आज देश में एक बङी बहस चल रही है कि नाबालिग बच्चे अपराध की तरफ क्यों बढ रहे हैं। निर्भया काण्ड हो या हाल ही में दिल्ली में एक ज्वेलर के घर में हुआ अपराध। हत्या जैसा जघन्य अपराध करने में भी आज 14-15 साल के बच्चे हिचकते नही। कहाँ गया वो मासूम बचपन ??
बच्चे हर जमाने में समझदार और चुलबुले होते हैं। आज के बच्चे ज्यादा स्टाइलिश, गुगल अपडेटेड हैं। उनके मन में वर्चुअलदुनिया बसती है। तकनिकी समझदारी का आलम ये है कि 4 से 10 साल के बच्चों के लिए मोबाइल, आईपेड और टेबलेट खिलौना बन गये हैं। गलियों में धमाल मचाने वाला नटखट बचपन, लुका-छिपी, ऊँच-नीच, हरा समंदर नीली तितली वाले खेलों को विडियो गेम का ग्रहंण लग गया है। गेम भी इस प्रकार के कि एक व्यक्ति मशीन गन से लोगों मारते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। जहाँ बचपन तकनिकी के पंख लगाकर उङ रहा है, 14-17 साल के बच्चे ऐसे कई अपराधों में लिप्त पाये गये हैं जो बालिग मानसिकता को परिलाक्षित करता है। वहाँ हमारा कानून अभी भी पुरानी मासुमियत भरे बचपन के भ्रम में ही है। कम उम्र में बढती परिपक्वता कई चिन्ताओं को जन्म दे रही है।
प्रश्न ये उठता है कि बचपन की इस बदलती और बदरंग होती तस्वीर क्या सिर्फ बच्चों द्वारा ही बनाई जा रही??? मेरा मानना है कि, बच्चो की इस बदलती दुनिया के लिए हमारी सामाजिक, आर्थिक और पूंजीवादी व्यवस्था बहुत हद तक जिम्मेदार है।
पूंजीवाद ने लिटिल वंडर को स्मार्ट उपभोक्ता में
बदल दिया है। मॉल संस्कृति के ये बच्चे मेले की भीङ-भाङ से घबराते हैं। उनके लिए
गंगा की घाट पर नहाना अनहाइजेनिक है और वाटरकिंगडम में नहाना प्रतिष्ठा का सूचक
है। पिज्जा, बरगर को खाते हुए देशी समोसे और कचोरी को सोSSS ऑयली कह कर छोङ
देते हैं।
बच्चों का रूठना, फरमाइश करना पहले भी होता था,
तब बच्चों को मनाने का तरिका दूसरा हुआ करता था। बच्चों को अच्छी शिक्षाप्रद कहानी
सुनाकर या घर में कुछ स्पेशल खाने की चीज बनाकर उन्हे मनाते थे इसी में प्यार और
अपनापन होता था। आज हम अभिभावक बच्चे को बहलाने के लिए सेलफोन थमा देते हैं।
भाई-बहन के झगङे को निपटाने की बजाय उन्हे अलग-अलग करके एक को टीवी के आगे बैठा
देते हैं और दूसरे के हाँथ में लेपटॉप थमा देते हैं। प्रतिस्पर्धा वाले बाजारवाद
में चैनल की दुनिया पर क्या विश्वास किया जा सकता है? गिरते नैतिक स्तर
का असर आज के टीवी कार्यक्रमों में देखा जा सकता है किन्तु, माता-पिता को इससे
कोई सरोकार नही कि बच्चा क्या देख रहा है या किस तरह की भाषा सुन रहा है। बाल-
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे परिवेश का असर बच्चे पर अत्यधिक पङता है।
बच्चे काल्पनिक दुनिया में जीते हैं। उसमें आधुनिकता की दुहाई देने वाले पाश्चातय
संस्कृति में रंगे कार्यक्रम आग में घी का काम करते हैं।स्वामी विवेकानंद जी का कथन हैः- “बच्चों पर निवेश करने की सबसे अच्छी चीज है अपना समय और अच्छे संस्कार। ध्यान रखें, एक श्रेष्ठ बालक का निर्माण सौ विद्यालयों को बनाने से बेहतर है।“
आज का बचपन पहले से मुखर और होशियार है। पहले परिवार बच्चों का मूल आधार होते थे। आज की अत्यआधुनिक एवं अपार्टमेंट लाइफ में बच्चों के मन को सींचने और पोषित करने का वक्त माता-पिता के पास नही है। दादा-दादी एंव नाना-नानी की जगह रिक्त है। सब मिलकर न चाहते हुए भी हम सब ने बच्चों की सुहानी दुनिया में काँटे बो दिये हैं। पहले खेल-खेल में एक्सरसाइज हो जाती थी और बच्चों में मिलजुलकर रहने की प्रवृत्ति का विकास होता था। आज एकल खेल बच्चों में अंर्तमुखी भावना को जागृत कर रहे हैं जिससे मासूम बच्चे अवसाद में आत्महत्या तक को अंजाम दे रहे हैं।
नेहरु जी का कथन हैः- “Children are likes buds in a garden and should be carefully and lovingly nurtured, as they are the future of the Nation and citizens tomorrow.”
सहजता बचपन का मूलर्धम है। यह वो भाव है जो बीज से पेङ बनकर समर्थ और मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति का निर्माण करता है। बचपन तो उस कोरी किताब की तरह है जिसपर जो चाहो लिखा जा सकता है। कहते हैं इमारत वही मजबूत होती है जिसकी नींव मजबूत हो, यही नियम बच्चों के विकास पर भी लागू होता है। अच्छे संस्कारों से बनी बचपन की नींव सभ्य और सुसंस्कृति युवा का आधार है।
आज की दुनिया उनकी स्वयं की रचाई दुनिया नही है। ये दिशाहीन दुनिया अनियमित सामाजिक, पारीवारिक, बाजारवादी और राजनैतिक प्रक्रियाओं की उपज है। आज डोरेमॉन, नोबिता, शिनचैन और स्पाइडर मैन देखकर बच्चे एंग्री बर्डस तो बन सकते हैं। परन्तु रविन्द्र नाथ की ‘मिनी’ या ‘चेखव’ नही बन सकते।
डॉ. कलाम का कहना है कि, “जब माता-पिता अपने बच्चे को विभिन्न चरणों में शक्तिशाली बनाते हैं, तो बच्चा जिम्मेदार नागरिक बनता है। जब एक शिक्षक को ज्ञान और अनुभव से शक्ति-संपन्न बनाया जाता है तो छात्र आगे चलकर योग्य युवा बनता है, जो राष्ट्र एवं परिवार के हित में कार्य करता है।“
आज समय की माँग है कि, दोषारोपण करने की बजाय हम सब मिलकर हर बच्चे को उसका बचपन लौटाएं, मिलकर एक बेहतर कल बनायें।
“The Greatest gifts you can
give your children are the roots of responsibility and the wings of
Independence.”
Ye post aapko gahri soch ko saamne rakhta hai. Aapke is post ne sochne ko majbur kar Diya hai.
ReplyDeletesach hai bachchon ka bachapan nahi chhena jaana chahiye....bigadi haalat ke liye hm hii jimmedaar hai aur hame hi ise badlana hoga....yh lekh kaafi prabhavshaali hai.
ReplyDeleteVery true, we must take care of childhood
ReplyDeleteBahut achhche se har pahlu k baare me likha hai. Sach me ham sabhi ki javabdari banti hai badte baal aparaadh k liye aur ispe rok lagane ka prasaas karne k liye bhi.
ReplyDeletevery true
ReplyDelete