इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि मोहनजोदङो और हङप्पा
की सम्पूर्ण नगर योजना एक विकसित नगर सभ्यता थी। शहरों का निर्माण मानव-जाति ने
हजारों साल पहले कर लिया था किन्तु शहर इतने बदल जायेंगे शायद ही किसी ने इतनी
कल्पना की हो। आज महानगरों ने शहरों को और शहरों ने गाँवों को अपने में समेट लिया
है। लोगों की सोच और जीवन शैली आधुनिकता के रंग में रंग चुकी है। प्रेमचन्द, शुक्ल
और भारतेन्दु की काशी या निराला और महादेवी वर्मा का इलाहबाद सब कुछ बदल गया है।
ताजमहल की पहचान लिए आगरा शहर आज ताज-एक्सप्रेस-वे से मशहूर हो रहा है। आज छोटे से
छोटे शहर ने भी अपनी पहचान बना ली है। बढती आबादी और घटती जमीनों ने गगन चुंबी
इमारतों को घरौंदा बना दिया है।असली
भारत गांवों में बसता है ये कहानियों के किस्से रह गये। गांधी की संकल्पना को
आधुनिकता की नजर लग गई।
आधुनिक आविष्कारों ने वसुधैव-कुटुंबकम की परिभाषा
ही बदल दी है। पलक झपकते लोगों से फेस टू फेस बात करने की खुशी तो है पर साथ बैठकर
खाना कब खाये, ये याद करने के लिए माथे पर सिकन पङ जाती है। आज समिकरण थोङे बदल
गये हैं। गाँवों का भारत तो पंत जी की कविताओं में सिमट गया क्योंकि अब गाँव भी
शहरों में बसते हैं। टेलीविजन, सैकङों चैनलों के घोङे पर सवार कब गाँवों में पहुँच
गया पता ही नही चला। मोबाइल इस कदर सांसो में बस गया कि इसके बिना जीवन आज असंभव
सा प्रतीत हो रहा है।
भारतीय शहर के सामाजिक परिवर्तन किसी प्रयोगशाला
से कम नहीं हैं। जातिवाद, स्त्री-पुरूष समानता, वैश्विक स्वतंत्रता और वैचारिक
स्वतंत्रता नये शहरों को नया आयाम दे रहीं हैं। कभी क्रांति के लिए स्वतः ही जुटने
वाली भीङ अब राजनेताओं के पैसे पर इक्कठी हो रही है। ट्रैफिक जाम का आलम तो क्या
कहिए! एक घंटे का सफर तीन घंटे में पूरा हो जाए अपनी खुश नसीबी समझें। अगर फिल्मों
की तरफ देखें तो पहले डॉक्टर हो या इंजीनीयर सब साइकिल चलाते दिख जाते थे विकास ने
साइकिल में मोटर लगा दी और बन गई हवा से बातें करती मोटर साइकिल। अब तो कारों का
कारवां इस कदर छा गया कि ऑफिस टाइम यानि सुबह 9-10 का समय कारें भी चींटी की चाल
से चलती नजर आती हैं। मंजिल एक पर यात्रा एकांकी ये हमारे विकास की पहचान है। घरों
में लोगों से ज्यादा वाहन हैं तो जाहिर सी बात है पैट्रोल की किमत अधिक होगी ही
होगी। मोहन जोदङो और हङप्पा के शहर पुराने जरूर हैं किन्तु वहाँ उन्नत मानव जाति
निवास करती थी। आज का आलम तो ये है कि “हर तरफ हर जगह, बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी”। कुछ समय पहले हम
यूरोपिय दुनिया को भौतिक चमक में खोई दुनिया कहते थे और अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता
पर गर्व करते थे।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज हम उसी भौतिक
चमक-दमक के पीछे भाग रहे हैं। सिकुङते समुंद्र और विलुप्त होते जंगल, तो कहीं कस्बों के
शहरीकरण ने सामाजिक ढाँचे पर अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। वो दिन दूर नही जब
यात्राओं में दिखने वाले लहलहाते खेत और खुली जमीन की जगह कंक्रीट की आकाश को छूती
इमारतें नजर आयेंगी। प्राकृतिक सुन्दरता केवल कवियों की कविताओं में ही दिखाई
देंगी। किसीने सच ही कहा हैः-
गाँव से शहर को आये
बीत गये हैं कई वर्ष
बीत गये हैं कई वर्ष
पर आज तक ना मिल सका
गाँव जैसा स्पर्श।
गाँव जैसा स्पर्श।
काश!
लौट पाना होता मुमकिन
तो दौड़ आता गाँव में
नींद आती सालों बाद
पीपल की छाँव में।
तो दौड़ आता गाँव में
नींद आती सालों बाद
पीपल की छाँव में।