Friday, 26 July 2013

कल्पनाओं से परे नये शहर


इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि मोहनजोदङो और हङप्पा की सम्पूर्ण नगर योजना एक विकसित नगर सभ्यता थी। शहरों का निर्माण मानव-जाति ने हजारों साल पहले कर लिया था किन्तु शहर इतने बदल जायेंगे शायद ही किसी ने इतनी कल्पना की हो। आज महानगरों ने शहरों को और शहरों ने गाँवों को अपने में समेट लिया है। लोगों की सोच और जीवन शैली आधुनिकता के रंग में रंग चुकी है। प्रेमचन्द, शुक्ल और भारतेन्दु की काशी या निराला और महादेवी वर्मा का इलाहबाद सब कुछ बदल गया है। ताजमहल की पहचान लिए आगरा शहर आज ताज-एक्सप्रेस-वे से मशहूर हो रहा है। आज छोटे से छोटे शहर ने भी अपनी पहचान बना ली है। बढती आबादी और घटती जमीनों ने गगन चुंबी इमारतों को घरौंदा बना दिया है।असली भारत गांवों में बसता है ये कहानियों के किस्से रह गये। गांधी की संकल्पना को आधुनिकता की नजर लग गई।
आधुनिक आविष्कारों ने वसुधैव-कुटुंबकम की परिभाषा ही बदल दी है। पलक झपकते लोगों से फेस टू फेस बात करने की खुशी तो है पर साथ बैठकर खाना कब खाये, ये याद करने के लिए माथे पर सिकन पङ जाती है। आज समिकरण थोङे बदल गये हैं। गाँवों का भारत तो पंत जी की कविताओं में सिमट गया क्योंकि अब गाँव भी शहरों में बसते हैं। टेलीविजन, सैकङों चैनलों के घोङे पर सवार कब गाँवों में पहुँच गया पता ही नही चला। मोबाइल इस कदर सांसो में बस गया कि इसके बिना जीवन आज असंभव सा प्रतीत हो रहा है।
भारतीय शहर के सामाजिक परिवर्तन किसी प्रयोगशाला से कम नहीं हैं। जातिवाद, स्त्री-पुरूष समानता, वैश्विक स्वतंत्रता और वैचारिक स्वतंत्रता नये शहरों को नया आयाम दे रहीं हैं। कभी क्रांति के लिए स्वतः ही जुटने वाली भीङ अब राजनेताओं के पैसे पर इक्कठी हो रही है। ट्रैफिक जाम का आलम तो क्या कहिए! एक घंटे का सफर तीन घंटे में पूरा हो जाए अपनी खुश नसीबी समझें। अगर फिल्मों की तरफ देखें तो पहले डॉक्टर हो या इंजीनीयर सब साइकिल चलाते दिख जाते थे विकास ने साइकिल में मोटर लगा दी और बन गई हवा से बातें करती मोटर साइकिल। अब तो कारों का कारवां इस कदर छा गया कि ऑफिस टाइम यानि सुबह 9-10 का समय कारें भी चींटी की चाल से चलती नजर आती हैं। मंजिल एक पर यात्रा एकांकी ये हमारे विकास की पहचान है। घरों में लोगों से ज्यादा वाहन हैं तो जाहिर सी बात है पैट्रोल की किमत अधिक होगी ही होगी। मोहन जोदङो और हङप्पा के शहर पुराने जरूर हैं किन्तु वहाँ उन्नत मानव जाति निवास करती थी। आज का आलम तो ये है कि हर तरफ हर जगह, बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी। कुछ समय पहले हम यूरोपिय दुनिया को भौतिक चमक में खोई दुनिया कहते थे और अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता पर गर्व करते थे।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज हम उसी भौतिक चमक-दमक के पीछे भाग रहे हैं। सिकुङते समुंद्र और विलुप्त होते जंगल, तो कहीं कस्बों के शहरीकरण ने सामाजिक ढाँचे पर अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। वो दिन दूर नही जब यात्राओं में दिखने वाले लहलहाते खेत और खुली जमीन की जगह कंक्रीट की आकाश को छूती इमारतें नजर आयेंगी। प्राकृतिक सुन्दरता केवल कवियों की कविताओं में ही दिखाई देंगी। किसीने सच ही कहा हैः-
गाँव से शहर को आये
बीत गये हैं कई वर्ष
पर आज तक ना मिल सका
गाँव जैसा स्पर्श।
काश! लौट पाना होता मुमकिन
तो दौड़ आता गाँव में
नींद आती सालों बाद
पीपल की छाँव में।


        

Sunday, 21 July 2013

गुरु पर्व


आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पर्व यानी गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है। व्यक्ति के विकास में गुरु का अत्यधिक महत्व है। प्रकृति भी इस पर्व को बहुत उल्लास से मनाती है। चारों तरफ व्याप्त हरियाली ऐसी प्रतीत होती है मानो वो अपने गुरु को नमन कर रही हो। नाचते हुए मोर, कल-कल करती नदियाँ, हरे-भरे पेङ-पौधे इस पर्व को और भी गरिमामय बना देते हैं।
पुरातन काल में बच्चे गुरु कुल में पढ़ने जाते थे और शिक्षा की शुरुआत गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर अपने गुरु की पूजा करके करते थे। वहाँ गुरु की छत्रछाया में सभी शिष्य किताबी ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान भी सीखते थे। ये ज्ञान उन्हें हर विकट परिस्थिति में संयम से काम करने को प्रेरित करता था। भगवान राम को भी गुरुकुल में जाकर रहना पड़ा था, जबकि राजा दशरथ का पुत्र मोह उन्हें अपने से दूर नहीं करना चाह रहा था। परन्तु गुरु ने उन्हें समझाया कि एक सफल राजा बनने के लिए युवराज राम को लगभग सभी स्थितियों को व्यवहारिक ज्ञान से समझना चाहिए। विष्णु शर्मा की पंच तंत्र की कहानियों से भी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का पता चलता है कि किस तरह सभी शिष्यों को दैनिक जीवन के सभी कार्य स्वयं करने पढते थे। इस तरह वो जीवन के सभी कार्यों के महत्व को समझ सकते थे।
आज के परिवेश में हम गुरु कुल का मतलब हॉस्टल से लगा सकते हैं वो भी सर्व सुविधा युक्त, जहाँ रहते हुए जीवन में आई मुश्किलों की आँधी को झेल नहीं पाते। जिससे जरा सी नाकामयाबी पर आत्महत्या जैसे कृत्य को अंजाम दे देते हैं। विद्यालयों में आज जो किताबी ज्ञान हम ले रहे हैं उस आधार पर कई बार Table work में तो कामयाब हो जाते हैं परन्तु व्यवहारिक दुनिया में सफल नहीं हो पाते। धैर्य, साहस, स्वविवेक और संयम जैसे महत्व पूर्ण अंग को सिर्फ किताबों से नहीं सीखा जा सकता उसे वही प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा से ही प्राप्त कर सकते हैं। कहते हैं सोना आग में ही तप कर कुंदन बनता है। उसी प्रकार एक सफल व्यक्ति जीवन के सभी पहलुओं को व्यवहारिक (Practical) ज्ञान के माध्यम से ही कुंदन बन सकता है। जिसे गुरु के मार्गदर्शन में ही सम्पूर्ण किया जा सकता है क्योंकि गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढी गढी काढे खोट, अंतर हाँथ पसारी के बाहर मारी चोट।।अर्थात जिस प्रकार कुम्हार, घड़ा सुंदर बनाते समय उसके अंदर हाँथ फैलाकर उसे चिकना बनाता है और ऊपर से उस पर चोट भी करता है उसी तरह गुरु भी शिष्य के उत्कृष्ट जीवन हेतु उसे अपने प्यार और आर्शिवाद का सहारा भी देते हैं और जीवन की कठिनाइयों का सामना करवाने में कठोर भी बन जाते हैं। सृष्टि में गुरु की महिमा अद्वितीय है हमारे सभी संत महात्माओं एवं बुद्धिजीवियों ने गुरु के महत्व को सर्वोपरि माना है। कहते हैं गुरु में ही ईश्वर का वास होता है। जिसमें कबीर की साखियों में गुरु का विशेष स्थान है। विकास के लिए ज्ञान का होना जरूरी है और ज्ञान गुरु की कृपा से ही संभव है। इस पावन पर्व पर सभी गुरुओं का वंदन करते हैं और नमन करते हैं।
     
गुरु सूरज का तेज है, गुरु सद्गुण की खान।
उनके सद्-उपदेश से, ले निज को पहचान॥



Monday, 15 July 2013

जीवन की आपा-धापी में क्या खोया क्या पाया

समय का चक्र अपनी निर्बाध गति से चलता रहता है। आज जो बालक हैं उसे वह कल युवा बना देती है, तो परसों वृद्ध बना देती है। नियति का यही स्वभाव है किन्तु जीवन की आपा-धापी में हम ये भूल जाते हैं कि जीवन का चक्र सभी को पूरा करना है।
आज विज्ञान के आविष्कार ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। कोई कहीं भी जा सकता है। किसी भी समय हजारों किलोमीटर बैठे व्यक्ति से इस तरह बात कर सकता है जैसे वो सामने बैठा हो। ये सारी आधुनिकता महज भौतिक साधनों को ही परिलाक्षित करती हैं। आज जीवन सिर्फ काम और चिन्ता है। अपनेपन का मतलब है टेलीफोन पर सुनाई देनी वाली आवाज और जुङाव का आशय है इंटरनेट पर दिये गये संदेश। ऐसे में उन बुजुर्ग माता-पिता को अकेलेपन का एहसास लाज़मी है जिन्होने ऐसी आधुनिकता के साथ अपने बच्चों को नहीं पाला था। बच्चे के बढते जीवन के हर पहले कदम में वो उनके साथ होते थे। उनका साथ और प्रोत्साहन बच्चे के साथ सदैव रहता था। हर विकट परिस्थिती में वे वटवृक्ष की छाया की तरह खङे रहे। आज समय की इस बेला में जब उन्हे साथ की दरकार है तो अपनेपन का एहसास आधुनिकता की आँधी में कहीं बह गया है। आज देखभाल का मतलब है नर्स जिसे उनकी सेवा में रखा जाता है। जिम्मेदारी का मतलब है बैंकों में जमा पैसे। बढती उम्र अपने साथ कई समस्याएं लेकर आती हैं उसपर अपनों की उपेक्षा जले पर नमक का काम करती है। बच्चों के भी अपने-अपने लॉजिक हैं साथ न रखने के। कोई विदेश में है तो किसे के पास घर छोटा है।

 यदि दो दशक पहले की बात करें तो तब शायद ही बुजूर्गों की देखभाल कोई समस्या नही थी। अत्यंत बुढे और युवा लोगों के लिए संयुक्त परिवार अच्छे होते थे। आज संयुक्त परिवार, आधुनिक जीवनयापन की भेंट चढ गया है। बाकी की कसर प्रवासी के रूप में जीवन बिताने की मजबूरी ने पूरी कर दी है। आज बुजुर्ग की देखरेख युवा पीढी के लिए एक मसला बन गया है। दफ्तर की कैंटीन से लेकर साइबर स्पेस तक हर कहीं यही बात करते हैं कि माता-पिता की देखभाल कैसे करें क्योंकि जिन बङें-बङे संस्थानों से वे प्रबंधन की डिग्री लेकर विकास की और बढ रहे हैं वहाँ सिर्फ कंपनी के प्रबंधन को ही सिखाया जाता है। परिवार के साथ अपने काम को कैसे मैनेज करें ये तालमेल बैठाने में वो कम सफल हो रहे हैं।

मातृ देवोः भवः, पितृ देवोः भवः की भावना और बुजुर्गों की देखभाल के लिए प्रसिद्ध देश भारत में आज बुजुर्गों पर अपराधों के आँकङे आसमान छू रहे हैं। पूलीस रेकार्ड खुलासा करते हैं कि पहले की अपेक्षा सुरक्षा माँगने वाले अभिभावकों की संख्या पहले से तीन गुना बढी है। उन्हे गुंडो, बिल्डरों, यहाँ तक की अपने बच्चों से भी डर लगता है। ऐसे में कुछ  सकारात्मक प्रयास भी लोगों द्वारा किये जा रहे हैं। हैदराबाद में रोज सुबह पुलिस कांस्टेबल अख़बार हाकरों के साथ फेरे लगाते हैं ताकी बुजुर्गों पर नजर रख सकें। कुछ विकसित देश बुजुर्गों के लिए काफी फिक्रमंद हैं। कनाडा में युवाओं को बुजुर्ग की देखभाल करने के लिये प्रोत्साहन स्वरूप कह गया है कि आप अपने अभिभावक की देखभाल करें और कर में छूट प्राप्त करें और छः सप्ताह अनुकंपा अवकाश भी मिल सकता है।

भारत में भी कई कानून और उनके संरक्षण के लिये प्रयास किये जा रहे हैं देश में बुजुर्गो की समुचित देखभाल न होने की घटनाओं से चिंतित संसद ने इससे संबंधित बिल को पास कर उन लोगों पर कानून की लगाम कसने की कोशिश की है, जो अपने ही माता-पिता या घर के बड़े-बूढ़े को बेसहारा छोड़ देते हैं किन्तु ये प्रयास व्यवहारिक दुनिया में पूरी तरह कारगर नहीं हो रहे हैं। आत्मियता से परिपूर्ण सामाजिक भावना से बुजुर्गों के लिए किये प्रयास जरूर सफलता दे सकते हैं।। कहावत है कि "बेटे ही बुढापे की लाठी" होते हैं। इस बात को नकारते हुए कुछ बहु-बेटियाँ उनके साथ हाँथ में हाँथ मिलाकर खङीं हो रहीं हैं। इसको अंजाम दे रही है जयपुर की संस्था "इंडियन जेरोंटोलॉजिकल एसोसिएशन"। बुजुर्गों की देखभाल करने वाली इन महिलाओं को बाकायदा "फैमिली केयर गिवर्स" का टाइटल दिया जाता है। चयनित महिलाओं को बुजुर्गों की छोटी-बड़ी परेशानियों को बारीकी से समझने वाले स्वास्थ्य विशेषज्ञों एवं दक्ष लोगों द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है। इस कॉन्सेप्ट की ना केवल देश स्तर पर बल्कि कनाडा में भी पुरजोर तारीफ की गई।

कई बार ऐसा भी होता है कि पुरानी पीढी आज की युवा पीढी से तालमेल नही बैठा पाती और वे स्वेच्छा से वृद्ध आश्रम चली जाती है। आज वक्त की माँग है पुरानी पीढी को नई नई मान्यताओं को भी स्वीकार करना चाहीए क्योंकि नई पीढी को भी पता है कि आज का विकसित वृक्ष रुपी युवा जङों से दूर रह कर कैसे हरा-भरा रह सकता है।

आज की युवा पीढी सभी के सपने साकार कर सकती है। केवल आवश्यकता है इस तूफानी नदी को सही दिशा देने की जो  अपने अभिभावकों के आर्शिवाद से ही संभव है। अतः माता-पिता को भगवान मानने वाले भारत में हम सभी को अपने बुजुर्गो के साथ अपनेपन और प्यार का नाता रखना होगा तभी हम स्वच्छ और महान राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।

Friday, 5 July 2013

श्रद्धाजंली सुमन

उत्तराखण्ड में बचाव कार्य लगभग समाप्त हो चुका है किन्तु पर्वतिय सुनामी से आई विपत्ति का मंजर इतना दुखद है कि उसे भुलाया नहीं जा सकता। त्रासदी के कई कारण बताये जा रहे हैं। राजनैतिक बयान भी किसी आपदा से कम नहीं हैं। लगभग तीन साल में उत्तराखण्ड को पुनः व्यवस्थित करने का दावा भी हो रहा है। भौतिक संसाधन तो फिर भी व्यवस्थित हो जायेगा परन्तु अपनो से बिछुङे अनगिनत परिवारों की भरपाई असंभव है।
  
प्राकृतिक आपदा के कहर को हमारे सामजिक रीति-रिवाज और भी दुखद बना देते हैं। एक तरफ तो अपनों से इस तरह बिछुङे कि उनका अंतिम दर्शन भी न हो सका तो दूसरी तरफ कुछ परिवारों को सामाजिक कुरीतियों के दबाव में मृत्युभोज जैसे रीति-रिवाजों को मानना पङ रहा है। कितने परिवारों पर से घर के मुखिया का साया ही सैलाब में बह गया किन्तु समाज को इससे कोई सरोकार नहीं होता। हमारे घर के पास ही एक परिवार के माता-पिता दर्शन के लिये गये थे किन्तु प्रलय के बहाव में कहाँ हैं परिवार को पता नहीं चल सका। दस दिनों के उपरान्त सामाजिक रीतियों का पालन करते हुए उनका अंतिम संस्कार करना पङा। आत्मा की शान्ति के लिये हमारे धार्मिक संस्कार तो फिर भी जायज है परन्तु रीति-रिवाज के नाम पर पूरे समाज के लिये मृत्यु-भोज का आयोजन किसी अमानवीय त्रासदी से कम नहीं है। धर्म के नाम पर ऐसी रीतियाँ प्राकृतिक आपदा से भी भयानक होती हैं। ऐसे नाजुक वक्त में काश, मानवीय संवेदनाएं इस अमानवीय आपदा को रोकने में सक्षम हों।
   
असमय आए सैलाब में दिवंगत हुए अपनों को नम आँखों से श्रद्धाजंली सुमन अर्पित करते हैं, ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। जिन परिवारों पर ये आपदा आई है ईश्वर उन्हे इस दुःख से उबरने की शक्ति प्रदान करे। 

ऊँ शान्ति