इस देश की माटी ने जिन रत्नों को जन्म दिया है उनमें से लाल बहादुर शास्त्री जी एक हैं। उनके जीवन से हमें प्रेणना मिलती है कि, साधारण व्यक्ति होने के बावजूद हम अपने परिश्रम और ज्ञान से असाधारण व्यक्तित्व और युगपुरुष भी बन सकते हैं। 1921 में गाँधी जी के आह्वान पर देश हित के लिए खुद को समर्पित करने वाले शास्त्री जी साधारण परिवार से थे। 17 वर्ष की आयु में ही शिक्षा छोङकर राष्ट्रीय आंदोलन से जुङ गये। हालांकि उन्होने राष्ट्रीय विचारधाराओं वाले छात्रों के लिये स्थापित काशी विद्यापीठ में डॉ. भगवानदास , आचार्य कृपलानी, डॉ. सम्पूर्णनंद तथा श्री प्रकाश जैसे शिक्षकों के नेतृत्व में आगे की पढाई की।
आजादी के बाद उन्होने प्रधानमंत्री के रूप में देश को सैन्य गौरव का तोहफा दिया। हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह दिखाई। शास्त्री जी सीमा पर खङे प्रहरियों के प्रति अत्यधिक सम्मान रखते थे। उन्होने जय जवान जय किसान का नारा दिया। ऐसी महान हस्ती के जन्मदिन पर उनको नमन करते हुए उनका एक प्रसंग सभी पाठकों से साझा कर रहे हैं........
बात 1965 की है जब पाकिस्तान ने ये सोचकर भारत पर हमला किया था कि, 1962 की चीन युद्ध के बाद भारत कमजोर हो गया होगा। परंतु शास्त्री जी के नेतृत्व ने पाकिस्तान के मनसूबे पर पानी फेर दिया। पाकिस्तान को करारी शिकस्त का सामना करना पङा। पाकिस्तान के तात्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान को शास्त्री जी के बुलंद हौसले का अंदाजा नही था परिणाम ये हुआ कि पाकिस्तानी हुकमरानों को भारत के आगे गिङगिङाना पङा था। 1964 में शास्त्री जी जब राष्ट्रमंडल प्रमुखों की बैठक में लंदन गये तो रास्ते में ईधन भरने के लिए उनका विमान करांची में उतरा, जहाँ अयूब खान ने उनका स्वागत किया। शास्त्री जी को देखकर अयूबखान ने अपने एक साथी से पूछा कि, क्या यही शख्स नेहरु जी का वारिस है। ये घटना बहुत ही महत्वपूर्ण थी क्योंकि अयूब खान ने 1965 में कश्मीर को छीनने की योजना बनाई थी। उसने कश्मीर में पहले घुसपैठिये भेजे और पिछे-पिछे पाक सेना भी परंतु शास्त्री जी की दूरदर्शिता ने पंजाब में दूसरा मोर्चा खोल दिया। अपने अहम शहर लाहौर का पतन देखकर अयूब खान को कश्मीर से सेना हटानी पङी। इस युद्ध से शास्त्री जी की छवी विश्व मंच पर एक शसक्त नेता के रूप में उभरी जो हर विषम परिस्थिती में भी राष्ट्र्र गौरव बचाने में सक्षम था। पाकिस्तान को शांति समझौते की जरूरत पङी और उसने रूस से मध्यसता के लिए सहायता मांगी। 1966 में सोवियत संघ के आमंत्रण पर शास्त्री जी समझौते के लिए ताशकंद गये, वहाँ शास्त्री जी की बुद्धीमता की वजह से पाकिस्तान उन सभी स्थानों को लौटाने के लिए राजी हो गया था जहां-जहां तिरंगा लगा था। परंतु देश का दुर्भाग्य शास्त्री जी का दिल का दौरा पढने के कारण वहीं इंतकाल हो गया। शास्त्री जी का निधन आज भी एक रहस्य है, जो अब तक सुलझ न सका।
सादगी और ईमानदरी का पर्याय थे शास्त्री जी, वे अपने खर्चे के लिए अपनी तनख्वाह पर ही निर्भर थे। कभी भी अपने पद का उपयोग स्वहित के लिये नही किये। इतिहास के पन्नों में स्वर्णअक्षर से लिखा शास्त्री जी का व्यक्तित्व आज भी अमर है.......
लालों में वो लाल बहादुर
भारत माता का प्यारा था,
नहीं युद्ध से घबराता था,
विश्व शांती का दिवाना था,
इस शांति की बेदी पर
उसे ज्ञात था मर मिट जाना