Monday, 30 December 2013

नवीन विचारों के साथ नववर्ष का अभिनन्दन करें




सामाजिक, राष्ट्रीय, अंर्तराष्ट्रीय तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयामो में उथल-पुथल मचाता हुआ वर्ष 2013 कुछ अच्छी तो कुछ अमानवीय घटनाओं से व्यथित कर गया। सामाजिक दंगे तो कहीं भ्रष्टाचार जैसी आसुरी प्रवृत्तियों ने अनेकता में एकता की नींव को चोट पहुँचाई। तो कहीं आँगन और गलियारे में हँसती खेलती छोटी-छोटी लङकियाँ बलात्कार की शिकार हुई। ये घटनायें सभ्य समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नही हैं।

अमानवीय आँधियों के बावजूद, वर्ष 2013 के कुहांसे एवं तमस् के बीच में कुछ ऐसी सुखद घटनाएं घटी, जो 2014 को सुखद बनाने के लिए एक सुखद प्रयास है। अग्नी 5 का सफलतम परिक्षण, लोकपाल बिल का पारित होना और देश की राजधानी में नई सोच की सुबह के साथ एक अनोखी सरकार की पहल।

नया साल आते ही हमसब स्वंय से कुछ न कुछ वादा करते हैं। अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सफलता की कामना लिए बेहतर प्रयास करते है, किन्तु सब लक्ष्य तक नही पहुँच पाते क्योंकि सफलता उन्ही को मिलती है जो हर बाधाओं को दृण संकल्प के साथ पूरी ईमानदारी से पार करते हैं। कहते हैं, गहरी इच्छा हर उपलब्धी का शुरुआती बिन्दु होती है। जिस तरह आग की छोटी लपटें अधिक गर्मी नही दे सकती उसी तरह कमजोर इच्छा भी बङे नतीजे नही दे सकती। जीवन में सफल होने के लिए अपने लक्ष्य के प्रति जुनून होना भी बहुत जरूरी है। दूसरों पर निर्भर रह कर कामयाबी हासिल नही की जा सकती। कामयाबी के लिए थोङी बहुत रिस्क भी लेनी चाहिए।    कहावत भी हैः- No Risk No Gain.

लाला लाजपत राय ने कहा था कि मनुष्य अपने गुणों से आगे बढता है न की दूसरों की कृपा से।“ कहने का आशय ये है कि, सिर्फ सफल होने का प्रयास न करें बल्कि मुल्य आधारित जीवन जीने वाला इंसान बनने का भी प्रयास करें क्योंकि वास्तविक सफलता की ये प्रमुख ईकाइ है।

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुलकलाम कहते हैं कि, असफलता को भूलकर अपनी स्थिती और ऊर्जा को पहचानो। उसी पथ का निर्माण करो, जिसके लिए तुम बने हो, मंजिल तुम्हे जरूर मिलेगी। सपने जरूर देखो और उन सपनों को साकार करने की तीव्र चाह अपने मन में पैदा करो।

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ यही कामना करते हैं कि, सभी के सपने साकार हों, 2014 की सुबह नई रौशनी का प्रकाश करे, जिसकी धूप से भारत में इंसानियत खिल उठे, बेटीयां सुरक्षित हों तथा वसुधैव कुटुम्बकम का शंखनाद हो।

                              नया साल सभी के लिए मंगलमय हो

Tuesday, 24 December 2013

MERRY CHRISTMAS



क्रिसमस की हार्दिक बधाई के साथ यही कामना करते हैं कि प्रभु ईशु का आर्शिवाद सभी के लिए हो। 

Wednesday, 18 December 2013

उच्च कोटी के वक्ता (अटल बिहारी वाजपेयी)



राष्ट्र के उच्चकोटी के वक्ता, जिनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि है। पद्मविभूषण जैसी बङी उपाधी से अलंकृत अटल जी भारत के प्रधानमंत्री पद को दो बार सुशोभित कर चुके हैं। भारत में ही नही अपितु अन्य देशों में भी अनेक लोग उनकी ओजस्वी और तेजस्वी शैली में रची कविताओं और भाषणों के कायल हैं।

व्यंग्य विनोद की फुहारों के साथ उनके भाषण जन-जन में प्रिय हैं। अटल जी अपने भाषणों के माध्यम से जन-जन में देशप्रेम की अलख जगाने वाले राजनीतिज्ञ नही वरन् सच्चे देशभक्त कवि और साहित्यकार हैं। उनकी इंसानियत कवि मन की कायल है। नैतिकता के प्रतीक अटल जी के भाषण से संबन्धित कुछ प्रसंग आप सभी से सांझा(Share) कर रहे हैं।
अटल जी के अनुसार उन्होने अपना पहला भांषण पाँचवी कक्षा में आयोजित एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोला था। जहाँ अटक-अटक कर बोलने की वजह से उनकी बहुत हँसाई हुई थी। दरअसल तब वे अपना भाषंण रट कर गये थे। दृणसंक्लप अटल जी ने तभी ये निश्चय किया कि अब कभी भी रटकर भांषण नही बोलेगें। उनकी दृणसंक्लपता का ही परिणाम है कि उनके भाषणों को सुनने दूर-दूर से लोग आते हैं।

एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन था। अटल जी एवं रघुनाथ सिंह इस प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहे थे। परन्तु ट्रेन लेट हो जाने की वजह से वो लोग, प्रतियोगिता समाप्त होने पर वहाँ पहुँचे। उस समय निर्णायक मंडल निर्णय तैयार कर रहे थे। परेशान हुए बिना अटल जी ने ट्रेन लेट होने की बात अध्यक्ष महोदय को बताई, महोदय ने उन्हे बोलने की इजाजत दे दी। अटल जी ने अपनी परिमार्जित और काव्यात्मक शैली में ऐसा उत्कृष्ट भाषण दिया कि उन्हे सर्वप्रथम वक्ता होने का पुरस्कार प्राप्त हुआ। उस निर्णायक मंडल में डॉ. हरिवंश बच्चन जी भी थे।

अटल जी की वाकपटुता का एक और प्रसंग है। एक बार वाद-विवाद का विषय था, हिन्दी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। अटल जी पक्ष के वक्ता थे और उनका जोङीदार विपक्ष का जिसे हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी का पक्ष लेना था। परन्तु ऐन वक्त पर उनके जोङीदार ने कहा कि, अटल में तो पक्ष में बोलने की तैयारी करके आया हुँ। विचलित हुए बिना अटल जी ने कहा कोई बात नही, आप पक्ष में बोल दीजीए। अटल जी बिना किसी तैयारी के प्रतिपक्ष के विषय पर बोले। उनके आत्मविश्वास का आलम ये था कि वे उस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान से पुरस्कृत हुए।

अपनी अद्भुत भाषा शैली से उन्होने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए जन-मानस में देशभक्ती का शंखनाद किया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि, भाषा शैली पर उनकी मजबूत पकङ है। अपने विचारों को प्रभावशाली शब्दो में अभिव्यक्त करने की प्रतिभा के धनी अटल जी को उनके आने वाले जन्मदिन (25 दिसम्बर) पर अभिनंदन और वंदन करते हैं। ईश्वर से अटल जी की स्वस्थ दीर्घायु की कामना करते हैं।

नोटः- अटल जी से जुङे और भी प्रसंग को Comment के माध्यम से हम सभी से Share करें।  
अटल जी से संबन्धित पूर्व की पोस्ट पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें। 
  

Sunday, 8 December 2013

बदलता बचपन जिम्मेदार कौन????








बचपन की बात करते ही एक ऐसा चेहरा नजर आता है जिसमें मस्ति, खुशी, बेफ्रिक और मासूमियत झलकती थी, जिसे देखकर उनकी भूलों को माफ कर दिया जाता था, किन्तु आज के परिपेक्ष में देखें तो, परिपक्व अपराधों से, कम उम्र के बच्चे इस तरह जुङे हैं कि उनकी मासुमियत नजर ही नही आती। 

आज देश में एक बङी बहस चल रही है कि नाबालिग बच्चे अपराध की तरफ क्यों बढ रहे हैं। निर्भया काण्ड हो या हाल ही में दिल्ली में एक ज्वेलर के घर में हुआ अपराध। हत्या जैसा जघन्य अपराध करने में भी आज 14-15 साल के बच्चे हिचकते नही। कहाँ गया वो मासूम बचपन ??
आर्थिक सामाजिक स्थितियों के कारण सङक पर रह रहे लावारिस बच्चे अशिक्षा एवं उचित मार्गदर्शन के अभाव में अपराधी प्रवृत्तियों के चंगुल में फंस जाते हैं। गरीबी और भूखमरी उन्हे अपराध की दुनिया का रास्ता दिखाती है। परन्तु आज स्थिती इतनी भयानक हो गई है कि शिक्षित और सभ्य कहे परिवारों के बच्चों के लिए अपराध खेल बन गया है और वे अपराधिक प्रवृत्ति के नशे में मस्त हैं। भ्रष्टव्यवस्था के कारण रसूखदारों के बच्चों को सजा का भी खौफ नही है। कई बार अभिभावकों द्वारा छोटी-छोटी गलतियाँ नजर अंदाज कर दी जाती है, यही छोटी-छोटी गलतियाँ सूरसा के मुहँ की तरह बङी हो जाती है और अभिभावकों को पछतावे के सिवाय कछ भी हाँथ नही लगता।

बच्चे हर जमाने में समझदार और चुलबुले होते हैं। आज के बच्चे ज्यादा स्टाइलिश, गुगल अपडेटेड हैं। उनके मन में वर्चुअलदुनिया बसती है। तकनिकी समझदारी का आलम ये है कि 4 से 10 साल के बच्चों के लिए मोबाइल, आईपेड और टेबलेट खिलौना बन गये हैं। गलियों में धमाल मचाने वाला नटखट बचपन, लुका-छिपी, ऊँच-नीच, हरा समंदर नीली तितली वाले खेलों को विडियो गेम का ग्रहंण लग गया है। गेम भी इस प्रकार के कि एक व्यक्ति मशीन गन से लोगों मारते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। जहाँ बचपन तकनिकी के पंख लगाकर उङ रहा है, 14-17 साल के बच्चे ऐसे कई अपराधों में लिप्त पाये गये हैं जो बालिग मानसिकता को परिलाक्षित करता है। वहाँ हमारा कानून अभी भी पुरानी मासुमियत भरे बचपन के भ्रम में ही है। कम उम्र में बढती परिपक्वता कई चिन्ताओं को जन्म दे रही है।  


प्रश्न ये उठता है कि बचपन की इस बदलती और बदरंग होती तस्वीर क्या सिर्फ बच्चों द्वारा ही बनाई जा रही??? मेरा मानना है कि, बच्चो की इस बदलती दुनिया के लिए हमारी सामाजिक, आर्थिक और पूंजीवादी व्यवस्था बहुत हद तक जिम्मेदार है।



पूंजीवाद ने लिटिल वंडर को स्मार्ट उपभोक्ता में बदल दिया है। मॉल संस्कृति के ये बच्चे मेले की भीङ-भाङ से घबराते हैं। उनके लिए गंगा की घाट पर नहाना अनहाइजेनिक है और वाटरकिंगडम में नहाना प्रतिष्ठा का सूचक है। पिज्जा, बरगर को खाते हुए देशी समोसे और कचोरी को सोSSS ऑयली कह कर छोङ देते हैं।   
बच्चों का रूठना, फरमाइश करना पहले भी होता था, तब बच्चों को मनाने का तरिका दूसरा हुआ करता था। बच्चों को अच्छी शिक्षाप्रद कहानी सुनाकर या घर में कुछ स्पेशल खाने की चीज बनाकर उन्हे मनाते थे इसी में प्यार और अपनापन होता था। आज हम अभिभावक बच्चे को बहलाने के लिए सेलफोन थमा देते हैं। भाई-बहन के झगङे को निपटाने की बजाय उन्हे अलग-अलग करके एक को टीवी के आगे बैठा देते हैं और दूसरे के हाँथ में लेपटॉप थमा देते हैं। प्रतिस्पर्धा वाले बाजारवाद में चैनल की दुनिया पर क्या विश्वास किया जा सकता है? गिरते नैतिक स्तर का असर आज के टीवी कार्यक्रमों में देखा जा सकता है किन्तु, माता-पिता को इससे कोई सरोकार नही कि बच्चा क्या देख रहा है या किस तरह की भाषा सुन रहा है। बाल- मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे परिवेश का असर बच्चे पर अत्यधिक पङता है। बच्चे काल्पनिक दुनिया में जीते हैं। उसमें आधुनिकता की दुहाई देने वाले पाश्चातय संस्कृति में रंगे कार्यक्रम आग में घी का काम करते हैं।

स्वामी विवेकानंद जी का कथन हैः- बच्चों पर निवेश करने की सबसे अच्छी चीज है अपना समय और अच्छे संस्कार। ध्यान रखें, एक श्रेष्ठ बालक का निर्माण सौ विद्यालयों को बनाने से बेहतर है।


आज का बचपन पहले से मुखर और होशियार है। पहले परिवार बच्चों का मूल आधार होते थे। आज की अत्यआधुनिक एवं अपार्टमेंट लाइफ में बच्चों के मन को सींचने और पोषित करने का वक्त माता-पिता के पास नही है। दादा-दादी एंव नाना-नानी की जगह रिक्त है। सब मिलकर न चाहते हुए भी हम सब ने बच्चों की सुहानी दुनिया में काँटे बो दिये हैं। पहले खेल-खेल में एक्सरसाइज हो जाती थी और बच्चों में मिलजुलकर रहने की प्रवृत्ति का विकास होता था। आज एकल खेल बच्चों में अंर्तमुखी भावना को जागृत कर रहे हैं जिससे मासूम बच्चे अवसाद में आत्महत्या तक को अंजाम दे रहे हैं।


नेहरु जी का कथन हैः- “Children are likes buds in a garden and should be carefully and lovingly nurtured, as they are the future of the Nation and citizens tomorrow.”


सहजता बचपन का मूलर्धम है। यह वो भाव है जो बीज से पेङ बनकर समर्थ और मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति का निर्माण करता है। बचपन तो उस कोरी किताब की तरह है जिसपर जो चाहो लिखा जा सकता है। कहते हैं इमारत वही मजबूत होती है जिसकी नींव मजबूत हो, यही नियम बच्चों के विकास पर भी लागू होता है। अच्छे संस्कारों से बनी बचपन की नींव सभ्य और सुसंस्कृति युवा का आधार है।


आज की दुनिया उनकी स्वयं की रचाई दुनिया नही है। ये दिशाहीन  दुनिया अनियमित सामाजिक, पारीवारिक, बाजारवादी और राजनैतिक प्रक्रियाओं की उपज है। आज डोरेमॉन, नोबिता, शिनचैन और स्पाइडर मैन देखकर बच्चे एंग्री बर्डस तो बन सकते हैं। परन्तु रविन्द्र नाथ की मिनी या चेखव नही बन सकते।  


डॉ. कलाम का कहना है कि, जब माता-पिता अपने बच्चे को विभिन्न चरणों में शक्तिशाली बनाते हैं, तो बच्चा जिम्मेदार नागरिक बनता है। जब एक शिक्षक को ज्ञान और अनुभव से शक्ति-संपन्न बनाया जाता है तो छात्र आगे चलकर योग्य युवा बनता है, जो राष्ट्र एवं परिवार के हित में कार्य करता है।“   


आज समय की माँग है कि, दोषारोपण करने की बजाय हम सब मिलकर हर बच्चे को उसका बचपन लौटाएं, मिलकर एक बेहतर कल बनायें।



“The Greatest gifts you can give your children are the roots of responsibility and the wings of Independence.”  




Tuesday, 3 December 2013

Strong Will Power( दृण इच्छाशक्ति)


वर्तमान का समय प्रतियोगिता का समय है। आज हर कोई एक दूसरे से आगे बढना चाहता है। आगे बढने की प्रवृत्ति विकास के राह को आसान करती है। विद्यार्थी हो या व्यपारी, शोध-कर्ता हो या किसान हर कोई अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रर्दशन करना चाहता है। परन्तु कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुरूप परिणाम को प्राप्त कर लेते हैं, तो कुछ लोग चाहत के अनुसार अपने लक्ष्य को हासिल नही कर पाते। जो अपने कार्य को दृण इच्छा शक्ति से पूर्ण करता है वो लक्ष्य को निःसंदेह हासिल करता है। नेपोलियन बोनापार्ट का कहना था कि, असम्भव शब्द मेरे शब्दकोश में नही है। लाल बहादुर शास्त्री, गाँधी जी, सुभाष चन्द्र बोस, अब्राहम लिंकन, आइंस्टाइन, सरदार पटेल, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम इत्यादि बङे-बङे महापुरूष अपनी दृण इच्छा शक्ति से ही उच्चतम शिखर पर पहुँचे और आज भी सभी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
कहने का आशय ये है कि यदि मनुष्य चाहे तो सब कुछ सम्भव है। उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कार्य को ईमानदारी से और दृण संकल्प के साथ करना चाहिए। मजबूत इच्छा विपरीत परिस्थीति में भी आगे बढने की प्रेरणा देती है। मनुष्य का मन बहुत चंचल होता है, नित नई इच्छाएं जन्म लेती रहती हैं।अतः मन की चंचलता को नियन्त्रित करने के लिए इच्छा शक्ति की दृणता अनिवार्य होती है। गीता में कहा गया है कि, मन को वश में करना कठिन जरूर है पर असम्भव नही है।
दृण इच्छा शक्ति के बल पर ही तेनसिहं और बछेन्द्री पाल जैसे पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट पर विजय पताका फहराई। इंग्लिश चैनल और उत्तरी ध्रुव के बर्फिले सागर को दृण इच्छा शक्ति के बल पर ही पार किया गया। लक्ष्य के प्रति दृण इच्छा रखने वाले संकल्पवान लोग इतिहास की धारा बदल देते हैं।

सफलता के लिए दृण संकल्प का होना आवशयक है किन्तु आज आगे बढना तो हर कोई चाहता है परन्तु विषम परिस्थिती में संघर्ष करना नही चाहता। परिश्रम करने से भागता है और शार्टकट तरीके से सबकुछ पाना चाहता है। लक्ष्य के प्रति दृण इच्छाशक्ति का अभाव इंसान की सबसे बङी कमजोरी है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि, गहरी इच्छा हर उपलब्धि का शुरूवाती बिन्दु होती है, जिस तरह आग की छोटी लपटें अधिक गर्मी नही दे सकती वैसे ही कमजोर इच्छा बङे नतीजे नही दे सकती। मजबूत इरादों से ही लक्ष्य की राह आसान होती है।

गाँधी जी ने कहा था कि, “Strength Dose not come from Physical  capacity. It comes from an Indomitable  will.”

अपनी दृण इच्छाशक्ति और अटूट विश्वास के बल पर भारत की पहली महिला आई. पी. एस. अधिकारी किरण बेदी ने अनेकों कठिनाईयों के बावजूद अपने लछ्य को हासिल किया। एशिया का सबसे बङा मेग्सस पुरस्कार प्राप्त कर भारत को भी गौरवान्वित किया। अनेक लोगों की प्रेरणा स्रोत किरण बेदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में पुलिस सलाहाकार नियुक्त किया गया। (Strong will power )दृण इच्छा शक्ति से कैंसर जैसी जानलेवा बिमारी से भी जीता जा सकता है। यदि इरादे मजबूत होते हैं तो उम्र की सीमा और विकलांगता भी बाधा नही बनती। प्रेमलता अग्रवाल 48 वर्ष की उम्र में एवरेस्ट पर फतह हासिल करने वाली सबसे अधिक उम्र की पहली महिला हैं। हेलेन केलर की दृण इच्छा शक्ति के आगे उनकी दृष्टीबाधिता नत्मस्तक हो गई।  

स्वामी विवेकानंद जी का कहना था कि, पवित्र और दृण इच्छा सर्वशक्तिमान है, अतः प्रबल इच्छा को कठिन अभ्यास एवं संकल्प शक्ति द्वारा प्राप्त करना चाहिए।

सफलता की कामना करना उत्तम विचार है। उसकी पूर्णता के लिए कार्य के आरंभ में ही दृण इच्छा को अपने में समाहित कर लेना चाहिए। ईमानदारी के साथ कार्य पूर्ण करने में अपनी सारी  शक्ति लगा देनी चाहिए। दृण इच्छाशक्ति मार्ग की बाधाओं को पार कर देती है और सफलता के शिखर पर पहुँचना आसान कर देती है। अतः अपनी सोच को साकार रूप देने के लिए दृण इच्छा शक्ति (Strong Will Power) को रग-रग में संचारित कर लें।

"कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नही मन चाहिए, साधन सभी जुट जाएंगे, संकल्प का धन चाहिए, गहन संकल्प से ही संभव है पूर्ण सफलता।"

Tuesday, 19 November 2013

आधुनिक समाज में नारी का अस्तित्व



आम बोलचाल की भाषा में  ‘लेडिज फर्स्ट एक ऐसा कथन है, जो नारी के लिए सम्मान स्वरूप है। इतिहास साक्षी है, सिन्धुघाटी की सभ्यता हो या पौराणिंक कथाएं हर जगह नारी को श्रेष्ठ कहा गया है।
"यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता" वाले भारत देश में आज नारी ने अपनी योग्यता के आधार पर अपनी श्रेष्ठता का परिचय हर क्षेत्र में अंकित किया है। आधुनिक तकनिकों को अपनाते हुए जमीं से आसमान तक का सफर कुशलता से पूरा करने में सलंग्न है। फिर भी मन में ये सवाल उठता है कि क्या वाकई नारी को 'लेडीज फर्स्ट' का सम्मान यर्थात में चरितार्थ है या महज औपचारिकता है। अक्सर उन्हे भ्रूणहत्या और दहेज जैसी विषाक्त मानसिकता का शिकार होना पङता है। नारी की बढती प्रगति को भी यदा-कदा पुरूष के खोखले अंह का कोप-भाजन बनना पङता है।

आज की नारी शिक्षित और आत्मनिर्भर है। प्रेमचन्द युग में नारी के प्रति नई चेतना का उदय हुआ। अनेक शताब्दियों के पश्चात राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने नारी का अमुल्य महत्व पहचाना और प्रसाद जी ने उसे मातृशक्ति के आसन पर आसीन किया जो उसका प्राकृतिक अधिकार था। आजादी के बाद से नारी के हित में कई कानून बनाये गये। नारी को लाभान्वित करने के लिए नित नई योजनाओं का आगाज भी हो रहा है। बजट 2013-14 में तो महिलाओं के लिए ऐसे बैंक की नीव रखी गई जहाँ सभी कार्यकर्ता महिलाएं हैं। उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कठोर से कठोर कानून भी बनाये गये हैं। इसके बावजूद समाज के कुछ हिस्से को दंड का भी खौफ नही है और नारी की पहचान को कुंठित मानसिकता का ग्रहंण लग जाता है। "नारी तुम श्रद्धा हो" वाले देश में उसका अस्तित्व तार-तार हो जाता है। 
  
आधुनिकता की दुहाई देने वाली व्यवस्था में फिल्म हो या प्रचार उसे केवल उपभोग की वस्तु बना दिया गया है। लेडीज फर्स्ट जैसा आदर सूचक शब्द वास्तविकता में तभी सत्य सिद्ध होगा जब सब अपनी सोच को सकारात्मक बनाएंगे। आधुनिकता की इस अंधी दौङ में नारी को भी अबला नही सबला बनकर इतना सशक्त बनना है कि बाजारवाद का खुलापन उसका उपयोग न कर सके। नारी को भी अपनी शालीनता की रक्षा स्वयं करनी चाहिए तभी समाज में नारी की गरिमा को सम्पूर्णता मिलेगी और स्वामी विवेकानंद जी के विचार साकार होंगे।

विवेकानंद जी ने कहा था कि- "जब तक स्त्रियों की दशा सुधारी नही जायेगी तब तक संसार में समृद्धी की कोई संभावना नही है। पंक्षी एक पंख से कभी नही उङ पाता।"

इस उम्मीद के साथ कलम को विराम देते हैं कि, आने वाला पल नारी के लिए निर्भय और स्वछन्द वातावरण का निर्माण करेगा, जहाँ आधुनिकाता के परिवेश में वैचारिक समानता होगी। नारी के प्रति सोच में सम्मान होगा और सुमित्रानन्दन पंत की पंक्तियाँ साकार होंगी—

मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखि प्यारी को।।      

Wednesday, 13 November 2013

प्रशंसा के फूल


याद कीजिए जीवन के वो स्वर्णिम पल जब शिक्षक और अभिभावक अच्छी पढाई, उत्कृष्ट खेल प्रदर्शन या अच्छे व्यवहार के लिए शाबासी देते थे और ‘Keep it up’ कहकर हौसला बढाते थे। ये शब्द बाल सुलभ मन में उत्साह का संचार कर देते थे। कार्य को और बेहतर करने की प्रेरणा देते थे। आज भले ही हम बङे हो गयें हों फिर भी अच्छे कार्यों के हेतु, अपनो से मिली प्रशंसा जीवन में नई चेतना और सकारात्मक ऊर्जा देती है। प्रशंसा से भरे शब्द संघर्षमय जीवन में रामबांण औषधी की तरह हैं। सच्ची तारीफ सदा लाभदायक होती है। व्यक्ति में प्रशंसा के माध्यम से उसके कार्य करने की क्षमता कई गुना बढ जाती है।   

प्रशंसा का भाव एक ऐसी औषधी है, जिससे व्यक्ति के मन में उमंग तथा उत्साह का संचार होता है। प्रशंसा राह भ्रमित व्यक्ति को राह पर ले आती है, उसमें सकारात्मक भावनाओं का विकास होता है। सच्ची प्रशंसा करने से कभी पीछे नही हटना चाहिए।  कभी भी झूठी तारीफ नहीं करनी चाहिए क्योंकि झूठी प्रशंसा चाटूकारिता या कहें चापलूसी का प्रतीक है। संभवतः इससे दूर ही रहना चाहिए।  

प्रशंसा करना एक कला है, जो दिल की गहराइंयों से निकलनी चाहिए, तभी उसकी पहुँच दूसरे तक जायेगी । कभी भी किसी की प्रशंसा करते समय आडंबर का सहारा नही लेना चाहिए। जीवन में हमसभी की कई बार ऐसे लोगों से मुलाकात होती है जिन्हे हम व्यक्तिगत रूप से नही जानते फिर भी उनके कार्यो से प्रभावित होते हैं। यदि जीवन में ऐसा ही कोई व्यक्ति नेक काम करते दिखे या अपने कार्य को ईमानदारी से निभाते दिखे तो उसकी प्रशंसा करने से स्वंय को कभी भी रोकना नही चाहिए। प्रशंसा के शब्द अमृत के समान हैं जिसको व्यवहार में अपनाने से दोनो को ही शांति और प्रसन्नता की अनुभूति होती है, जो बहुमूल्य है।

जीवन की यात्रा के दौरान यदि व्यक्ति को प्रशंसा मिलती है तो उसका अपने कार्य के प्रति उत्साह बढ जाता है और वे अधिक ऊर्जा से अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है। अधिनस्त कर्मचारियों द्वारा किये गये उत्कृष्ट कार्यों पर बङे अधिकारियों द्वारा की गई प्रशंसा विकास की राह को आसान बनाती है। सामाजिक विकास हो या व्यक्तिगत विकास सभी एक दूसरे के सहयोग से सम्पूर्ण होते हैं, परन्तु आलम ये है कि हम उन सहयोग को भूल जाते हैं। विकास की दौङ में अप्रत्यक्ष लोगों की सराहना को नजर अंदाज कर देते हैं। जबकी प्रशंसा भरे शब्द तो सुगन्धित फूल के समान हैं जिसकी खुशबू व्यक्ति में अच्छे भावों को महका देती है।

सच्ची तारीफ अंधकार भरे जीवन में आगे बढने की चाह रूपी उजाले की ज्योति होती है। परंतु अपनी तारीफ स्वंय नही करनी चाहिए और दूसरों से मिली तारीफों से स्वंय में अंहकार को जगह नही देना चाहिए। प्रशंसा तो उस सीढी के समान है, जो हमें ऊपर भी ले जा सकती है और नीचे भी गिरा सकती है। किन्तु जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं जब स्वंय की पीठ भी थपथपा लेनी चाहिए और अपनी उपलब्धियों के बारे में सोचना चाहिए ताकि जीवन में आए निराशा के बादल स्व प्रेरणा से छँट जायें। स्व-सराहना जीवन में नई ऊर्जा के साथ कार्य करने की प्रेरणा देती है।

सच्ची प्रशंसा सदैव सकारात्मक भावों का ही विकास करती है। प्रशंसा के सदुपयोग से व्यक्ति का सकारात्मक और समुचित विकास होता है, परन्तु दुरपयोग से अंहकार एवं द्वंद का जन्म होता है। इसलिए प्रशंसा रूपी मिठास का सही समय पर, सही तरीके से उपयोग करना चाहिए और प्रशंसा करने का अवसर चूकना नही चाहीए। 

               
 

Wednesday, 6 November 2013

मानवता का प्रतीक है, सहयोग की भावना



मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जिसकी उन्नति सहयोग की बुनियाद पर निर्भर है। जिस प्रकार ईंट से ईंट जोङकर विशाल भवन बनता है, पानी की एक-एक बूंद से सागर बनता है। उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों के परस्पर सहयोग से ही मनुष्य का विकास संभव है। समाज और राष्ट्र की समृद्धि परस्पर सहयोग पर ही निर्भर है।

पूर्ण विकास सहयोग से ही होता है। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नही होता। कलाकार के सामने डॉक्टर अयोग्य है, तो डॉक्टर के सामने इंजीनियर, तो कहीं साहित्यकार के सामने व्यपारी। कहने का आशय ये है कि, सभी अपनी-अपनी विधाओं में पूर्ण हैं किन्तु संतुलित विकास के लिए एक दुसरे का सहयोग अति आवश्यक है। सहयोग की आदतें मनुष्य में मैत्री भावना का विकास करती हैं। गौतम, महावीर, ईसा हों या कृष्ण, कबीर, राम, रहीम सभी महापुरुषों में मैत्री की भावना समान है।

धरती पर जैविक संरचना कुछ इस प्रकार है कि समाज से परे अकेले व्यक्ति का विकास संभव नही है। प्राणी में शरीर के सभी अंग मिलकर कर कार्य करते हैं तभी व्यक्ति अनेक कार्य करने में सक्षम होता है। इतिहास गवाह है कि रावण, कंस, दुर्योधन हो या हिटलर, मुसोलिन, चँगेज खाँ तथा नादिरशाह जैसे शक्तिसंपन्न कुशल नितिज्ञ थे किन्तु सभी ने सामाजिक भावना का निरादर किया जिसका परिणाम है उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
  
सृजन का आइना है परस्पर सहयोग। जिस तरह आम के वृक्ष का विशाल अस्तित्व, मधुर फल, शीतल छाया दूसरें लोगों के सहयोग का ही परिणाम है। उसी प्रकार व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व समाज के प्रयत्नों का ही फल है।
मदर टेरेसा का कहना था कि, आप सौ लोगों की सहायता नही कर सकते तो सिर्फ एक की ही सहायता कर दें। 

सच ही तो है मित्रों, एक और एक ग्यारह होता है, बूंद-बूंद से ही घङा भरता है। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी पर निर्भर है कि लोग व्यक्तिवाद की मानसिकता को छोङकर सहयोग के महत्व को समझते हुए उसे जीवन का अहम हिस्सा बना ले। सहयोग की भावना की एक शुरुवात से ही "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना सजीव होती है।


Friday, 1 November 2013

शुभ दिपावली




अमावस की अँधियारी रात में, रौशनी का आगाज हो।

माटी के इस दिपक में, ज्ञान की बाती और बुद्धि का प्रकाश हो।

सुख-समृद्धि की रंगोली से, हर आँगन मंगलमय हो।

स्वास्तिक की शुभता में, सबके सपने साकार हो।

भाई-चारे की मिठास में, चहुँ ओर दियों की मंगल कामना हो।

हार्दिक बधाई के साथ दिपों के प्रकाश में, दिपावली शुभ हो।

(पूर्व की पोस्ट के लिए लिंक पर क्लिक करें) -



 


Friday, 25 October 2013

आत्मनिर्भरता



आज की हाई प्रोफाइल और प्रतिस्पर्धा से भरी जीवन शैली में हम अपने बच्चों को सुपर किड देखना चाहते हैं। उसे शैक्षणिकं योग्यता के साथ-साथ अन्य विधाएं जैसे- नृत्य, गीत हो या तैराकी, घुङसवारी में भी योग्य बनाने का प्रयास करते हैं। ये सच है कि व्यक्तित्व को निखारने में शैक्षणिंक योग्यता के साथ इन शिक्षाओं का भी विशेष स्थान है। परंतु वास्तविकता में हम इस जद्दोजहद में एक महत्वपूर्ण शिक्षा को अनदेखा कर देते हैं। बच्चों को बचपन से उसकी जिम्मेदारियों से अवगत नही कराते। आलम ये है कि, सुबह उठाने से लेकर स्कूल के गृहकार्य तक लगभग सारे कार्य हम अभिभावक करते हैं। उम्र के अनुसार यदि बच्चों को उनकी जिम्मेदारियों का भी बोध कराएं तो निःसंदेह बङे होकर यही बच्चे समय प्रबंधन तथा आत्मनिर्भरता को समझ सकते हैं। परिवार तथा समाज के जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं, जो संपन्न राष्ट्र की महत्वपूर्ण ईकाइ है।

जिम्मेदारियों और फायदों के बीच सीधा संबंध होता है। घर के अन्य सदस्यों के समान ही छोटे-बङे कामों में बच्चों को शामिल करने से उनकी आत्मनिर्भता की बुनियाद मजबूत होती है। वही इमारत मजबूत होती है जिसकी नींव मजबूत होती है, उसी प्रकार बच्चे की बुनियाद आत्मनिर्भरता के सबक से बनाई जाए तो उसे कभी भी, किसी भी परिस्थिति में किसी के सहारे की जरूरत नही पङेगी। विषणु शर्मा द्वारा रचित पुस्तक पंचतंत्र में भी ये समझाया गया है कि राजा-महाराजाओं के बच्चों को भी बचपन से गुरुकुल में भेज दिया जाता था। जहाँ वे सुख-सुविधाओं से दूर पूर्णतः आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा ग्रहण करते थे।
पौधों में पानी देना, पालतु जानवर को खाना देना जैसा कार्य 7 साल के बच्चे से कराया जा सकता है। इससे उनमें प्रकृति को भी समझने की इच्छा होगी। पशु-पक्षी सभी अपने बच्चों को बहुत जल्द आत्मनिर्भर बनना सिखाते हैं। केवल इंसान ही अपने बच्चे को कुछ ज्यादा ही बच्चा समझता है और एक दिन युवा हुए बच्चे से ऐसी उम्मीद लगाता है कि वो सारी जिम्मेदारियाँ, आत्मनिर्भरता के साथ बहुत अच्छे से निभाए ये कैसे संभव हो सकता है। कमजोर लता जो दुसरों के सहारे बढती हैं वो कभी वृक्ष नही बन सकती। यदि व्यक्ति हर काम में दूसरे की मदद लेता है तो फिर उसे सदा दूसरों पर ही निर्भर रहने की आदत पड़ जाती है। यह आदत आगे चलकर कष्ट ही देती है। आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास उपजता है जो प्रत्येक कार्य को करने व उसमें सफल होने की प्रेरक शक्ति है। अत: दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय अपने काम स्वयं करें।
विनोबा भावे आत्मनिर्भता के महत्व को समझते थे इसीलिए सर्वोदय आंदोलन में अन्य बातों के अलावा आत्मनिर्भर गांवों की कल्पना भी शामिल किए थे।  दिसंबर 1949 में हैदराबाद से वापस आने के बाद विनोबा जी ने पवनार आश्रम में इसका प्रयोग प्रारंभ किया था। उन्होंने बिना बैलों के आश्रम में खेती की और सब्जी बोई। सिंचाई के लिए पानी निकालना बड़ा कठिन कार्य था। रहट में एक डंडे के स्थान पर आठ डंडे लगाए गए जिसके फलस्वरूप एक घंटे में सात सौ चक्कर लगे, जबकि पहले केवल 25 चक्कर लगते थे। इस प्रकार थोड़े परिश्रम से भरपूर पानी मिला और देखते ही देखते समस्त भूमि हरी-भरी हो गई। ईंट पत्थर निकालने के बाद 125 मन सब्जी पैदा हुई। हाथों से की जाने वाली खेती को विनोबा जी ने ऋषि खेती का नाम दिया था। पानी की कमी को पूरा करने के लिए पांच-छ महीनों में खुदाई करके एक कुआं तैयार कर लिया गया। एक साल में ही खेती से 135 किलो ज्वार, 4 क्विंटल मूंगफली और 6 क्विंटल अरहर दाल पैदा हुई। आश्रमवासी अपने वस्त्र भी हाथ से कते सूत के ही पहना करते थे। इस प्रकार आश्रमवासी विनोबा जी के मार्गदर्शन में पूर्णरूप से आत्मनिर्भर हो गए। उसके बाद अनेक गांवों ने उनका अनुकरण किया। 

कहने का आशय है कि, बचपन से लेकर किशोरावस्था और युवावस्था तक विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए जब बच्चा सही अर्थो में जिम्मेदार बनता है, तो वो वास्तविक सुपरकिड बनता है। उसके यही प्रयास, अनुभव और आपसी जिम्मेदारियां उसे एक सफल इंसान बनाते हैं। वो अपने बल पर अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब होता है।  

Tuesday, 15 October 2013

एक अपील

आपके अमुल्य तीन घंटे किसी की आँखों की रोशनी बन सकते हैं। अहिल्याबाई की पावन नगरी इंदौर के पाठकों से एक निवेदन है कि, इंदौर में Old GDC. Collage में B.A. 2nd Year की परिक्षाएं 23 अक्टुबर से शुरु हो रही है। वहाँ सामान्य छात्राओं के साथ कुछ दृष्टीबाधित छात्राएं भी परीक्षा देंगी, परिक्षा के समय सहलेखक (Scribe) की आवश्यकता की पूर्ती हेतु हम आपके सहयोग की अपेक्षा करते हैं। परिक्षा में सहलेखक का सहयोग केवल बालिकाएं ही दे सकती हैं। जो छात्रा 12वीं या B.A. 1st Year में अध्ययन कर रही है वे यदि दृष्टीबाधित बच्चियों की परिक्षा देने को इच्छुक हों तो, वे हमें मेल कर सकती हैं।

अधिक जानकारी के लिये आप हमें मेल कर सकते हैं। E-mail : voiceforblind@gmail.com

 मेरी पूर्व की अपील पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें
http://roshansavera.blogspot.in/2013/04/a-request.html

 

Saturday, 12 October 2013

रावण का अंहकार


हम सब दशहरे का त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूप में मनाते हैं। रावण बहुत बुद्धिमान और अनेक विद्याओं में निपुण था। फिर भी रावण के अन्त को हम सब बुराई का प्रतीक मानते हुए उसे जलाते हैं। प्रेमचन्द जी कहते हैं कि, आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है।
रावण में भी सबसे बङी बुराई यही थी कि, उसे अंहकार का भ्रम हो गया था। अंहकार, व्यक्ति के जीवन को ऐसे नशे में डुबो देता है, जिसके कारण व्यक्ति स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है और सोचता है कि पूरी दुनिया उसी से चल रही है। रावण में भी ऐसी भावना ने अपना रूप विकसित कर लिया था जिसका परिणाम ये हुआ कि सब कुछ अंहकार की ज्वाला में जल गया। वास्तव में अंहकार का कोई सच्चा अस्तित्व है ही नही। वीर का असली दुश्मन तो उसका अहंकार ही होता है।   

किसी ने सच ही कहा है, आप ने क्या कमाया उस पर कभी घमंड न करें क्योंकि शतरंज की बाजी समाप्त होने पर राजा और मोहरे एक ही डिब्बे में रख दिये जाते हैं।

अहंकार एक ऐसा बीज है जिससे कभी भी सकारात्मक फसल नही उगती बल्की बुराईयों की जङें गहरी हो जाती है। कहते हैं, अहंकार को कितना भी पोषण दीजिए उसकी तृप्ति संभव नही है। अहंकार तो गुब्बारे के समान है जो हवा भरने पर फूल जाता है यही हवा रूपी अहंकार जब ज्यादा हो जाता है तो गुब्बारा फूट जाता है। जरा सा कुछ हासिल हो जाने पर हम सब भी गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं और अंहकार के वायरस को अपने भावों में समा लेते है। ये भूल जाते हैं कि कोई भी उपलब्धी किसी एक का परिणाम नही होती उसमें कई लोगों का योगदान होता है। कहावत को भूल जाते हैं कि, अकेला चना भाङ नही फोङता। हम हैं कि खुद को सर्वे-सर्वा समझ कर अहंकार की अग्नि में स्वयं को तबाह कर देते हैं 

वाल्टेयर ने कहा है कि, मनुष्य जितना छोटा होता है, उसका अंहकार उतना ही बड़ा होता है।“
अतः मित्रों सच्ची विजय या सही मायने में दशहरे का महत्व तभी है जब हम अपने अंदर के अहंकार रूपी रावण को ऊँचाई से उतार कर धरातल पर ले आयें। जन मानस की याद में अच्छे विचारों के साथ रहें। इसके लिए हमें विनम्रता और शालीनता को जीवन का अंग बना लेना चाहिए।

विद्वानों ने सच ही कहा है कि, कभी भी कामयाबी को दिमाग में और नाकामयाबी को दिल में जगह नही देनी चाहिए क्योंकि, कामयाबी दिमाग में घमंड और नाकामयाबी दिल में मायुसी पैदा करती है।

दशहरे से संबधित पूर्व की पोस्ट को पढने के लिए दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 

 
 

 

Friday, 4 October 2013

माँ दुर्गा का अनुपम पर्व



जब हम भय की जगह निर्भय होकर प्रत्येक कठिनाई को परास्त करने में सक्षम हो जाते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं तब शक्ति की कृपा का अनुभव होने लगता है। माँ दुर्गा शक्ति का रूप हैं। रणक्षेत्र में श्री कृष्ण ने युद्ध शुरु होने से पहले अर्जुन को माँ शक्ति की उपासना और आह्वान करने के लिए कहा था, जिससे न्यायसंगत शक्ति के साथ सफलता प्राप्त हो। जीवन भी एक प्रकार का संग्राम है। इसमें पल-पल परिस्थितियाँ बदलती रहती है। विपरीत परिस्थिती में भी स्वयं को कायम रखने के लिए एक विषेश प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है। जो जीवन  मझधार में अटकी नैया को सकुशल अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करती है। ऐसी ही अपरिमित शक्ति का भंडार गायत्री मंत्र (ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुवर्रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्) के तीसरे अक्षर में समया हुआ है। जो शक्ति की प्राप्ति और सदुपयोग की शिक्षा देता है।

शक्ति और सत्ता, ईश्वर कृपा से प्राप्त होने वाली पवित्र धरोहर है, जो मनुष्य को इसलिए दी जाती है कि वह निर्बलों की रक्षा कर सके। परंतु यत्र-तत्र अक्सर देखने को मिल जाता है कि दुर्बल सबलों का आहार हैं। शक्ति तो वह तत्व है जिसके आह्वान से अविद्या, अंधकार तथा सभी परेशानियों का अंत हो जाता है। मन में शक्ति का उदय होने पर साधारण मनुष्य भी गाँधी, आर्कमडीज, कोलंबस, लेनिन, आइंस्टाइन जैसी हस्ती बन जाते हैं। बौद्धिक बल की जरा सी चिंगारी तुलसी, सूर, वाल्मिकी, कालीदास जैसे रचनाकारों को जन्म दे देती है।

माँ के इस अनुपम पर्व पर हम सभी अष्टभुजी दुर्गा की पूजा करते हैं। आठ भुजाओं से तात्पर्य हैः- स्वास्थ, संगठन, यश, शौर्य, सत्य, व्यवस्था, विद्या तथा धन। इन आठ विधओं का सम्मलित रूप ही शक्ति है। यदि हम सच्ची लगन के साथ माँ की उपासना निरंतर करें तो जीवन की यात्रा शक्ति की कृपा से निःसंदेह सुखद और सफल हो जाती है।

सर्वव्यापी, सर्वसम्पन्न माँ शक्ति की कृपा आप सभी पर सदैव बनी रही इसी मंगल कामना के साथ कलम को विराम देते हैं।

नोट- (नवरात्री से संबन्धित मेरी पूर्व की पोस्ट को पढने के लिए दिये गये लिंक पर क्लिक करें।)
जय माता दी