कई साल पहले सिएटल (अमेरिका) में विकलांगो के
लिये विशेष औलंपिक खेल आयोजित किये गए। औलंपिक की 100 मीटर दौङ के मुकाबले में 9
प्रतियोगी शामिल हुए। सभी शारीरिक और मानसिक रूप से असहाय थे।
दौङ की घोषणा हुई। घावको ने जगह संभाली और रैफरी
के बंदूक के इशारे पर ही धावक लक्ष्य की ओर दौङ पङे, लेकिन एक छोटा विकलांग लङका
दौङने की बजाय अपनी जगह पर ही खङा-खङा रोने लगा। उसे समझ नही आ रहा था कि किधर और
कैसे दौङना है। तभी आठो धावक लक्ष्य की ओर बढने की बजाय उल्टे उस जगह लौटने लगे जहाँ
से दौङ शुरू किये थे। उनमें से एक ने आगे बढकर रोने वाले लङके को गले से लगाकर
दिलासा दी। बाकी धावकों ने हाथ से हाथ पकङे और उस लङके को साथ लेकर फिर से लक्ष्य
की ओर बढ चले। किन्तु इस बार कोई अकेला नही था, सब साथ-साथ दौङ रहे थे। उन्हे इस
तरह देख सभी दर्शक खुशी से तालियाँ बजा रहे थे और उनके हौसले व समर्पण की दाद दे
रहे थे।
अब उस दौङ का कोई एक नही, पूरे 9 विजेता थे और ये
विजेता सिर्फ 100 मीटर की दौङ नही जीते थे, बल्की वे ऐसी दौङ जीते थे जो एक
सामान्य आदमी कभी नही जीत सकता। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि-
“हमारा कर्तव्य है कि हम हर किसी को उसका उच्चतम आदर्श जीवन जीने के संघर्ष में प्रोत्साहन करें: और साथ ही साथ उस आदर्श को सत्य के जितना निकट हो सके लाने का प्रयास करें”
सच ही तो है मित्रों, हमें केवल सफल होने की
कोशिश ही नही करनी चाहिये बल्की मूल्य आधारित जीवन को आत्मसात करके एक सफल एवं
सभ्य इंसान बनने की कोशिश करनी चाहीये।
Heart touching incident.
ReplyDeleteHello, i think that i saw you visited my site so i came to “return the favor”.I am attempting to find things to improve my website!I suppose its ok to use some
ReplyDeleteof your ideas!!