अपने पूर्वजों के
प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से
मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद
पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक श्राद्ध पर्व का आयेजन चलता है।
ब्रह्मपुराण के
अनुसार श्राद्ध पक्ष
में ब्राह्म्ण भोजन के अलावा दान का भी बड़ा भारी महत्व है। शास्त्रों के अनुसार
श्राद्ध पक्ष में पित्रों के निमित्त किये गये दान का उत्तम फल प्राप्त होता है।
पित्रों के सम्मान में आज के परिपेक्ष में थोङा परिवर्तन नजर आता है, जैसे- आज
कल श्राध्द पक्ष के दौरान अनाथ आश्रमों में भोजन
कराने का चलन तेजी से बढा है। ये बहुत अच्छी बात है, कम से कम सम्पन्न ब्राह्म्णों
को तो भोजन कराने से लाख गुना अच्छा है। किन्तु कभी हम सबने ये सोचा कि पुण्य के
इस शुभ कार्य में जाने-अनजाने हम बच्चो में कैसी मानसिकता का विकास कर रहे हैं? किसी की पुण्य तीथि उनके
लिये किसी उत्सव से कम नही होती क्योंकि उनको अच्छे-अच्छे पकवान खाने को मिलते हैं। पूरे 15 दिन
किसी उत्सव से कम नजर नही आते।
दिवस तो सिर्फ 15 होते हैं, पुण्य तिथियाँ अनगिनत, आलम ये होता है कि सुबह के
नाश्ते से लेकर रात्री भोजन तक पकवानों की बाँढ सी आ जाती है। ये सिलसिला श्राद्ध
पक्ष की शुरुवात से अंत तक ऐसे ही चलता है। विचार करने योग्य बात ये है कि लगातार
15 दिनों तक गरिष्ठ भोजन क्या स्वास्थ की दृष्टी से अनुकूल है, क्या हम अपने
बच्चों को भी ऐसे ही लगातार गरिष्ठ भोजन देते हैं?
हम कई आश्रमों के बच्चों से
मिले हैं। जो बच्चे छोटे हैं, नासमझ हैं, वो तो ऐसी परंपरा से बहुत खुश होते हैं
क्योंकि उन्हे रोज पकवान खाने को मिलता है। उनको इससे कोई मतलब नही कि उनके
स्वास्थ पर क्या असर होगा, किन्तु जो समझदार हैं, बङे हैं, वो ऐसा खाना रोज खाने
से भूखे रहना ज्यादा पसंद करते हैं। हम सब अपने पूर्वजों को खुश करने के लिये ये
कार्य करते हैं। ये सब देखकर क्या हमारे पूर्वज खुश होते होंगे ?
वर्ष में 365 दिन होते हैं
किन्तु हम मे से कई लोगों को पित्रपक्ष के किसी एक दिन ही ये बच्चे याद आते हैं, बाकी
दिन उनको भोजन मिला या नही ये तो हम देखने ही नही जाते, क्योंकि हमारी प्राथमिकता
तो पित्रपक्ष में अपने पित्रों को खुश करना है वो भी इसलिये, कि मान्यता अनुसार
श्राद्ध करने वाला व्यक्ति पापों से मुक्त हो सुख प्राप्त करता है एवं अंत में परम
गति को प्राप्त होता है।
मित्रों यदि हम वास्तव में
अपने पित्रों को याद करते हैं एवं उनका आर्शिवाद हमेशा चाहते हैं, तो हमें अपनी
सोच एवं रूढीवादी विचारों को थोङा बदलना होगा। मित्रों, यदि हम पित्रों की पुण्य तीथि के दिन भोजन पर व्यय होने वाली राशी को संकल्प करके रख
ले एवं इसी राशी से वर्ष के किसी रविवार को जाकर उन्हे भोजन करा सकते हैं। हममें
से किसी एक की शुरुवात एक और एक ग्यारह हो सकती है और ऐसा करने से उन बच्चों को
प्रत्येक रविवार को अलग हट के भोजन करने का अवसर मिलेगा जो स्वास्थ की दृष्टी से
भी अनुकूल होगा। कहते शिक्षा दान भी बहुत बङा दान है, पित्रों की खुशी के लिये
जरूरत मंद बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करके भी उन्हे आत्मर्निभर बना सकते हैं।
हम अपने पित्रों की याद एवं
उनके नाम को हमेशा स्मरणीय भी बना सकते हैं। किसी 18वर्ष से ऊपर के अनाथ बच्चे को अपनी
दुकान एवं कारखाने में नौकरी देकर उसे जीवन भर के लिये रोजी-रोटी दे सकते हैं।
इससे उस बच्चे में आत्म सम्मान से जीवन जीने की मानसिकता का विकास होगा जो समाज और
देश के लिये हितकारी होगा। आज कई लोग पूर्वजों के नाम से प्याऊ लगवाकर, मुफ्त
स्वास्थ लाभ दे कर या शिक्षा के क्षेत्र में छात्रवृत्ती की व्यवस्था करके मेघावी
जरूरत मंद बच्चों को आत्मर्निभर बनाने के लिये सार्थक प्रयास कर रहे हैं।
मित्रों, श्राद्ध पक्ष में
पूर्वजों को ज्यादातर भोजन करा कर ही याद करने का चलन अधिक दिखता है, मन में
प्रश्न उठता है कि क्या हमारे पूर्वजों को सिर्फ भोजन की ही आवश्यकता होती है?, क्या अन्य मूलभूत आवश्यक्ताओं
की पूर्ती परलोक में ईश्वर के द्वारा हो जाती है?
कई बार ऐसा देखने को मिलता
है कि जैसे ही हमारे बङे बूजुर्ग परलोक सिधारते हैं, उनकी सम्पत्ती को लेकर परिजनो
में झगङा शुरू हो जाता है। सोचिये ऐसी स्थिती देख कर हमारे पूर्वज क्या खुश हो सकते
हैं? क्या हमारे पूर्वज ये नही चाहते कि
उनके बच्चे आपस में मिल जुल कर रहें ? जिन रिश्तों से वे हमें जोङ के जाते हैं, हम उसे तो अपनेपन
एवं ईमानदारी से निभा नही सकते, फिर ये भोजन कराना सिर्फ औपचारिकता ही कही जा सकती है।
कहीं तो पिता के परलोक चले जाने पर उनकी जीवन संगनि, अर्थात अपनी माँ की देख भाल ही ठीक से नही करते
किन्तु पिता की पुण्य तिथी पर ब्राह्म्ण को भोजन कराना नही भूलते। ये किस परंपरा
का निर्वाह करके हम खुश होते हैं?
मित्रों, आज का युवा वर्ग
बहुत ही समझदार है और तथ्यों के आधार पर आगे बढ रहा है। इसलिये हमें भी अपने
विचारों और रुढीवादिता को तथ्यों की कसौटी पर देखना बहुत जरूरी है, वरना कहीं ऐसा
न हो कि हमारी आने वाली पीढी ये समझ ले कि हमारे पूर्वज तो केवल भोजन की ही कामना
रखते हैं।
हमारे पूर्वजों का सम्मान
बना रहे एवं उनका आर्शिवाद हम सब पर रहे, इसी कामना के साथ एवं इस वादे से कि जिन
रिश्तो से वो हमें जोङकर गये हैं, हम उन्हे प्यार और अपनेपन के साथ और मजबूत करेंगे। इसी भावांजली
के साथ पूर्वजों को शत् शत् नमन है।
“मैं जब भटकुँ तो सही राह दिखा देना। मेरे सर पर अपना हाँथ रख, अपने होने का
एहसास करा देना।“
ऊँ शान्ती
Nice
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