Thursday, 30 January 2014

सीखना सफलता की कुंजी है (Learning)



सीखने की कोई उम्र नही होती है। जो ताउम्र सीखने में यकीन रखते हैं, वही बुलंदियों पर पहुँचते हैं। डार्विन के सिद्धान्त को यदि आज के माहौल में सोचे तो उसकी महत्ता और भी बढ जाती है। आज वही सरवाइव कर सकता है जो नए माहौल के अनुसार अपना विकास करता है। सीखना किसी भी विकास की सतत प्रक्रिया है। परिस्थिती के अनुसार नित नई चीजों को सीखना और स्वयं को उमसें ढाल देना सफलता की कुंजी है। कुछ नया सीखने की ऊर्जा हम सभी में छुपी होती है, जो इस ऊर्जा को इस्तेमाल कर लेते हैं वे सफलता की इबारत लिखते हैं तथा देश एवं विदेश में भी सम्मानित किये जाते हैं। उम्र की बाधाओं को तोङकर भारत की एक नारी आशा खेमका ने ब्रिटेन में भारत को गौरवान्वित किया।  

आशा खेमका का जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले में हुआ था। उनकी शादी महज 15 साल की उम्र में हो गई थी। 1975 में अपने पति और तीन बच्चों के साथ 25 वर्ष की उम्र में आशा खेमका ब्रिटेन चली गईं। उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, पर उन्होंने सांस्कृतिक और भाषाई बाधाओं को पार किया।  1980 के दशक में आशा ने स्वयं को सुशिक्षित बनाने की शुरूआत की। दृण इरादों वाली आशा खेमका ने बच्चों के टीवी शो को देखकर और युवा माताओं से बात कर अंग्रेजी सीखी। नई चीजों को सीखना और ईमानदारी से शिक्षा ग्रहण करने का ही परिणाम है कि उन्हे ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार डेम कमांडर ऑफ द आर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही आशा खेमका अपने समुदाय से यह सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम व्यक्ति बन गई। यह ब्रिटिश साम्राज्य के महिला नाइटहुड सम्मान के बराबर है।  उन्हें यह सम्मान पिछले आठ वर्ष से वेस्ट नोटिंघमशायर कॉलेज में बतौर प्राचार्य वेस्ट मिडलैंड के पिछड़े इलाके में सेवाएं देने को लेकर सम्मानित किया गया।


प्रथम महिला आई. पी. एस. किरण बेदी का कहना है कि- "जिंदगी का हर पल कुछ न कुछ सिखाता है। यदि निरंतर कुछ नया नही सीखेंगे, तो जल्दी ही बेकार साबित हो जायेंगे।"
ज्यादातर महिलाओं की सोच होती है कि शादी हो गई, बच्चे हो गये बस दुनिया यहीं खत्म, उन्हे आशा खेमका से सबक लेना चाहिए। कहते हैं फिल्मो का असर समाज पर पङता है और फिल्में समाज का आइना होती हैं। यदि दोनो ही बातों पर ध्यान दें तो 2012 में प्रर्दशित फिल्म इंग्लिश विंग्लिश में श्री देवी द्वारा अभिनित रोल महिला के उस पक्ष को सबल बनाता है जो कुछ सीखना चाहती हैं। विपरीत परिस्थिती में भी अवसर को समझते हुए विदेशी धरती पर इंग्लिश सीखती है। कहने का आशय ये है कि, परफैक्ट कोई नही होता इसलिए जो नही आता है उसे सीखने में संकोच नही करना चाहिए। किसी कार्य का न आना इतने शर्म की बात नही होती बल्कि उस कार्य को न सीखने की चाह शर्म की बात होती है।

दोस्तों, नए लोग और नई जमीं पर आशा खेमका ने अपने सीखने के जुनून को आगे बढाया। सीखने का पैशन ही इंसान को जीवन में आगे बढने में मददगार होता है। यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो अपनी भूल से भी सबक ले सकता है। बच्चों से लेकर बङों तक, विद्यार्थियों से लेकर सेवानिवृत्त लोगों तक हर किसी को जीवन का प्रत्येक क्षेत्र हर दिन कुछ न कुछ सबक सिखाता है। ये हमपर निर्भर करता है कि हम सीखने की आदत को कितना दृण रखते हैं। सफल व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण सबक है सीखना, जिसको अपनाते हुए हमसब अपने जीवन को रचनात्मक और सकारात्मक बना सकते हैं।
ए.पी.जे.अब्दुल्ल कलाम का कहना है कि,  

      Learning gives creativity,
            Creativity leads to thinking,
            Thinking provides knowledge,
            Knowledge makes you great.

 





 




 

Friday, 24 January 2014

लोकतंत्र का बदलता स्वरूप


जब अंग्रेज सरकार की मंशा भारत को एक स्वतंत्र उपनिवेश बनाने की नजर नही आ रही थी, तभी 26 जनवरी 1929 के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरु जी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्णस्वराज्य की शपथ ली।  26 जनवरी , भारतीय इतिहास में इसलिये भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि  1950 में भारत का संविधान, इसी दिन अस्तित्व मे आया और भारत वास्तव में एक संप्रभु देश बना। भारत के संविधान में भारत को लोकतांत्रिक देश घोषित किया गया। जिसका आशय होता है, जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन। परन्तु आज के परिपेक्ष में क्या हम वाकई लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं ?

जिस भारत देश के संविधान ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य घोषित किया, जहाँ राज्याध्यक्ष का पद वंशानुगत न होकर निर्वाचित होना तय किया गया, वहाँ आज वंशानुगत राजनीति ने अपने पाँव अंगद की तरह जमा दिये हैं।

अनेकता में एकता का सपना लिए जब कोई व्यक्ति अपने राज्य से दूसरे राज्य में नौकरी या व्यपार के लिए जाता है तो उसे वहाँ, लोकतंत्र की बदलती तस्वीर दिखती है। जहाँ भाषाई और क्षेत्रवाद की भावनाएं राजनैतिक संरक्षण के बल पर अन्य दूसरे राज्यों के लोगों को रहने नहीं देती। इतिहास साक्षी है भाषाई राजनैतिक ताकतें हिंसा को ही जन्म देती हैं।

चाणक्य ने कहा था कि, किसी देश को नष्ट करना हो तो उस देश की संस्कृति को नष्ट कर दो।

आज यही प्रयास अपने देश में अपनो द्वारा ही हो रहा है। जिसे जनता देश की भलाई के लिए चुनाव में जिताकर सत्ता देती है वे स्वहित को सर्वोपरि मानते हुए, देश की सांस्कृतिक पहचान अनेकता में एकता को नष्ट कर रहे हैं। राजनेताओं द्वारा फैलाए जा रहे जहर से लोकतंत्र का दम घुट रहा है। भाषावाद ने भारत की एकता को गम्भीरता से प्रभावित किया है। प्रत्येक चुनाव में राजनैतिक दल अपने निहित स्वार्थ के लिए मतदाताओं को भाषा-विषयक आश्वासन देते हैं।

आज जातिय समिकरण लोकतांत्रिक व्यवस्था का मखौल उङा रहे हैं। आज की राजनैतिक पार्टियाँ निर्वाचन क्षेत्र के प्रत्याशी तय करते समय इस बात का बारिकी से आंकलन करती हैं कि उस क्षेत्र में किस जाति का बहुल है। तद्पश्चात उसी जाति के व्यक्ति को वहाँ का उम्मीदवार घोषित करती हैं। जबकि संविधान में धर्म, जाति, वंश के आधार पर भेद-भाव निषेध बताया गया है। राजनैतिक दल अपने स्वार्थ में इस तरह रंग गये हैं कि लोकतांत्रिक विचार-धाराओं को दरकिनार करते हुए, अल्पसंख्यक की दुहाई देते हुए जाति-भेद को बढावा दे रहे हैं। जो किसी भी देश के विकास में बहुत बङी बाधा है।

नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "मानवता को बचाए रखने के लिए जातिवाद का हर स्तर पर विरोध होना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति का जीवन मूल्यवान है। हम किसी के साथ भेदभाव नही कर सकते।"
 
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने क्षेत्रिय असंतुलन हमें विरासत में सौंपा। आजादी के 6 दशकों बाद भी हम इस समस्या से ग्रसित हैं। आज भी भारत में कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पानी, बिजली तथा स्वास्थ संबंधी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। फिर भी क्षेत्रिय असंतुलन को अनदेखा करते हुए भारत की एकीकरण की स्वस्थ भावना को आघात पहुँचाने में जन-प्रतिनिधियों को संकोच नही होता। अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अलापते हुए कई राज्यों का विघटन हो रहा है।

आधुनिक व्यवस्था का अवलोकन करें तो, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, लोकतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन कहना केवल प्रतीक के रूप में ही रह गया है। सुनने में ये बात उतनी ही मोहक है जितनी किसी कवि की ऊँची उङान। आज लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था बन गया है, जहाँ हर-तरफ क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद का बिगुल बज रहा है और बहुत से विशिष्ट लोग धन एवं बाहुबल से जनसत्ता पाने के लिए लोकतंत्र के मूल्यों की अवहेलना कर रहे हैं।


गणंतंत्र दिवस के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई के साथ ये उम्मीद करते हैं कि, लोकतंत्र के वास्तविक मूल्यों का सम्मान होगा और कामना करते हैं-  
सब मिलकर मनाएं लोकतंत्र का पर्व तथा भारतीय होने पर करें गर्व।

      



Tuesday, 14 January 2014

वृद्धावस्था अभिशाप नही है।


समय का चक्र अबाध गति से चलता रहता है। नियति का यही स्वाभाव है। आज जो बालक है वह कल युवा तो परसों वृद्ध होगा। यह निर्विवाद सत्य है कि वृद्धावस्था में इंसान कमजोर हो जाता है किन्तु उसका ये अर्थ कदापी नही है, कि वह बेकार हो गया। वृद्ध हमारे समाज का वटवृक्ष होते हैं, जो ताउम्र हमें हर मुसीबत से बचाते हैं।

इंसान की स्वयं की सोच उसे बूढा बनाती है। भारत में लोगों की मानसिकता है कि वे 40 वर्ष के बाद बुढे हो जाते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद तो आलम ये होता है कि वे कहने लगते हैं भाई! हम तो अब आराम करेंगे हम बुढे हो चुके। वास्तव में यही सोच इंसान को बूढा बनाती है।

वृद्धास्था अभिशाप नही है वरन् हमारे देश में वृद्धावस्था अभिशाप  पर्याय बन गई है। बदलते नैतिक मुल्यों एवं सामाजिक विघटन ने वृद्वस्था को असहनिय बना दिया है। आज की आधुनिकता से परिपूर्ण दिनचर्या में उनके लिए किसी के पास समय नही है जिससे वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। वृद्धावस्था सहज अवस्था है, और इससे सभी को गुजरना पङता है। जीवन की इस अवस्था को मनु तथा वेदव्यास की तरह सास्वत बनाना है।

21वीं शदी में वृद्धजनों को अपनी सोच में बदलाव लाना अनिवार्य है। यदि वे अपनी मजबूत सोच और संयमित, अनुशासित दिनचर्या को बनाये रखेंगे तो सदैव आत्मनिर्भर रहते हुए आने वाली पीढी को सकारात्मक संदेश देंगे। उनका जीवन भी सम्मान पूर्ण बना रहेगा। पश्चिमी सभ्यता के वायरस से ग्रसित आज की युवा पीढी को भारतीय संस्कृति का पाठ पढाने की अहम जिम्मेदारी हमारे बुर्जगों पर ही है। अपने अनुभवों और धैर्य के साथ वे दिशा भ्रमित नव यूवकों की दशा एवं दिशा बदल सकते हैं। 
किसी ने सच ही कहा है किः-  
A young man is a theory; an old man is a fact .

वृद्धावस्था आ गई है इसलिए परिश्रम करना बंद कर देना चाहिए, यह मान्यता गलत है। गतिशीलता का नाम ही जीवन है। बुढापा तो ऐसी अवस्था है, जिसमें एकांत साधाना का सुअवसर मिलता है। शारीरिक परिश्रम करना ही केवल काम नही होता बल्कि अपनी रचनात्मक उपलब्धियों से स्वयं के साथ अनेक लोगों का सहारा बना जा सकता है। ए.पी.जे. अब्दुल्ल कलाम आज भी अपने ज्ञान से युवाओं का मार्ग प्रश्सस्त कर रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है अपनी सोच को हमेशा श्रमशील बनाए रखना चाहिए। संसार में अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिन्होने महत्वपूर्ण कार्य वृद्धावस्था में किए और ऐसी सफलता प्राप्त की जो शारीरिक शक्ति से संपन्न युवा भी नही कर पाते।
जर्मनी के राष्ट्रनिर्माता प्रिंस बिस्मार्क 80 वर्ष की उम्र में भी युवकों के समान कार्य करते थे। गाँधी जी की चाल से चाल मिलाकर चलने में युवा भी पीछे रह जाते थे। देश की आजादी में उनकी उम्र कभी भी बाधा नही बनी। देश हित के लिए 77 वर्षिय अन्नाहजारे आज भी पूरे जोश से अनशन पर बैठने का  दम रखते हैं।

गैलिलीयो 70 वर्ष के थे जब उन्होने गति के नियम की रचना पूरी की। प्लेटो का दर्शनशास्त्र 81 वर्ष की आयु में परिमर्जित हुआ। भारत की डॉ. लक्ष्मी सहगल जिन्होने सुभाषचन्द्र बोस के साथ भारत की आजादी में अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया था। वे 92 वर्ष की उम्र में भी सामाजिक कार्यों से जुङी रहीं और अंत समय तक डॉक्टरी सेवा के माध्यम से निरंतर क्रियाशील रहीं।

आज निदरलैंड, स्विडन, चौकोस्लोवाकिया जैसे कई देशों में वृद्धावस्था को उत्साह मय बनाने हेतु मैराथन जैसी अनेक खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही है। वृद्धों को प्रोत्साहित करने एवं ऐसी प्रतियोगिताएं रखने में जर्मनी के डॉ. वान आकेन का पूर्ण सहयोग है। उनकी मान्यता है कि प्रतिदिन 20 से 30 किलोमीटर दौङने में उम्र कोई रुकावट नही होती। दौङने की गति धीरे-धीरे बढाने से मोटापा तो भागता ही है, साथ में रुधिर तंत्र के विकार भी नष्ट हो जाते हैं।

"Age is an issue of mind over matter.
If you don’t mind, it doesn’t matter."

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके इंसान अपने को वृद्धावस्था के अभिशाप से मुक्त कर सकता है।

 

 

 

Monday, 13 January 2014

Happy Makar Sankranti


 
कागज अपनी किस्मत से उङता है, लेकिन पतंग अपनी काबलियत से। किस्मत साथ दे ना दे, काबलियत जरूर साथ देती है इसलिए पतंग की तरह अपनी काबलियत को निखारते हुए सफलताओं के आकाश में इस तरह उङें कि अपनो के साथ भारत का भी मस्तक गौरवान्वित हो।
मकर संक्रान्ति के विशेष पर्व पर सभी को हार्दिक बधाई
(नोट पूर्व का संदेश पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें)
 
http://roshansavera.blogspot.in/2013/01/blog-post_13.html

Saturday, 11 January 2014

युवा शक्ति



स्वामी विवेकानंद जी इस संसार के वो नक्षत्र हैं जिसकी चमक भारतीय संस्कृति में आज भी विद्यमान है। साहस निर्भयता और ज्ञान के अपार सागर स्वामी विवेकानंद जी ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में लगभग 30 वर्ष की उम्र में भारतीय संस्कृति और धर्म को विश्व पटल पर गौरवान्वित किया। अपने युवा काल में ही स्वामी जी ने अपनी तेजस्वी वांणी से ये संदेश दिया कि अपना भारत देश महान है। उनकी बातें आज भी युवाओं को प्रेरणा देती है। विवेकानंद जी अपने विचारों के माध्यम से आज भी अमर हैं। युवाओं पर विश्वास करने वाले विवेकानंद जी के जन्मदिन (12 जनवरी) को युवा दिवस के रूप में मनाना हमारी भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण पहचान है।

विवेकानंद जी का कहना था किः- युवा वह है, जो अनिति से लङता है, जो दुर्गुणों से दूर रहता है, जो काल की चाल को बदल देता है, जिसमें जोश के साथ होश भी है, जिसमें राष्ट्र के लिए बलिदान की आस्था है, जो समस्याओं का समाधान निकालता है और प्रेरक इतिहास रचता है, जो बातों का बादशाह नही बल्कि काम करने में विश्वास रखता है।

आज भी विवेकानंद लाखों युवओं के प्रेरणास्रोत हैं। हम होंगे कामयाब  का विश्वास लिए कुछ कर गुजरने के हौसले के साथ आज का युवा ट्विटर और वाट्सअप को अपनाते हुए, तो कहीं फेसबुक के जरिये सामाजिक संदेशों को अधिक से अधिक जनमानस में पहुँचाने की क्षमता के साथ विश्वपटल पर अपना परचम फैला रहा है। अन्ना का आंदोलन हो या दामिनी का दर्द हर वक्त नई सोच और नई तकनीक के साथ दिखता है। उच्च स्तर की दिमागी क्षमता रखने वाला यह युवा पूरी दुनिया में हमारे देश का प्रतिनिधित्व करता है।

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज भी स्वामी विवेकानंद जी की कल्पनाओं के युवा भारत की दशा और दिशा बदल कर भारत को गौरवान्वित करने में सक्षम हैं। आधुनिक तकनिको के साथ आज का युवा भारत का भविष्य है, जो देश को आज से बेहतर सुन्दर, सक्षम और मजबूत बना सकता है। कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नही मन चाहिए" जैसे विचारों के साथ आज का युवाभारत को भय और भ्रष्टाचार जैसे राक्षसों से आजाद करा सकता है। स्वामी विवेकानंद जी ने युवाओं को आहवान करते हुए कहा था कि,

सभी शक्ति तुम्हारे भीतर है, आप कुछ भी और सब कुछ कर सकते हैं।
“All power is within you; you can do anything & everything”

स्वामी विवेकानंद जी के विचारों और शिक्षाओं को आत्मसात करने का प्रयास करते हुए उनका अभिनंदन एंव वंदन करते हैं।

जय भारत





Sunday, 5 January 2014

बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय



तारीखें बदलती हैं, साल बदलते हैं, किन्तु वक्त के इस बदलाव में सपने नही बदलते, आशाएं नही बदलती। आगे बढने की चाह कभी कमजोर नही होती। यही सोच विकास को मजबूती देती है। गतिमान समय के साथ अक्सर धूप के बीच बादल रूपी परेशानियाँ या असफलताएं भी अपने होने का एहसास करा देती हैं। कई बार ऐसा देखा जाता है कि इन क्षणिंक असफलताओं से हम में से कई लोग घबङा जाते हैं, जिसका असर आने वाले पल पर भी पढता है।

सच तो ये है कि, सभी परिस्थितियाँ कुछ न कुछ सबक दे कर जाती हैं। बदलती तारीखों के साथ प्रत्येक क्षेत्र में कुछ न कुछ बदलाव भी होता रहता है। जो समाज के विकास में भी जरूरी हैं। बहुत पहले डार्विन ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि, जो जीव परिस्थिती के अनुरूप अपने को ढाल लिये वही सरवाइव किये। ये सिद्धान्त आज की भागदौङ और तनाव भरी जिंदगी में अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आज वही सरवाइव कर सकता है जो नए माहौल के अनुरूप स्वंय को ढाल लेता है। जिंदगी की इस रेस में हम कई बार जीतते हैं तो कई बार हार भी जाते हैं। लेकिन यदि हम अपना दिमाग खुला रखें तो हर अनुभव हमें समृद्ध बनाता है।

आजकल एक बङी समस्या ये भी है कि, प्रेम में असफल युवा अपनी इस असफलता को जिंदगी की हार समझ लेते हैं। जबकि उनके पास अनेक ऐसी क्षमताएं होती हैं, जिससे वे नया इतिहास रच सकते हैं। उन युवकों को ये समझना चाहिए कि आधुनिक तकनिकों से लैस 21वीं सदी हीर-रांझा या लैला-मजनू का समय नही है। आज टू मिनट नूडल्स की दुनिया में प्रेम भी शार्ट टर्म कोर्स की तरह हो गया है। फेसबुक, ट्यूटर, वाट्सअप जैसे नवीन संचार साधनो के जमाने में भावनात्मक ताने-बाने को ढूंढना किसी मूर्खता से कम नही है। आज दोस्ती, कल ब्रेकअप वाले रिश्तों की यादों में स्वंय को समेटना और जिंदगी के किमती पलों को दुश्वर बनाना किसी आत्महत्या से कम नही है।

तारीखों के बदलते ही जो यादें या डर विकास की राह में बाधा पहुँचाए उन्हे अपनी मेमोरीकार्ड से डीलिट कर देना चाहिए। अर्थात बीती ताही बिसार दे आगे की सुधि लेय। खाली हुए स्पेस में सकारात्मक विचारों को सेव(Save) कर लेना चाहिए। इन सकारात्मक विचारों से ही डर पे जीत हासिल होती है। मन में ये संकल्प करें कि सकारात्मक हौसले की उङान से मंजिल तय करेंगे। दोस्तों, यकीनन किसी हाई वे पर हँसती खेलती जिंदगी आप का इंतजार करती मिल जायेगी।