Tuesday, 14 January 2014

वृद्धावस्था अभिशाप नही है।


समय का चक्र अबाध गति से चलता रहता है। नियति का यही स्वाभाव है। आज जो बालक है वह कल युवा तो परसों वृद्ध होगा। यह निर्विवाद सत्य है कि वृद्धावस्था में इंसान कमजोर हो जाता है किन्तु उसका ये अर्थ कदापी नही है, कि वह बेकार हो गया। वृद्ध हमारे समाज का वटवृक्ष होते हैं, जो ताउम्र हमें हर मुसीबत से बचाते हैं।

इंसान की स्वयं की सोच उसे बूढा बनाती है। भारत में लोगों की मानसिकता है कि वे 40 वर्ष के बाद बुढे हो जाते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद तो आलम ये होता है कि वे कहने लगते हैं भाई! हम तो अब आराम करेंगे हम बुढे हो चुके। वास्तव में यही सोच इंसान को बूढा बनाती है।

वृद्धास्था अभिशाप नही है वरन् हमारे देश में वृद्धावस्था अभिशाप  पर्याय बन गई है। बदलते नैतिक मुल्यों एवं सामाजिक विघटन ने वृद्वस्था को असहनिय बना दिया है। आज की आधुनिकता से परिपूर्ण दिनचर्या में उनके लिए किसी के पास समय नही है जिससे वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। वृद्धावस्था सहज अवस्था है, और इससे सभी को गुजरना पङता है। जीवन की इस अवस्था को मनु तथा वेदव्यास की तरह सास्वत बनाना है।

21वीं शदी में वृद्धजनों को अपनी सोच में बदलाव लाना अनिवार्य है। यदि वे अपनी मजबूत सोच और संयमित, अनुशासित दिनचर्या को बनाये रखेंगे तो सदैव आत्मनिर्भर रहते हुए आने वाली पीढी को सकारात्मक संदेश देंगे। उनका जीवन भी सम्मान पूर्ण बना रहेगा। पश्चिमी सभ्यता के वायरस से ग्रसित आज की युवा पीढी को भारतीय संस्कृति का पाठ पढाने की अहम जिम्मेदारी हमारे बुर्जगों पर ही है। अपने अनुभवों और धैर्य के साथ वे दिशा भ्रमित नव यूवकों की दशा एवं दिशा बदल सकते हैं। 
किसी ने सच ही कहा है किः-  
A young man is a theory; an old man is a fact .

वृद्धावस्था आ गई है इसलिए परिश्रम करना बंद कर देना चाहिए, यह मान्यता गलत है। गतिशीलता का नाम ही जीवन है। बुढापा तो ऐसी अवस्था है, जिसमें एकांत साधाना का सुअवसर मिलता है। शारीरिक परिश्रम करना ही केवल काम नही होता बल्कि अपनी रचनात्मक उपलब्धियों से स्वयं के साथ अनेक लोगों का सहारा बना जा सकता है। ए.पी.जे. अब्दुल्ल कलाम आज भी अपने ज्ञान से युवाओं का मार्ग प्रश्सस्त कर रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है अपनी सोच को हमेशा श्रमशील बनाए रखना चाहिए। संसार में अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिन्होने महत्वपूर्ण कार्य वृद्धावस्था में किए और ऐसी सफलता प्राप्त की जो शारीरिक शक्ति से संपन्न युवा भी नही कर पाते।
जर्मनी के राष्ट्रनिर्माता प्रिंस बिस्मार्क 80 वर्ष की उम्र में भी युवकों के समान कार्य करते थे। गाँधी जी की चाल से चाल मिलाकर चलने में युवा भी पीछे रह जाते थे। देश की आजादी में उनकी उम्र कभी भी बाधा नही बनी। देश हित के लिए 77 वर्षिय अन्नाहजारे आज भी पूरे जोश से अनशन पर बैठने का  दम रखते हैं।

गैलिलीयो 70 वर्ष के थे जब उन्होने गति के नियम की रचना पूरी की। प्लेटो का दर्शनशास्त्र 81 वर्ष की आयु में परिमर्जित हुआ। भारत की डॉ. लक्ष्मी सहगल जिन्होने सुभाषचन्द्र बोस के साथ भारत की आजादी में अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया था। वे 92 वर्ष की उम्र में भी सामाजिक कार्यों से जुङी रहीं और अंत समय तक डॉक्टरी सेवा के माध्यम से निरंतर क्रियाशील रहीं।

आज निदरलैंड, स्विडन, चौकोस्लोवाकिया जैसे कई देशों में वृद्धावस्था को उत्साह मय बनाने हेतु मैराथन जैसी अनेक खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही है। वृद्धों को प्रोत्साहित करने एवं ऐसी प्रतियोगिताएं रखने में जर्मनी के डॉ. वान आकेन का पूर्ण सहयोग है। उनकी मान्यता है कि प्रतिदिन 20 से 30 किलोमीटर दौङने में उम्र कोई रुकावट नही होती। दौङने की गति धीरे-धीरे बढाने से मोटापा तो भागता ही है, साथ में रुधिर तंत्र के विकार भी नष्ट हो जाते हैं।

"Age is an issue of mind over matter.
If you don’t mind, it doesn’t matter."

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके इंसान अपने को वृद्धावस्था के अभिशाप से मुक्त कर सकता है।

 

 

 

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