Thursday, 31 December 2015

2016 का कदम सभी के लिये मंगलमय हो

नव वर्ष 2016 ने सुबह के उजियारे के साथ द्वार पर आहट दी है। इक्किसवीं सदी कदम-दर-कदम चलते हुए अपने 16वें कदम के साथ नई उम्मीदों ओर नई सम्भावनाओं का प्रकाश फैलाने आ गई है। हिमालय की शीतल हवाओं के साथ सुखी जीवन का संदेश लिये, वर्ष 2016 "तमसो मा ज्योतिर्गमय" का गान हवाओं में गुंजायमान है। पक्षियों का कलरव और सागर की उठती-गिरती लहरों का संदेश आगे बढने को प्रोत्साहित कर रहे हैं।  मन में अच्छे विचारों के साथ सकारात्मक एहसास लिये हम सबको भी आगे बढना है।   हम अकेले नहीं हैं, पूरा ब्रह्मांड हम सबका दोस्त है और वो उन्हीं को सबसे सर्वोत्तम देता है जो सपने देखते हैं क्योंकि खुली आँखों से सपने देखने वालों के महान सपने हमेशा पूरे होते हैं। हमें अपने मिशन में कामयाब होने के लिए, अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त निष्ठावान होना पड़ेगा क्योंकि यदि हम अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ हैं तो, हम इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। इसी आत्मविश्वास की ऊर्जा के साथ हम सबको नये साल में अपने लक्ष्य को हासिल करते हुए नई इबारत लिखना है। इसलिये मित्रों, उठो जागो तब तक नही रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये क्योकि सच्चा प्रयास कभी निष्फल नहीं होता| अतः नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ कुछ अच्छा सोचें और अपनी सोच को कामयाबी का आसमान छुने दें। 2016 का कदम सभी के लिये मंगलमय हो। 



धन्यवाद
अनिता शर्मा




Wednesday, 30 December 2015

Motivational articles written by Anita Sharma


(1) हम सब अपने-अपने क्षेत्र में कामयाब होना चाहते हैं। उसके लिये हमें सबसे पहले अपने लक्ष्य को निर्धारित करना होगा और साथ ही आसमान छुने का हौसला रखना होगा क्योकि सफलता सरलता से नही मिलती।  रास्ते में जानी अनजानी अनेक बाधाएं सूरसा के मुहँ की तरह आपकी बुद्धिमता और धैर्य की परिक्षा लेने के लिये मिलती रहेंगी। समस्याओं का सामना करने का हौसला रखें और चल पङिये अपनी मंजिल की ओर। पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-
कोशिश करने वालों की हार नही होती

(2) कुछ पाकर खो देने का डर कुछ न पा सकने का भय, जिन्दगी की गाङी पटरी से उतर न जाए इन्ही छोटी-छोटी चिन्तओं के डर से घिरी रहती है जिन्दगी लेकिन जिस वक्त हम ठान लेते हैं कुछ नया करने का तभी जन्म लेता है साहस। पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-
साहस

(3) सब कुछ हमारे अनुकूल हो ये संभव नही है। जब हम किसी भी क्षेत्र में कोई भी काम शुरू करते हैं तो, अड़चने भी आती हैं और कार्य गलत भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में तनाव, दुःख और निराशा की चादर ओढ लेने से कभी भी समस्या का समाधान नही होता। कहते हैं भूल इंसान से ही होती है, अतः ऐसी परिस्थिति में जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को समेट कर खुशनुमा  माहौल में असफलता के कारणों को समझते हुए उसके निदान पर विचार करना चाहिये। पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-
हजार परेशानियों का हल, खुश रहना


(4) हम सबके भीतर अजस्र ऊर्जा शक्ति छिपी पङी है जिसे न तो हम 
पहचान पाते हैं और ना ही उसका समुचित उपयोग कर पाते हैं। जिस तरह से एक छोटे से बीज में एक बङा वृक्ष बनने की हर क्षमता होती है लेकिन कई बार सही पोषण न मिलने से वो अपने प्रारंभकाल में ही दम तोङ देता है। उसी तरह मनुष्य में भी अपार संभावनाये हैं जो कुछ तो वातारण के कारण पल्लवित नही हो पाती, तो कुछ उसके स्वयं के आलसी व्यवहार के कारण। अक्सर ये भी देखा जाता है कि अपार ऊर्जा के बावजूद कई लोग असफलता के डर से आगे बढने की हिम्मत नही करते। दर असल कमी संसार में नही है कमी तो हमारे मन में है। यदि हम चाहें तो बिगङे काम भी बना सकते हैं।पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-

(5) यदि हम किसी को आगे बढाना चाहते हैं तो उसके अच्छे कामो की प्रशंसा करें। उसे आगे बढाने के लिए प्रोत्साहित करें। नाकामियां तो उस रात की तरह है जिसे प्रोत्साहन रूपी प्रकाश से दूर किया जा सकता है। पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-
सफलता के रास्ते में प्रोत्साहन एक अचूक औषधी है


हर रात के बाद सुबह होती है। जिन्दगी हँसाती भी है रुलाती भी है,जो हर हाल में आगे बढने की चाह रखते हैं जिन्दगी उसी के आगे सर झुकाती है। हम जो भी कार्य करना चाहते हैं उसकी शुरुवात करें, आने वाली बाधाओं को सोच कर बैठ न जाएं। पूर्ण लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करेंः-
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

धन्यवाद 
अनिता शर्मा 









Monday, 28 December 2015

Memorable Articles written by Anita Sharma

उम्मीद या आशा तो जीवन का वो अंग है जिसको अपनाने से सकारात्मक परिणामों का आगाज होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टी से तो आशाए या उम्मीद तो एक ऐसा उपचार है, जो अवसाद में चले गये लोगों के लिये रामबांण दवा का काम करता है। पूरा लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें -  आशाओं का दीप जलाएं


आज के इस ई युग में बुद्धिमता का पैमैना भी बदल गया है। बच्चों की परवरिश का तरीका भी बदल रहा है। नित नये इज़ात होते एप ने माँ की लोरी का स्थान भी ले लिया है। डिजिटल क्लासेज ने बस्ते का भार कम कर दिया है। यदि वास्तविकता के चश्में से देखें तो, बच्चों का बचपन दूर हो रहा है। आजकल बच्चे जानकारियों को याद करने के बजाय गुगल या विकीपिडिया पर ढूंढना ज्यादा पसंद कर रहे हैं, जहाँ एक ही जानकारी कई लोगों द्वारा अपलोड होने से उसमें थोङा बहुत अंतर भी होता है। ऐसे में वास्तविक ज्ञान में कनफ्यूजन होना स्वाभाविक है। पूरा लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें -  डिजिटल इंडिया


मेरे मन में बाल अपराध को लेकर कुछ मंथन चल रहा है इसलिये मैने अपनी पूर्व की लाइन में शायद शब्द का इस्तमाल किया है क्योंकि ये जो बाल अपराध का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ रहा है, उसके लिये जिम्मेदार क्या सिर्फ नाबालिग बच्चे हैं ! या समाज और परिवार भी। आज हम सब एक सभ्य सुंदर और सुसंस्कृत भारत की कल्पना करते हैं।  सुरक्षित वातावरण की भी कामना रखते हैं किन्तु अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को दरकिनार कर देते हैं। मेरा मानना है कि, कोई भी शिशु जन्म से अपराधी नही होता उसके लिये अनेक कारण समाज में विद्यमान हैं।
 पूरा लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें -
आज के बालक भारत का भविष्य हैं


कैंसर से भी गम्भीर बिमारी से ग्रसित हमारी दकियानुसी रुढीवादी सोच का कुठाराघात बेटीयों पर जन्म से ही होने लगता है। अनेक जगहों की प्रथा के अनुसार बेटा होने पर उसका स्वागत थालियों, शंख तथा ढोल बजाकर करते हैं वही बेटी के जन्म पर ऐसा सन्नाटा जैसे कोई मातम मनाया जा रहा हो। ऐसी बेमेल धार्मिक परंपराएं जहाँ माताएं बेटे की लंबी उम्र के लिए उपवास और धार्मिक अनुष्ठान करती हैं वहीं बेटी की खुशहाली या लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या अनुष्ठान नही होता। जन्म से ही भेद-भाव का असर दिखने लगता है बेटीयों को उपेक्षित तथा बेटों को आसमान पर बैठा दिया जाता है।  पूरा लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें -  रुढीवादी सोच को अलविदा कहें

बचपन से ही बेटों को नारी के सम्मान और आदर की घुट्टी पिलाएं जिससे बेटीयों के प्रति हो रही विभत्स घटनाओं का अन्त हो सके।
सोचियेयदि बेटी न होगी तो बहन नही होगी, न माँ, न समाज, न देश होगा, न दुनिया होगी, फिर किस चाँद पर जायेंगे और और कौन सी दुनिया बसाएगें ???? मित्रों, सच तो ये है कि, बेटी है तो कल है, वरना विराना पल है। पूरा लेख पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें -   बेटी है तो कल है

धन्यवाद 
अनिता शर्मा 





Thursday, 24 December 2015

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदन मोहन मालवीय जी को नमन


सरस्वती पुत्र, भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी और मदन मोहन मालवीय जी के जन्मदिन पर शत् शत् नमन। महान व्यक्तित्व से परिपूर्ण ये माहान विभूतियां भारत का गौरव हैं। दोनों ही विभूतियों का जीवन हम सबके लिये प्रेरणा स्रोत है। उनका सम्पूर्ण जीवन ऐसा विद्यालय है, जिससे हम सब शिक्षा लेकर अपने जीवन को सार्थक और सफल बना सकते हैं। 

जन जन के प्रिय कवि और राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध कविता “कदम मिलाकर चलना होगा एक ऐसी कविता है जो अनेक परेशानियों में सकारात्मकता का प्रांण फूंकती है.... 

                                                बाधायें आती हैं आयें
                                                 घिरें प्रलय की घोर घटायें
                                                 पावों के निचे अंगारे 
                                            सिर पर बरसे यदि ज्वालायें 

                                              निज हाथों में हंसते-हंसते
आग लगाकर जलना होगा। 
कदम मिलाकर चलना होगा। 

हास्य-रूदन में, तूफानों में
अगर असंख्यक बलिदानों में
उद्यानों में, वीरानों में
अपमानों मेंसम्मानों में
उन्नत मस्तक, उभरा सीना
पीड़ाओं में पलना होगा। 
कदम मिलाकर चलना होगा। 

उजियारे में, अंधकार में
कल कहार में, बीच धार में
घोर घृणा में, पूत प्यार में
क्षणिक जीत में, दीघर हार में
जीवन के शत-शत आकर्षक
अरमानों को ढ़लना होगा। 
कदम मिलाकर चलना होगा। 


सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ
असफल, सफल समान मनोरथ
सब कुछ देकर कुछ न मांगते
पावस बनकर ढ़लना होगा। 
कदम मिलाकर चलना होगा। 


कुछ कांटों से सज्जित जीवन
प्रखर प्यार से वंचित यौवन
नीरवता से मुखरित मधुबन
परहित अर्पित अपना तन-मन
जीवन को शत-शत आहुति में
जलना होगा, गलना होगा। 
कदम मिलाकर चलना होगा।

आदरणिय अटल जी के बारे में अधिक जानने के लिये दिये गये लिंक पर क्लिक करेंः- 



आज हम मदन मोहन मालवीय जी का एक किस्सा आप सबसे सांझा कर रहे हैं। 

धैर्यवान महामना मदन मोहन मालवीय जी

एक बार कुछ अंग्रेज शिक्षाविद् बनारस आए हुए थे। उन्होने काशी हिंदु् विश्वविद्यालय देखने की इच्छा जाहिर की। मालवीय जी ने उन्हे विश्वविद्यालय की एक-एक इमारत दिखाई और विस्तार से सबके बारे में उन्हे समझाते भी रहे। सिर्फ एक इमारत बाकी रह गई थी, वह थी इंजीनियरिंग कॉलेज की इमारत। चुंकी मालवीय जी को किसी जरूरी बैठक में जाना था , अतः उन्होने प्रो.टी.आर. शेषाद्रि से कहा कि आप इन महानुभावों को इंजीनियरिंग कॉलेज दिखा दें।

प्रो. शेषाद्रि बोले- " अब तो शाम हो गई है। शायद कॉलेज भी बंद हो गया होगा।"
फिर भी मालवीय जी ने कहा-  "कोई बात नही, वहाँ कोई चपरासी तो होगा ही।"

शेषाद्रि जी ने फिर शंका व्यक्त की - " बहुत संभव है कि इस समय कोई चौकीदार भी न हो। "

मालवीय जी ने उसी धैर्य से कहा - "फिर भी ये लोग बंद दरवाजों में लगे काँच से ही झांक कर देख लेंगे। आप इन्हे ले जाइये।"

मालवीय जी और प्रो. शेषाद्रि की वार्तालाप सभी अंग्रेज शिक्षाविद् मेहमान सुन रहे थे। मालवीय जी के शांत और धैर्यपूर्वक उत्तर को सुनकर, उनमें से एक ने कहा - अब मेरी समझ में आया कि किस प्रकार इतने बङे विश्वविद्यालय का का निर्माण हुआ होगा। 

सच है मित्रों, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के धीरज का ही परिणाम है, बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय जिसके निर्माण का संकल्प उन्होने इलाहाबाद के कुंभ मेले में वहाँ आये हुए श्रद्धालुओं के बीच लिये थे। वहीं पर एक वृद्धा ने उनको इस कार्य हेतु पहला चंदा दिया था। महान विभूती पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी के बारे में विस्तार से पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें :-







Tuesday, 22 December 2015

निर्भया को नही मिला इंसाफ


निर्भया एक ऐसा नाम जिसने देश में सभी को एक ज्योति के तले ला खड़ा किया था। 16 दिसम्बर 2012 को निर्भया को ऐसी विकृत मानसिकता ने घायल किया कि वह परलोक सिधार गई; किन्तु अपने पिछे कई प्रश्न   हमारी न्यायपालिका और कार्यपालिका  तथा समाज के लिये छोड़ गई .........
क्या उसका लड़की होना अपराध था?????  
क्या उसे आगे बढने और सफल होने का अधिकार नही था???? 
क्या न्याय माँगना अपराध है???? 

आज जिस तरह बेटी बचाओ और बेटी पढाओ का नारा लगाया जा रहा मुझे तो बस ये नाटक नजर आ रहा है क्योंकि जहाँ बेटीयों को स्वतंत्र और निर्भय आसमान न हो वहाँ बेटी को कोख में बचा भी लिये और पढा भी दिये तो उस दुषित मानसिकता से कैसे बचाओगे जिसे नाबालिग कहकर छोड़ दिया जाता है। बालिगों जैसे अपराध को अंजाम देने वाले अपराधी को समय रहते सजा न देना, कानून में परिवर्तन न करना यहि दिखाता है कि सरकार, समाज और न्यायपालिका को इसकी कोई चिंता नही है। अगर बेटियों की इतनी ही चिंता होती तो 2012 से 2015 तक के बीच में  समय रहते सदन के सभी सदस्य सजगता दिखाते और जुवेनाइल जस्टिस बिल (किशोर न्याय अधिनियम) पास हो चुका होता; जिससे निर्भया को इंसाफ मिलता। सबसे क्रूर मानसिकता वाला अपराधी; नाबालिग कानून के तहत रिहा नही होता।  और तो और सबसे बङी विडंबना ये है कि न्याय के लिये गुहार लगाने पर निर्भया के माता-पिता को हिरासत में ले लिया गया। इस तरह की कार्यप्रणाली हमारे जनप्रतिनिधियों की प्राथमिकता क्या है,  इस पर एक प्रश्न चिन्ह लगाती है।  आज इसपर विचार करना बहुत जरूरी है क्योंकि उनकी कथनी और करनी  एक समान नजर नही आ रही है। 

आज सरे आम बेखौफ दुषित मानसिकता का प्रहार बेटीयों और महिलाओं पर हो रहा है फिर भी हमारी सरकार, समाज और न्याय व्यवस्था; कानून तथा साक्ष्य की ही दुहाई दे रही है। निर्भया जैसी कई बेटियां हैं जिन्हे इंसाफ नही मिल रहा है। एक वहशी दरिंदे की शिकार बेटी किस मनोस्थिती से गुजरती है वह दर्द अकल्पनिय है तथा ऐसे दरिन्दों को माफ कर देना समाज में जहर फैलाने के समान है। 

मित्रो, बेटी शब्द सुनकर मेरे मन में अनायास ही प्रेम , दुलार, ममत्व और करुणा की प्रतिमूर्ति नजर आने लगती है। जीवन को जीने के मायने सिखाने वाली बेटी एक नही दो कुलों का मान होती है। बेटी तो निःश्चल प्रेम की अविरल धारा है। परन्तु आज जिसतरह से उसकी सुरक्षा को लेकर अनदेखी की जा रही है तो वो दिन दूर नही जब ये धारा, धरा पर से विलुप्त ही हो जायेगी, क्योंकि कोई माँ अपनी बेटी को उस संसार का हिस्सा नही बनने देगी जहाँ जिवन तो है पर जीने की आजादी न हो। कोख से लेकर जिवन पर्यन्त जहाँ अनेकों यम बेटी को निगलने को तैयार हों वहाँ बेटी के किस भविष्य को हम संवारेगे या उसे किस दुनिया का सपना दिखायेंगे?

अतः एक महिला होने के नाते मेरा अनुरोध है , आज के आधुनिक शिक्षित सभ्य समाज, सरकार और न्याय व्यवस्था से कि, यदि यथार्त में बेटी बचाओ बेटी पढाओ को सार्थक करना चाहते हैं; तो ऐसी व्यवस्था का विस्तार करें जहाँ बेटियों को सुरक्षित और सभ्य आसमान मिले, निर्भया जैसी सभी बालिकाओं को इंसाफ मिले। 

16 दिसम्बर 2012 की पोस्ट पढने के लिये लिंक पर क्लिक करें
एक आवाज
प्रश्न ये उठता है कि क्या! अमानवीय कृत्यों वाले इंसान अलग दुनिया से आते हैंनही मित्रों, ये भी उसी समाज के अंग हैं, जिस समाज में हम और आप रहते हैं।  जब हम महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को सुनते हैं तो मन में ख्याल आता है कि हम किस समाज में रह रहे हैं, स्त्रियों के प्रति ऐसी सोच क्यों?







Sunday, 13 December 2015

दृष्टीबाधिता अभिशाप नही है


आज हम सब डिजिटल इण्डिया में अपने विकास का प्रतिबिंब देख रहे हैं। उसी के अन्तर्गत वाट्सएप क्रांती एक नया आयाम रच रही है, जहाँ अनेक ऐसे ग्रुप नजर आ जायेंगे जो अनेकता में एकता का प्रतिक है। जहाँ एक भारत नज़र आता है। ऐसा ही हम लोगों का भी वाट्सएप ग्रुप है वाइस फॉर ब्लाइंड(Voice for blind),  जिसके सभी सदस्य विभिन्न धर्म , जाति और प्रांत के हैं। संचार क्रंति के महत्व को समझते हुए हम सबके मन में विचार की एक नई क्रांति का उदय हुआ और उसके मद्देनज़र वाइस फॉर ब्लाइंड  ग्रुप पर सात दिन की विचार  गोष्ठी का आयोजन किया गया।विचारों का आदान प्रदान 3 दिसम्बर से 10 दिसम्बर तक चला। संगोष्ठी का विषय था, "विकलांगता को नई टेक्नोलॉजी के साथ मुख्यधारा में लाना"  जिसमें हमारे अनेक निःशक्त साथियों ने बढ चढ कर हिस्सा लिया और अपने विचारों तथा अनुभवों के सूरों को नित नये आयाम का आधार दिया। आयोजन का महत्वपूर्ण बिन्दु था कि समाज तथा सरकार द्वारा विकलांगता के क्षेत्र में हो रही उदासिनता को कैसे दूर किया जाये क्योंकि विकलांगता कोई अभिशाप नही है। कहते हैं "एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाये " इसी बात को ध्यान में रखकर हमारा विशेष ध्यान दृ्ष्टीबाधित लोगों पर रहा। उनके विकास में आने वाली समस्याओं और उनका क्या निदान हो सकता है, इसपर विशेष चर्चा हुई। 
 
सप्तदिवसिय संगोष्ठी, सप्तरिषी मंडल की आभा की तरह ज्ञान के विचारों से प्रकाशमान रही। हर किसी का जज़बा आसमान छुने का था। मन में अच्छे विचार लिये विवेकानंद जी  का भारत काल की चाल को बदलने के लिये तद्पर था। 
समस्याओं के बीच में भी हर किसी के मन में समाधान का जज़बा था क्योंकि वे विज्ञान की नई टेक्नोलॉजी के साथ इतिहास रचने को तैयार हैं। सप्तसुरों के आरोह एवं अवरोह के क्रम में जिवन के सभी उतार चढाव पर विचार विमर्श हुआ। जैसे कि, उनका रहन-सहन, ब्रेल लिपी का महत्व, व्हाइट केन की प्रासंगिता तथा शिक्षा एवं जॉब में आ रही परेशानियों पर चर्चा हुई। इसके साथ ही यातायात में आ रही दिक्कतें तथा उनके निदान पर सुझाव भी आये। सुझावों को व्यवहार में लाने के लिये समाज और सरकार का साथ मिल जाये तो, निःसंदेह दृष्टीबाधित लोगों की समस्या का समाधान पलभर में हो सकता है। 


विकास के इस दौर में दृष्टीबाधिता के क्षेत्र में मुश्किले सूरसा के मुख की तरह हैं फिर भी अनेक सदस्य अपनी दृष्टीबाधिता को नकारते हुए आज समाज में नयी पहचान बना रहे हैं। राह आसान नही है फिर भी उनका मानना है कि,  "ऑधियों को जिद्द है जहाँ बिजली गिराने की हमें भी जिद्द है वहीं आशियां बसाने की" 

जन्म लेते ही यदि दृष्टी नही है तो सबसे पहले परिवार की हताशा और अवहेलना का एहसास। थोड़े बड़े हुए तो पड़ोसियों के कटाक्ष भरे शब्दों ने घायल किया। शिक्षा प्राप्त करने की राह में समाज और सरकार की उदासीनता, जीवन में अमावस का चाँद बन गई। यदि अनेक बवंडरों को पार करते हुए शिक्षा ग्रहण कर भी लिये तो रोजगार की समस्या, रेत में पानी ढूंढने के समान है। सबसे बड़ी विडंबना तो तब होती है जब बौद्धिक क्षमता के बावजूद ज्ञान की अग्नि परिक्षा से लगभग हर दृष्टीबाधित विद्यार्थी को गुजरना पड़ता है क्योंकि आज के शिक्षित समाज के जह़न में यही प्रश्न रहता है कि, दृष्टी बिना विकास कैसे????
 
मित्रों, सच तो ये है कि विज्ञान की नई टेक्नेलॉजी उनकी आँखे हैं और आगे बढने का जज़बा हर दिन जिंदगी को एक नया ख्वाब देता है। इस दुनिया में कोई भी परफैक्ट नही होता। हर किसी में  कुछ कमी है तो कुछ प्रतिभा भी होती है। किन्तु मंजिल उन्ही को मिलती है जिनके सपनो में जान होती है पंखो से कुछ नही होता हौसले से उड़ान होती।

As far as we are concerned, Disability means Possibility


आज जिस तरह से विज्ञान की टेक्नोलॉजी किसी से भेद-भाव नही करती हर किसी के जीवन की राह आसान करती है, उसी तरह समाज और परिवार का भी हर किसी के साथ सहयोग का भाव हो तो शारिरिक अक्षमता के बावजूद विकास की नई इबारत लिखी जा सकती है।जीवन में असली सफलता हम तभी हासिल कर सकते हैं, जब हम दूसरों को सफल होने में मदद करना सीख लेते हैं। तो दोस्तों, आइये हम सब मिलकर कुछ अच्छा सोचें , कुछ अच्छा करें खुद को एवं अपनी सोच को समभाव का आसमान छुने दें क्योंकि किसी की मदद करने के लिये केवल धन की जरूरत नही होती, बल्की उसके लिये एक अच्छे मन की जरूरत होती है।

गौतम बुद्ध ने कहा है कि , किसी और के लिये दिया जलाकर आप अपने रास्ते का भी अंधेरा दूर करते हैं।

Kindness is a language which deaf can hear and blind can see 

धन्यवाद :) 
  

Saturday, 5 December 2015

जागो भारत जागो


हमारा देश भारतवर्ष   तीर्थकंर ऋष्भनाथ के पुत्र भरत के नाम का प्रतीक है। भारतवर्ष में कृष्ण की बांसुरी का मधुर स्वर तो कहीं राम की मर्यादा का पाठ पढाया जाता है। नानक की वाणीं और कूरान की आयतें सुबह की पहली किरण पर सवार होकर वातावरण को सकारात्मक बनाती हैं। कबीर और विवेकानंद के देश में, मंदिर की घंटी और मस्जिद का अज़ान गुंजायमान होता है। भारत के गौरव, प्रेमचंद और निराला जी की रचनाओं में भारत के समाज की पीढा नज़र आती है। उनके शब्दों में नारी का दुःख और वृद्धा की कराह नजर आती है। मैथली शरण गुप्त जी की कविताएं देशप्रेम का अलख जगाती हैं। जयशंकर हों या भारतेंदु हरिश्चन्द्र, कालीदास हों या चाण्क्य, हर किसी का गौरव है भारतवर्ष और बुद्धीजीवियों की रचनाएं, भारत के भाल का तिलक हैं। 

मित्रों, अनेकता में एकता का प्रतिक भारत पर  विगत कुछ समय से चन्द लोगों की वज़ह से एक ऐसा वायरस फैलाया जा रहा है, जो किसी के लिये भी हितकर नही है। इतिहास गवाह है कि भारतवर्ष हिन्दुत्व का गण रहा है, फिरभी भारत ने हमेशा अपनी उदारता से "अतिथी देवो भवः" पर ही विश्वास किया है। इसी का परिणाम है कि यहाँ विभिन्न जाति, धर्म और समप्रदाय फल फूल रहे हैं। भारतवर्ष की सहिष्णुता का ही प्रतीक है, कुतुबमिनार तथा ताजमहल। भारत में रहने वाले सभी भारतीय एक हैं और इनमें से किसी एक पर भी यदि कोई कुठाराघात होता है, तो उसकी पीढा हम सबको होती है। लेकिन जिस तरह से आज-कल बुद्धीजीवी वर्ग विरोध कर रहा है, वो हमारी भारतीय परंपरा को घायल कर रहा है। जिस देश की आत्मा में "वसुधैव कुटुंबकम"  का वास है, उस देश में कुछ साहित्यकारों ने अपना सम्मान लौटाकर ये दिखा दिया कि उनका अपना एक  अलग समाज है क्योंकि मैने इसके पहले अनेकों निर्भया की सिसकियों पर किसी को भी सम्मान लौटाते नही देखा। 1984 का दंगा शायद ही कोई भूला होगा। जिसमें एक खास वर्ग पर ऐसा हमला हुआ जिसने औरंगजेब की क्रूरता को जिवंत कर दिया था। मन में ये प्रश्न उठना लाज़मी है कि, आज भी हमारी बेटियां शैतानी हवस का शिकार हो रही हैं, किन्तु उनकी इफाज़त के लिये क्यों नही कोई अपना सम्मान वापस करता???

सबको समान अधिकार और अभिव्क्ति की स्वतंत्रता वाले देश में आज शाहरुख तथा आमीर जैसे कलाकारों को असहिष्णुता नज़र आती है। जबकी इसी देश में वो जीरो से हिरो बने तथा शौहरत कमायें हैं। आज असहिष्णुता के नाम पर जो लोग भारत को बदनाम कर रहे हैं, उनकी मनोवृत्ति अभिमानी है एवं दुषित राजनीति से प्रेरित है। इनका व्यवहार तो "जिस थाली में खाये उसी में छेद करना" जैसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है। 

मित्रों, मेरा मानना है कि, देश का बुद्धीजीवी वर्ग चाहे वो साहित्यकार हो, फिल्मी दुनिया से जुङा हो या विज्ञान से किसी भी क्षेत्र का हो, उसे धर्म, जाति या राजनीती के दलदल में नही फंसना चाहिये। उनके व्यक्तित्व में भारतियता का आईना नज़र आना चाहिये क्योकि वो समस्त राष्ट्र के गौरव होते हैं न की किसी एक जाति विशेष के। मेरा अुनरोध है उन सभी कलम के सिपाही से कि, कलम की ताकत को सृजनात्मक लेखन की ताकत बनायें जो विकट से विकट परिस्थिति में भी भाई-चारे का सूरज उदय करे। लिखये उस व्यवस्था पर जो जघन्य अपराध के बाद भी अपराधी को उम्र के आधार पर नाबालिग कहकर छोङ रही है। लिखिये उस बेटी के हक पर जो सिमटी सहमी अपनी दुर्गति की चादर ओढे कहीं सिसक रही है। आइये हम सब मिलकर ज्ञान के गुरु भारतवर्ष को गौरवान्वित करें तथा एक भारत श्रेष्ठ भारत को साकार करें।
जय शंकर प्रसाद जी कविता से कलम को विराम देते हैंः- 
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को 

मिलता एक सहारा।


सरस तामरस गर्भ विभा पर 
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर 

मंगल कुंकुम सारा।। 

                

 जय भारत जय हिन्द 
    अनिता शर्मा
voiceforblind@gmail.com                                           

(ये लेख मेरी निजी राय है, जिसे मैने संविधान की  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लिखा है, आशा करते हैं मेरी भावना किसी को आहत नही करेगी)