हमारा देश भारतवर्ष तीर्थकंर ऋष्भनाथ के पुत्र भरत के नाम का प्रतीक है। भारतवर्ष में कृष्ण की बांसुरी का मधुर स्वर तो कहीं राम की मर्यादा का पाठ पढाया जाता है। नानक की वाणीं और कूरान की आयतें सुबह की पहली किरण पर सवार होकर वातावरण को सकारात्मक बनाती हैं। कबीर और विवेकानंद के देश में, मंदिर की घंटी और मस्जिद का अज़ान गुंजायमान होता है। भारत के गौरव, प्रेमचंद और निराला जी की रचनाओं में भारत के समाज की पीढा नज़र आती है। उनके शब्दों में नारी का दुःख और वृद्धा की कराह नजर आती है। मैथली शरण गुप्त जी की कविताएं देशप्रेम का अलख जगाती हैं। जयशंकर हों या भारतेंदु हरिश्चन्द्र, कालीदास हों या चाण्क्य, हर किसी का गौरव है भारतवर्ष और बुद्धीजीवियों की रचनाएं, भारत के भाल का तिलक हैं।
मित्रों, अनेकता में एकता का प्रतिक भारत पर विगत कुछ समय से चन्द लोगों की वज़ह से एक ऐसा वायरस फैलाया जा रहा है, जो किसी के लिये भी हितकर नही है। इतिहास गवाह है कि भारतवर्ष हिन्दुत्व का गण रहा है, फिरभी भारत ने हमेशा अपनी उदारता से "अतिथी देवो भवः" पर ही विश्वास किया है। इसी का परिणाम है कि यहाँ विभिन्न जाति, धर्म और समप्रदाय फल फूल रहे हैं। भारतवर्ष की सहिष्णुता का ही प्रतीक है, कुतुबमिनार तथा ताजमहल। भारत में रहने वाले सभी भारतीय एक हैं और इनमें से किसी एक पर भी यदि कोई कुठाराघात होता है, तो उसकी पीढा हम सबको होती है। लेकिन जिस तरह से आज-कल बुद्धीजीवी वर्ग विरोध कर रहा है, वो हमारी भारतीय परंपरा को घायल कर रहा है। जिस देश की आत्मा में "वसुधैव कुटुंबकम" का वास है, उस देश में कुछ साहित्यकारों ने अपना सम्मान लौटाकर ये दिखा दिया कि उनका अपना एक अलग समाज है क्योंकि मैने इसके पहले अनेकों निर्भया की सिसकियों पर किसी को भी सम्मान लौटाते नही देखा। 1984 का दंगा शायद ही कोई भूला होगा। जिसमें एक खास वर्ग पर ऐसा हमला हुआ जिसने औरंगजेब की क्रूरता को जिवंत कर दिया था। मन में ये प्रश्न उठना लाज़मी है कि, आज भी हमारी बेटियां शैतानी हवस का शिकार हो रही हैं, किन्तु उनकी इफाज़त के लिये क्यों नही कोई अपना सम्मान वापस करता???
सबको समान अधिकार और अभिव्क्ति की स्वतंत्रता वाले देश में आज शाहरुख तथा आमीर जैसे कलाकारों को असहिष्णुता नज़र आती है। जबकी इसी देश में वो जीरो से हिरो बने तथा शौहरत कमायें हैं। आज असहिष्णुता के नाम पर जो लोग भारत को बदनाम कर रहे हैं, उनकी मनोवृत्ति अभिमानी है एवं दुषित राजनीति से प्रेरित है। इनका व्यवहार तो "जिस थाली में खाये उसी में छेद करना" जैसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है।
मित्रों, मेरा मानना है कि, देश का बुद्धीजीवी वर्ग चाहे वो साहित्यकार हो, फिल्मी दुनिया से जुङा हो या विज्ञान से किसी भी क्षेत्र का हो, उसे धर्म, जाति या राजनीती के दलदल में नही फंसना चाहिये। उनके व्यक्तित्व में भारतियता का आईना नज़र आना चाहिये क्योकि वो समस्त राष्ट्र के गौरव होते हैं न की किसी एक जाति विशेष के। मेरा अुनरोध है उन सभी कलम के सिपाही से कि, कलम की ताकत को सृजनात्मक लेखन की ताकत बनायें जो विकट से विकट परिस्थिति में भी भाई-चारे का सूरज उदय करे। लिखये उस व्यवस्था पर जो जघन्य अपराध के बाद भी अपराधी को उम्र के आधार पर नाबालिग कहकर छोङ रही है। लिखिये उस बेटी के हक पर जो सिमटी सहमी अपनी दुर्गति की चादर ओढे कहीं सिसक रही है। आइये हम सब मिलकर ज्ञान के गुरु भारतवर्ष को गौरवान्वित करें तथा एक भारत श्रेष्ठ भारत को साकार करें।
जय शंकर प्रसाद जी कविता से कलम को विराम देते हैंः-
जय शंकर प्रसाद जी कविता से कलम को विराम देते हैंः-
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम सारा।।
जय भारत जय हिन्द
अनिता शर्मा
voiceforblind@gmail.com
अनिता शर्मा
voiceforblind@gmail.com
(ये लेख मेरी निजी राय है, जिसे मैने संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लिखा है, आशा करते हैं मेरी भावना किसी को आहत नही करेगी)
अच्छा लिखा है मेम...
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteजो ऐसा बोल रहे हैं वे भी अन्दर से जानते हैं कि अगर ऐसा होता तो वे ऐसा बोल भी नहीं पाते... आपने भारत के इतिहास और सहिष्णुता की मिसाल को अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है. धन्यवाद !
ReplyDeleteBahut accha likha hai aapne.....very impressive.....
ReplyDeleteFrom- AapkiSafalta
Bahut achha likhe hain mam
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