सरस्वती
पुत्र, भारत
रत्न अटल बिहारी वाजपेयी और मदन मोहन मालवीय जी के जन्मदिन पर शत् शत् नमन। महान
व्यक्तित्व से परिपूर्ण ये माहान विभूतियां भारत का गौरव हैं। दोनों ही विभूतियों
का जीवन हम सबके लिये प्रेरणा स्रोत है। उनका सम्पूर्ण जीवन ऐसा विद्यालय है, जिससे हम सब शिक्षा लेकर अपने जीवन को सार्थक और सफल बना सकते हैं।
जन
जन के प्रिय कवि और राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध कविता “कदम मिलाकर चलना होगा” एक ऐसी कविता है जो
अनेक परेशानियों में सकारात्मकता का प्रांण फूंकती है....
बाधायें आती हैं आयें
घिरें प्रलय की घोर
घटायें
पावों के निचे अंगारे
सिर
पर बरसे यदि ज्वालायें
निज हाथों में
हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीघर हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढ़लना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
आदरणिय अटल जी के बारे में अधिक जानने के लिये दिये गये लिंक पर क्लिक करेंः-
आज
हम मदन मोहन मालवीय जी का एक किस्सा आप सबसे सांझा कर रहे हैं।
धैर्यवान
महामना मदन मोहन मालवीय जी
एक
बार कुछ अंग्रेज शिक्षाविद् बनारस आए हुए थे। उन्होने काशी हिंदु् विश्वविद्यालय
देखने की इच्छा जाहिर की। मालवीय जी ने उन्हे विश्वविद्यालय की एक-एक इमारत दिखाई
और विस्तार से सबके बारे में उन्हे समझाते भी रहे। सिर्फ एक इमारत बाकी रह गई थी, वह थी इंजीनियरिंग
कॉलेज की इमारत। चुंकी मालवीय जी को किसी जरूरी बैठक में जाना था , अतः उन्होने
प्रो.टी.आर. शेषाद्रि से कहा कि आप इन महानुभावों को इंजीनियरिंग कॉलेज दिखा दें।
प्रो.
शेषाद्रि बोले- " अब तो शाम हो गई है। शायद कॉलेज भी बंद हो गया होगा।"
फिर
भी मालवीय जी ने कहा- "कोई बात नही, वहाँ कोई चपरासी तो
होगा ही।"
शेषाद्रि
जी ने फिर शंका व्यक्त की - " बहुत संभव है कि इस समय कोई चौकीदार भी न हो।
"
मालवीय
जी ने उसी धैर्य से कहा - "फिर भी ये लोग बंद दरवाजों में लगे काँच से ही झांक कर
देख लेंगे। आप इन्हे ले जाइये।"
मालवीय
जी और प्रो. शेषाद्रि की वार्तालाप सभी अंग्रेज शिक्षाविद् मेहमान सुन रहे थे।
मालवीय जी के शांत और धैर्यपूर्वक उत्तर को सुनकर, उनमें से एक ने कहा -
अब मेरी समझ में आया कि किस प्रकार इतने बङे विश्वविद्यालय का का निर्माण हुआ
होगा।
सच
है मित्रों, महामना
पंडित मदन मोहन मालवीय जी के धीरज का ही परिणाम है, बनारस हिन्दु
विश्वविद्यालय जिसके निर्माण का संकल्प उन्होने इलाहाबाद के कुंभ मेले में वहाँ
आये हुए श्रद्धालुओं के बीच लिये थे। वहीं पर एक वृद्धा ने उनको इस कार्य हेतु
पहला चंदा दिया था। महान
विभूती पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी के बारे में विस्तार से पढने के लिये लिंक
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