Sunday, 27 January 2013

पत्र


संदेशों, आर्शिवचनों, शुभकामनाओं से भरा एक प्यारा उपहार, लिफाफे में रखा एक ऐसा हस्त लिखित कागज जो जज़बातों तथा अपनेपन की सुनहरी याद दिलाता है। कितने सुखद एहसास की याद दिलाता है, वो पल जब सुनते हैं-
डाकिया डाक लाया, डाकिया डाक लाया। खुशी का पयाम कहीं,...... 
दोस्तों, एक निश्चित समय पर पोस्टमैन की साइकिल की घंटी या उसकी चिर-परिचित आवाज -"पोस्टमैन" एक ऐसी ध्वनि जिसको सुनकर बरबस ही दरवाजे की ओर कदम बढ जाते, ये देखने  को कि किसका खत आया।

मित्रों, आज तो देखते-देखते हम उस युग में आ गये हैं, जहाँ भौगोलिक दूरियाँ समाप्त हो गईं हैं। ISD एवं STD ने बातों का दायरा बढा दिया। SMS तथा E-Mail  पर तो समय की भी बंदिश नही है। आज हर शख्स मोबाइल फोन कान पर लगाये हाँथ लहराकर इस तरह डूबा दिखाई देता है, जैसे किसी मन पसंद गाने का आंनद ले रहा हो। बेशक दुनिया करीब आ गई है किन्तु पत्रों ने साहित्य को जो गहनतम, व्यक्तिगत और अंतरंग आयाम दिये हैं, वो भावनात्मक एहसास, आज के SMS में असंभव है।

भरतीय डाक सेवा विश्व की सबसे बङी डाक सेवा मानी जाती है। दूसरे नम्बर पर चीन का नाम आता है। संदेश प्रणाली का संर्दभ अथर्ववेद में भी मिलता है। पहले दूत और कबूतर के माध्यम से सूचना दी जाती थी। गीतकारों ने क्या खूब लिखा है- "कबूतर जा, कबूतर जा पहले प्यार की पहली चिठ्ठी साजन को पहुँचा।", "फूल तुम्हे भेजा है खत में, फूल नही मेरा दिल है।" या "लिखे जो खत तुम्हे वो तेरी याद में हजारों रंग के नजारे बन गये"। ऐसी अद्भुत रचनाएं कवि की कल्पनाओं को सजीव कर देती हैं, जब हम सब किसी अपने का पत्र पढते हैं।

दोस्तों, उन खतों की बात ही कुछ और है जो हमारे अभिभावकों ने हमें लिखे। ये पत्र उनके न रहने पर भी उनके होने का एहसास कराते हैं। एक छोटे बच्चे की टेढी-मेढी लाइनों से लिखा शब्द जब पत्र की शक्ल में होता है, तो बच्चे की तस्वीर कागज में स्वतः ही उभर आती है। आज के E-Mail युग में Key-Board पर सभी अक्षर एक समान; "किसने लिखा?" लिखावट से तो समझ  नही सकते। उन बधाई पत्रों का महत्व और बढ जाता है जिस पर भेजने वाला अपने हाँथ से कुछ लिख देता है। ऐसे कार्ड या स्वलिखित पत्र रस्मो-रिवाजों से परे, भेजने वाले की भावनाओं को तथा अपनेपन को परिलाक्षित करते हैं।
मित्रों, अमेरिका के 32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट की आदत थी कि जब भी उनका निजी सचिव कोई पत्र टाइप करके उनके हस्ताक्षर के लिये लाता तो वह कहीं-कहीं कुछ लिख देते या अंत में पेन से कुछ लिख देते। सचिव उसे वापस टाइप करके हस्ताक्षर के लिये ले आता। रूजवेल्ट वापस कुछ लिख देते, आखिर सचिव ने पूछ ही लिया कि- आपको जो लिखना हो, वो डिक्टेशन देते समय ही क्यों नही लिखवा देते? हाँथ से लिख देने से पत्र कुछ भद्दा नही लगता?”
राष्ट्रपति रूजवेल्ट सचिव को समझाते हुए बोले- मित्र, यह तुम्हारी भूल है, मेरे हाँथ से लिख देने से  पत्र की शोभा और बढ जाती है। मेरे लिखने से पत्र औपचारिक नही रहता, वो सौहार्दपूर्ण हो जाता है।

चिठ्ठियाँ जज़बातों को जाहिर करने का सबसे अच्छा माध्यम हैं। आज भी सीमा पर तैनात जवानों को अपने वतन से हजारों मील दूर चिठ्ठियों के माध्यम से ही संदेश मिलता है। इन संदेशों में उनके घर, गाँव और देश की मिट्टी की सुगंध होती है। ये पत्र उन्हे ताजगी देते हैं। हौसला बढाता हुआ माँ का आर्शिवाद, जिम्मेदारियों का संदेश देती पिता की नसीहत, जिससे वे वतन की रक्षा और अधिक सजगता से करते हैं। अपनों का संदेश पढकर गुनगुनाने लगते हैं- "चिठ्ठी आई है आई है, बङे दिनों के बाद वतन की मिट्टी आई है।"

बेशक आज हम आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण हैं -

"फिर भी भावनाओं के शब्दों से,
कोरे कागज को सजाना लाज़मी है। 
चिठ्ठी-पत्री के माध्यम से अपनी दुआएं
और शुभकामनाएं
अपनों तक पहुँचाना भी लाज़मी है।

जो खत तूफानों से, विस्फोटों से, 
बदलती हुई सदियों में न डरा, 
उसे एक छोटा सा SMS निगल गया। 
उन खतों को वापस गुनगुनाना भी लाज़मी है।" 

Friday, 25 January 2013

गंणतंत्र की बधाई


स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
ऐसे जज़बातों के साथ हमारे देशभक्तों ने 
पूर्णस्वराज को अपना लक्ष्य माना।
जय हिन्द की गूंज हो या
सरफरोशी की तमन्ना
जन-जन में समाहित थी।
आराम है हराम और इंकलाब जिंदाबाद की आवाज बुलंद थी।
वंदेमातरम् की कामना लिये देश प्रेमी युवा का संदेश
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दुँगा का शंखनाद हुआ। 
करो या मरो का आहवान करते हुए, आजादी का संकल्प लिये अहिंसा के पुजारी ने 
अंग्रेजों भारत छोङो की हुंकार भरी। अंतोगत्वा अंग्रेजों को भारत छोङना पङा।
विश्व विजयी तिरंगा प्यारा लहराने लगा। हम सब जन गण मन गाने को स्वतंत्र हुए। आजादी की फिजाओं में जन-जन का स्वर गूंजा-
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,हम बुल-बुले हैं इसके ये गुलसितां हमारा।


 गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई

Tuesday, 22 January 2013

मातृभूमि के युगपुरूष


जय हिन्द का नारा बुलंद करते हुए भारत के महानायक सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की आजादी के लिये अपना सर्वस्य न्यौछावर कर दिया था। अपने ओजस्वी भाषणों से मातृभूमि की रक्षा हेतु अनेक वीर सपूतों की फौज बनाने वाले सुभाष चन्द्र बोस से अंग्रेज सरकार भी भयभीत रहती थी क्योंकि सुभाषचंद्र बोस,  उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे। रविन्द्रनाथ टैगोर, उन्हे नेता जी पुकारते थे। तपस्वी एवं त्याग तथा बलिदान की प्रतिमूर्ती सुभाष चन्द्र बोस की 116 वीं ज्यन्ती (23 जनवरी, 1897) पर, भावांजली भरे शब्दों से नमन करते हैं। इस पावन पर्व पर भारत के दो युगपुरुषों के मध्य हुई बात-चीत जो हमारे गौरवशाली इतिहास की धरोहर है।

प्रसंग उस वक्त का है जब दूसरे विश्व युद्ध की घेषणा हो गई थी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सुभाष चन्द्र बोस का केवल एक ही लक्ष्य था, भारत माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराना। इसी उद्देश्य हेतु सुभाष चन्द्र बोस,  जून 1940 में  महात्मा गाँधी जी से मिलने सेवाग्राम गये थे।

उस वार्तालाप में गाँधी जी ने सुभाष से कहा, तुम्हारा आग्रह है कि जन-आन्दोलन छेङ दिया जाए। तुम संर्घष में ही निखरते हो तुम्हारा देशप्रेम और भारत को स्वतंत्र कराने का तुम्हारा संकल्प साहस से पूर्ण एवं बेजोङ है। तुम्हारी निष्ठा पारदर्शी है। आत्मबलिदान और कष्ट सहने की भावना तुममें कूट-कूट कर भरी है। लेकिन मैं चाहता हुँ कि इस गुण का उपयोग सही समय पर किया जाये। 

यह सुनकर सुभाष बाबु का कहना था कि- इंग्लैण्ड इस युदध में जीते या हारे, इतना निश्चित है कि वह कमजोर हो जायेगा। उसमें इतनी शक्ति न रहेगी कि वह भारत के प्रशासन की जिम्मेदारी ढो सके। तद्पश्चात हमारे थोङे से प्रयास से ही वह भारत की स्वतंत्रता को मान्यता दे देगा, किन्तु गाँधी जी के अनुसार आन्दोलन शुरू करने का ये वक्त उचित न था, उनके अनुसार सही समय इंतजार करना चाहिये।
सुभाष चन्द्र बोस अधीर होकर बोले... बापु यदि आप ललकारें तो समूचा राष्ट्र आपके पिछे खङा हो जायेगा।

मगर बापु अपनी बात पर डटे रहे, सुभाष बाबु को समझाते हुए बोले.. भले ही समुचा राष्ट्र तैयार हो, फिर भी मुझे वो काम नही करना चाहिये, जिसके लिये ये घङी उपयुक्त नही है।

सुभाष के मन में तो स्वाधीनता की आग पूरे चरम पर धधक रही थी, व्याकुल होते हुए गाँधी जी से प्रार्थना भरे स्वर में आर्शिवाद की कामना लिये बोले... बापु आजादी का आन्दोलन छेङने के लिये आर्शिवाद दिजीये।

गाँधी जी बोले, सुभाष, तुम्हे मेरे आर्शिवाद की आवश्यकता नही है।.... तुम्हारे अंदर एक महान राजनेता के गुणं विद्यमान हैं और तुम्हारा अंतः करण कह रहा है कि शत्रु पर आक्रमण के लिये यही वक्त उपयुक्त है तो आगे बढो और भरपूर चेष्टा करो। तुम सफल रहे तो मैं तुम्हारा अभिन्नदन सबसे पहले करुँगा।

अन्तोगत्वा सुभाष, बापु को अपनी बात न मनवा सके और निराश होकर 16 जनवरी, 1941 को भारत छोङ कर विश्व की अन्य शक्तियों से मदद की तलाश में निकल पङे और फिर कभी विदेश न लौटे।

6 जुलाई 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा था। इस प्रकार नेताजी ने, गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया था।

देशभक्त सुभाष चन्द्र बोस को जन्म दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं एवं सुभाष चन्द्र बोस जी के कथन के साथ अपनी कलम को विराम देते हैं।

कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के जरिए असफल नहीं हो सकता, अगर वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ हासिल कर लेगा।

जय हिन्द

Friday, 18 January 2013

भारत का संविधान

                             
मित्रों, आज हम सविंधान के विभिन्न खण्डो में की गई चित्रकारी को आपसे share करने का प्रयास कर रहे हैं।पहले संविधान का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक समझते हैं।

दोस्तों, संविधान निश्चित नियमों का संग्रह होता है। अरस्तु ने लिखा हैः- संविधान उस पद्धिती का प्रतीक होता है जो किसी राज्य द्वारा अपनाई जाती है। भारत का संविधान लिखित एवं सबसे बङा संविधान है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया में 2 वर्ष, 11 महिना, 18 दिन लगे थे। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डाँ. भीमराव अमबेडकर थे। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने विश्व के अनेक संविधानों के अच्छे लक्षणों को अपने संविधान में आत्मसात करने का प्रयास किया है।

हमारे संविधान में 22 खण्ड हैं जिसे नंदलाल बोस ने अपनी उत्कृष्ट चित्रकारी से चित्रित किया है। विख्यात चित्रकार नंदलाल बोस का जन्म बिहार के मुंगेर नगर में हुआ था। नंदलाल बोस ने कलकत्ता गवर्नमेंट कॉलेज में अबनीन्द्ननाथ ठाकुर से कला की शिक्षा ली। 1922 से 1951 तक शांतिनिकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे वहीं उनकी मुलाकात पं. नेहरू जी से हुई। नेहरू जी ने नंदलाल बोस को संविधान की मूलप्रति को चित्रकारी से सजाने के लिये आमंत्रित किया।
संविधान की मूलप्रति को सजाने में चार साल लगे, वास्तव में ये चित्र भारतीय इतिहास की विकास यात्रा है। संविधान के हर भाग की शुरुवात में 8 – 13 इंच के चित्र बनाये गये हैं। सुनहरे बार्डर और लाल पीले रंग की अधिकता लिये हुए इन चित्रों की शुरुआत भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक के लाट से की गई है। अगले भाग में भारतीय संविधान की प्रस्तावना है जिसे सुनहरे बार्डर से घेरा गया है, जिसमें घोङा, शेर, हाथी और बैल के चित्र बने हैं। इस बार्डर में शतदल कमल को भी जगह दी गई है।

इसके अगले भाग में मोहन जोदङो की सील दिखाई गई है। वैदिक काल की शुरुवात होती है, किसी ऋषी के आश्रम का दृष्य है मध्य में गुरू बैठे हुए हैं और उनके शिष्यों को दर्शाया गया है। पास में एक यज्ञशाला बनी हुई है। मूल अधिकार वाले भाग की शुरुवात त्रेता युग से होती है। इस चित्र में भगवान राम रावण को हरा कर सीता माता को लंका से वापस ला रहे हैं। राम धनुष बांण लेकर आगे बैठे हैं और उनके पीछे लक्षमण एवं हनुमान हैं।

अगले क्रम में नीति निर्देशक तत्व हैं जिसमें श्री कृष्ण को गीता का उपदेश देते हुए दिखाया गया है। पाँचवें खण्ड में भगवान बुद्ध बीच में बैठे हुए हैं और उनके चारो ओर उनके पांच शिष्य बैठे हैं। हिरन और बारहसिंहा जैसे जानवरों को भी दर्शाया गया है। अगले भाग में संघ और राज्यक्षेत्र में भगवान महावीर को समाधी मुद्रा में दर्शाया गया है। सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार को दिखाया गया है। आठवें भाग में गुप्तकाल से जुङी कलाकृति को उकेरा गया है। इस चित्र में नृत्य करती हुई नर्तकियों के चारों ओर राजाओं का घेरा है। यह चित्र कलात्मक दृष्टीकोंण से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 10वें भाग में गुप्तकालीन नालंदा विश्वविद्यालय की मुहर दिखाई गई है। 11वें भाग में मध्यकालीन इतिहास की शुरुवात होती है। 12वें भाग में नटराज की मूर्ती बनाई गई है। 13वें भाग में महाबलीपुरम मंदिर पर उकेरी गई कलाकृति को दर्शाया गया है। भागरीथी तपस्या और गंगा अवतरण को भी इसी चित्र में दर्शाया गया। 14वाँ भाग केन्द्र और राज्यों के अधीन है। इस खण्ड में मुगल स्थापत्य को जगह दी गई है। बादशाह अकबर बैठे हुए हैं, उनके पीछे चँवर झुलाती महिलाएँ हैं। 15वें भाग में गुरु गोविन्द सिहं और शिवाजी को दिखाया गया है।

16वें भाग में ब्रिटिशकाल शुरू होता है, इसमें टीपूसुल्तान और रानी लक्षमीबाई को अंग्रेजो से लोहा लेते दर्शाया गया है। 17वां खण्ड मूल संविधान में अधिकारिक भाषाओं का खण्ड है, जिसमें गाँधी जी की दांडी यात्रा का दृष्य है। अगले भाग में गाँधी जी की नोखली यात्रा का चित्र है, एन्ड्रयूज भी उनके साथ हैं। एक हिन्दू महिला गाँधी जी को तिलक लगा रही है और कुछ मुस्लिम पुरूष हाँथ जोङकर खङे हैं। 19वें भाग में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आजाद हिन्द फौज को सेल्यूट कर रहे हैं। चित्र में अंग्रेजी भाषा में लिखा है कि- इस पवित्र युद्ध में हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाधीँ की आवश्यकता हमेशा रहेगी। 20वें भाग में हिमालय के उच्च शिखरों को दिखाया गया है जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। 21वें भाग में रेगिस्तान का चित्रण है। दूर दूर तक फैले रेगिस्तान के बीच ऊँटों का काफिला, वास्तव में इस चित्र का उद्देश्य हमारी प्राकृतिक विविधता को दर्शाना है। अंतिम भाग में समुंद्र का चित्र है, जिसमें एक विशालकाय पानी का जहाज है जो हमारे गौरवशाली सामुंद्रिक विस्तार और यात्राओं का प्रतीक है।

कलात्मक चित्रों ने हमारे संविधान को अलंकृत कर शोभायमान बनाया है।
दोस्तों, उपरोक्त जानकारी कुछ पुस्तकों को पढने के बाद ही लिखने का प्रयास किये हैं। यदि कोई त्रुटी हुई हो तो हम क्षमाप्रार्थी हैं।
जयहिन्द 



Monday, 14 January 2013

सबके लिये नियम एक



देश की आजादी में एवं राजनीति के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखने वाली कई विभूतियों ने अपने जीवन में नियम को सर्वोपरि माना है। ऐसी ही महान विभूतियों के किस्से आप सबसे Share कर रहे हैं।

बात सन् 1885 की है। पुना के न्यु इंग्लिश हाईस्कूल में समारोह हो रहा था। प्रमुख द्वार पर एक स्वयंसेवक नियुक्त था, जिसे वह कर्तव्य भार दिया गया था कि आने वाले अतिथियों के निमंत्रण पत्र देखकर उन्हे सभा-स्थल पर यथा-स्थान बैठाया जाये। इसी समारोह के मुख्य अतिथी थे, मुख्य न्याधीश महादेव गोविन्द रानाडे। जैसे ही वह विद्यालय द्वार पर पहुँचे, वैसे ही स्वंय-सेवक ने उनको रोक दिया और निमंत्रण पत्र की माँग की। उन्होने का बेटे! मेरे पास तो नही है। तभी स्वयं-सेवक नम्रता पूर्वक बोला, क्षमा करें आप अंदर नही जा सकते। इसी बीच रानाडे को देख समिती के अन्य सदस्य भी आ गये और उन्हे मंच की ओर ले जाने लगे, पर स्वयं सेवक ने कहा कि, श्रीमान! यदि मेरे कार्य में स्वागत समिती के सदस्य ही रोङा अटकायेंगे तो फिर मैं अपना कर्तव्य कैसे निभा सकुंगा? कोई भी अतिथी हो, उसके पास निमंत्रण पत्र होना चाहिये। भेदभाव की नीति मुझसे न बरती जायेगी। यही स्वयं सेवक आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुए।
नियम के पक्के गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें भारत का 'ग्लेडस्टोन'  कहा जाता है। गोपाल कृष्ण गोखले, महान देशभक्त और महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरू भी थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी व्यक्ति थे। चरित्र निर्माण की आवश्यकता से पूर्णत: सहमत होकर उन्होंने 1905 में सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना की ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकि शिक्षा भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है।


सबके लिये समान नियम की भावना का संदेश, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु जी के जीवन से भी सीखा जा सकता है।
बात न दिनों की है जब पंडित जवाहर लाल नेहरु इलाहबाद नगर महापालिका के अध्यक्ष थे। एक दिन वो अपने कार्यलय में बैठे थे कि जल कर के टैक्ससुपरिटेंडेंट, डॉ. अबुल फजल उनके  पास आये और उनकी मेज पर एक कागज बढा कर बोले- यह उन लोगों के नामों की सूची है जिन्होने अभी तक पानी का टैक्स अदा(Payment) नही किया है। नियम के अनुसार इन सभी लोगों के कनेक्शन काट देने चाहिये। आपकी क्या राय है?”
नेहरु जी ने कहा कि, मेरी राय की क्या जरूरत? आपको दिक्कत क्या है? “
डॉ. फजल ने अपनी दुविधा बताई कि, बात दरअसल ये है कि इस सुची में जिनके नाम लिखे हैं वो सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं।
नेहरु जी बेतकल्लुफी से बोले, अरे भाई, नियम तो नियम है। इसमें भला प्रतिष्ठित और सामान्य लोगों में भेद-भाव क्यों?”
फिर क्या था, उसी दिन आदेश का परिपालन हुआ। दूसरे दिन प्रातः उन प्रतिष्ठित व्यक्तियों के घर का पानी बन्द हो गया। सारे शहर में खलबली मच गई। जिन घरों में पानी बंद था, उनमें इलाहाबाद कोर्ट के चीफ जस्टिस, इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस समेत कई प्रतिष्टित व्यक्ती थे। और तो और, नेहरु जी के घर भी पानी बंद हो गया था। पानी का कनेक्शन पंडित मोती लाल नेहरु जी के नाम था, सो वह भी इसके शिकार हुए।
मोतीलाल नेहरु बहुत नाराज हुए और बोले कि, आखिर ऐसा करने से पहले कम से कम नगरपालिका को पहले एक नोटिस देना था।
नेहरु जी विनम्रता से बोले- इतना तो नागरिकों का भी कर्तव्य बनता है कि वे समय पर टैक्स अदा कर दिया करें। नियम के आगे मैं मजबूर था क्योंकि नियम तो सबके लिये एक था।
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि जीवन में सबके साथ समान नियम का भाव ही आदर्श समाज को रच सकता है। जो लोग इसे जीवन का हिस्सा बनाते हैं वही जन-जन में अपनी अलग पहचान बनाते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि-, जो बातों का बादशाह नही, बल्कि उसे करके दिखाता है। वही प्रेरक इतिहास रचता है।
अल्बर्ट आइंसटाइन ने कहा है कि- सिर्फ सफल होने की कोशिश न करें, बल्कि मूल्य आधारित जीवन जीने वाला मनुष्य बनने की कोशिश किजीये।
Thanks
        

Sunday, 13 January 2013

बधाई हो

तिल गुढ की मिठास के साथ,
आशाओं और अभिलाषाओं की उङान हो।
सूरज की किरणों से टकराती, बादलों से बातें करती,
जोश और उमंग की डोर हो।
सफलता का इतिहास रचती, सपनो को साकार करती,
साहसी पतंग की उङान हो।
लोहङी, पोंगल और मकर सक्रांती,
हर पर्व पर बधाईयों और शुभकामनाओं का साथ हो।

Friday, 11 January 2013

दरिद्रनारायण की सेवा



युगपुरूष स्वामी विवेकानंद जी, बचपन से ही समाज के प्रति निःस्वार्थ होकर कार्य करते थे एवं छुआ-छूत पर विश्वास नही करते थे। उनके लिये अमीर-गरीब, ऊँच-नीच तथा सभी जाती के लोग एक समान थे। हिन्दु घरों में माने जाने वाले देशाचार और लोकाचार को बचपन से ही नही मानते थे। पिता (विश्वनाथ) के, एक पेशावर मुस्लिम मुवक्किल थे, नरेन्द्र अक्सर उनकी गोद में बैठकर पंजाब तथा अफगानिस्तान की कहानियाँ एकाग्रचित से सुनते थे। नरेन्द्र उनसे इतने अनुरक्त हो गये थे कि उनके हाँथ से संदेश(मिठाई), फल आदि खाने में जरा भी सोच विचार न करते थे। उनके इस कृत्य को घर वाले पसंद नही करते थे किन्तु, विश्वनाथ दत्त कट्टरपंथी हिन्दु नही थे। सभी जाति के लोग उनकी दृष्टी में एक सी प्रीती एवं श्रद्धा के पात्र थे। अतः पुत्र का ये आचार उनकी निगाह में दण्डनिय नही था।पिता के साथ से उन्हे जाति-पाँति में विश्वास न करने हेतु प्रेरणा मिलती थी।  दीन दुःखियों के प्रति अपार श्रद्धा लिये स्वामी जी, जब बैलूरमठ में थे वहीं की एक मर्मस्पर्शी घटना आप सभी से Share कर रहे हैं।

बैलूरमठ की जमीन को साफ करने के लिये प्रतिवर्ष कुछ संथाल स्त्री-पुरुष आते थे। स्वामी जी उनके साथ कभी-कभी हँसी-मजाक करते थे, उनके सुख-दुःख की बातें बङे ध्यान से सुनते थे। एक दिन की बात है कि, कुछ विशिष्ट् भद्र पुरुष स्वामी जी से मठ में मिलने आये, उस समय स्वामी जी संथालों के साथ उनकी आपबीती सुन रहे थे। स्वामी जी, सुबोधानंद से बोले कि अब मैं किसी से न मिल सकूँगा आज मैं इनके साथ बङे मजे में हुँ। वास्तव में स्वामी जी, उस दिन संथालो को छोङ कर भद्र महोदय से मिलने नही गये। उन्ही संथालो में केष्टा नाम के एक व्यक्ती को स्वामी जी बहुत स्नेह करते थे। जब कभी स्वामी जी उससे बात करने जाते तो वह बोलता किअसे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ न आया कर-तेरे साथ बात करने पर मेरा काम बन्द हो जाता है और बूढा बाबा(स्वामी अदैव्तानंद) आकर हमें बकता है। यह बात सुनकर स्वामी जी की आँखों में आँसु भर आये और वे बोले, चिन्ता न करो अब बूढा बाबा तुम्हे कुछ नही कहेगा, यह कह कर वे वापस उनके सुख-दुःख की बातें छेङ देते थे।

एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा कि, क्या तुम लोग हमारे यहाँ खाना खाओगे? केष्टा बोला अब हम तुम्हारा छुआ नही खाते, हमारी शादी हो गई है, तुम लोगों का छुआ नमक खाने पर जात चली जायेगी। स्वामी जी बोले, नमक क्यों खायेगा ? बिना नमक की तरकारी पका देंगे तब तो खाओगे। केष्टा इस बात पर राजी हो गया। स्वामी जी के निर्देश पर मठ में बिना नमक की तरकारी, मिठाई, दही आदि का प्रबंध किया गया और स्वामी जी उन्हे स्वयं बैठकर खिलाने लगे। इतना स्वादिष्ट खाना खा कर केष्टा आश्चर्य से बोला कि स्वामी बाप, तुम्हे ऐसी चीजें कहाँ से मिलीं हमने तो कभी ऐसा खाना नही  खाया।
स्वामी जी उन्हे संतोष पूर्वक खिलाकर बोले तुम सब मेरे नारायंण हो- आज मेरे नारायंण का भोग हुआ है। उपरोक्त प्रसंग ये परिलाक्षित करता है कि उन्हे दूसरों की व्यथा का अनुभव हो जाता था। वे समझते थे कि संथालों का भी मन करता होगा पकवान खाने का, अतः उन्होने ये आयोजन किया था।

स्वामी जी के मन में दुःखी, दरिद्र एवं असहायों के प्रति अपार स्नेह था। उनका अपने साथी भिक्षुकों से कहना था कि, सब लोग मिलकर गाँव-गाँव घूमकर चरित्र और साधना के बल पर धनवानो को समझाकर धन संग्रह करके लाएं और दरिद्रनारायणों की सेवा करते हुए जीवन बिता दें। स्वामी जी की दृष्टी में मेहतर, परिश्रम करने वाले मजदूर, बढई, किसान आदी राष्ट्र की रीढ हैं। एक दिन शहर में साफ सफाई न हो तो हाहाकार मच जाता है। स्वामी जी का ये मानना था कि किसी भी राष्ट्र का विकास तभी हो सकता है जिसके सभी वर्गों का सम्मान हो। राष्ट्र एक शरीर के समान है। उसके एक अंग की भी अवहेलना से भले ही अन्य अंग सबल हों किन्तु शरीर(राष्ट्र) सर्वशक्ती सम्पन्न नही हो सकता।

मित्रों, स्वामी जी सभी को एक ही दृष्टी से देखते थे, सच ही तो है सभी में एक ही रक्त बहता है, सभी एक ही ब्रह्म की शक्ती से धरती पर आए हैं। वो तो हम हैं कि यहाँ जाती-पाँति और ऊच-नीच का भेद बना लिये हैं। स्वामी जी अपने अथक सेवाव्रत को सदैव वास्तविक रूप में चरितार्थ किये हैं। स्वामी जी के उपदेश उनके द्वारा किये सद्कार्यों का ही रूप हैं। स्वामी जी के उपदेश के साथ कलम को विराम देते हैं एवं 150वीं ज्यन्ती पर स्वामी जी के जीवन प्रसंग को यादकर अपनी भावांजली अर्पित करते हैं।

जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार झुक जाता है।
जय भारत

Tuesday, 8 January 2013

युगप्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी की अलवर यात्रा



युगप्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी, अखिल मानव की कल्याणं कामना से एवं धर्म(इंसानियत) की पताका चहुँ ओर फैराने हेतु, भारत भ्रमण पर निकल पङें थे। भ्रमण के दौरान ही सन् 1891 में अलवर पहुँचे। अलवर प्रवास के दौरान वहाँ की जनता एवं वहाँ के महाराज की जिज्ञास को स्वामी जी ने कैसे शान्त किया उसी का कुछ अंश आप सबसे भी सांझा कर रहे हैं।

भारत भ्रमण के दौरान जब स्वामी जी अलवर पहुँचे वहाँ सरकारी घर्माथ अस्पताल  के डॉ. बाबु गुरुचरण लष्कर एवं उनके मित्र मौलवी साहब ने स्वामी जी के ठहरने का प्रबंघ किया था। स्वामी जी के व्यक्तित्व की चर्चा जैसे ही अलवर में पहुँची, उनके दर्शन हेतु भक्तगण की तादाद इतनी बढ गई कि जिस घर में स्वामी जी ठहरे थे वो घर छोटा पङने लगा। तद्पश्चात पं. शम्भुनाथ के आग्रह पर वे उनके घर रहने चले गये थे।

स्वामी जी के आर्शिवचन सुनने के लिये सुबह 9 बजे से दोपहर तक, हिन्दु मुसलमान दोनो ही जाति के लोग उनके धर्ममत का श्रवणं करते थे। ऐसी ही सभा के दौरान एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि- स्वामी जी, आप गेरुआ वस्त्र क्यों पहनते हैं?

स्वामी जी सहज और सरल भाषा में बोले, यदि मैं  साधारण मनुष्यों की तरह वस्त्रादि पहन कर भ्रमण करुंगा तो निर्धन भिक्षुक गण मुझे धनवान समझकर भिक्षा माँगेंगे, मैं स्वंय एक भिखारी हुँ, मेरे हाँथ में एक पैसा भी नही है। माँगने वलों को ना करने में मुझे बहुत कष्ट होता है, परन्तु मेरे गेरुआ वसन (वस्त्र) देख वे मुझे भी अपने जैसा भिक्षुक समझकर मुझसे भिक्षा न माँगेंगे।

मित्रों, स्वामी जी के उत्तर में भिक्षुक के प्रति जो समवेदना झलकती है, वो उनके सरल हद्रय को कितनी सुन्दरता से परिलाक्षित करती है। ऐसे अदभुत, शक्ती सम्पन्न सन्यासी के बारे में सुनकर, अलवर दिवान बहादुर भी अपने आप को रोक न सके और एक दिन स्वामी जी के दर्शन हेतु आ ही गये। दिवान बहादुर स्वामी जी से मिलकर इतने प्रभावित हुए कि, उन्होने अलवर महाराज से आग्रह किया कि वे स्वामी जी से एकबार मुलाकात करें।

अलवर महाराज (मंगल सिहं बहादूर) स्वामी जी से मिले, आदर सत्कार के बाद महाराज ने स्वामी जी से पूछा कि-  आप इतने बङे विद्वान धुरंदर पंण्डित हैं। आप चाहें तो प्रचुर धन उपार्जन (कमा) कर सकते हैं, फिर भी भिक्षावृत्ती को क्यों अपनायें हैं? “

स्वामी जी शान्त स्वर में बोले, महाराज पहले आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर दिजीये। आप राजकाज की अवहेलना करते हुए क्यों साहबों के साथ शिकार आदि र्व्यथ के आमोद प्रमोद में अपना समय नष्ट करते हैं?”   

थोङी देर विचार करने के बाद महाराज ने कहा, हाँ करता तो हूँ! परन्तु क्यों यह नही कह सकता। इतना जरूर कह सकता हुँ कि ये सब हमें अच्छा लगता है। स्वामी जी हँसकर बोले, बस इसलिये मैं भी फकीर बन इधर उधर भटकता हुँ क्योंकि ये मुझे अच्छा लगता है। कुछ वार्तालाप के बाद अलवर महाराज समझ गये कि ये युवा सन्यासी विद्वान ही नही बल्की निर्भिक एवं स्पष्टवादी भी है। जिज्ञासावश महाराज ने पुनः एक प्रश्न किया, उन्होने पूछा- स्वामी जी मूर्तीपूजा में मेरा जरा भी विश्वास नही है। इसके लिये मेरी क्या दुर्गती होगी?”

महाराज को हँसते हुए देख स्वामी जी संदिग्ध दृष्टी से उनकी ओर देखकर बोले, क्या महाराज मेरे साथ मजाक कर रहे होअलवर महाराज आग्रह से बोले, स्वामी जी ये सच है, मैं लकङी, मिट्टी, पत्थर या धातु की मूर्ती के प्रति श्रद्धा भक्ती नही कर सकता! क्या इसके लिये मुझे परकाल में सजा भुगतनी पङेगी?

स्वामी जी ने बङे ही आत्मियता से समझाया कि, अपने विश्वास के अनुसार उपासना करने पर परकाल में सजा क्यों मिलेगी, मूर्तीपूजा में यदि विश्वास नही है तो क्या हुआ। स्वामी जी का उत्तर सुनकर वहाँ उपस्थित सभी श्रोतागणं विस्मय से सोचने लगे कि, मूर्तीपूजा में विश्वास रखने वाले स्वामी जी मूर्तीपूजा के पक्ष में दलील क्यों नही दिये?

इतने में ही स्वामी जी की नजर दिवार पर टंगी महाराज की तस्वीर पर पङी। स्वामी जी ने उस तस्वीर को उतरवाया और उसे जमीन पर रख दिये। स्वामी जी ने, दिवान बहादुर एवं अन्य सभागंण से कहा कि आप इसपर थूक दिजीये। दिवान बहादुर एवं अन्य सभागंण अचम्भे से स्वामी जी को देखने लगे और किंकर्तव्यविमूढ हो सोचने लगे कि स्वामी जी की अब खैर नही। तभी स्वामी जी अपनी बात पुनः दोहराये। आखिर अंत में दिवानबहादुर बोले क्या! स्वामी जी आप इसपर थूक सकते हैं?

स्वामी जी हँसकर बोले महाराज जी के चित्र में महाराज तो हैं नही, ये तो कागज का टुकङा है, फिर आप लोग ऐसा क्यों नही कर सकते? बात को आगे बढाते हुए स्वामी जी बोले, मैं जानता हूँ, आप लोग ये कृत्य नही कर सकते क्योंकि आपलोग समझते हैं कि ऐसा करने से महाराज का अपमान होगा। यह सुनकर उपस्थित सभी लोगो ने स्वामी जी की बात का सर्मथन किया।

अब स्वामी जी महाराज की तरफ मुखातिब होकर बोले- देखिये महाराज एक दृष्टी में विचार करने पर आप इसमें नहीं हैं, किन्तु दूसरों की दृष्टी से देखा जाए तो, इस चित्र में भी आपका अस्तित्व है। इसलिये कोई भी इसपर थूकने के लिये तैयार नही हुए क्योंकि ये आपके अनुरक्त एवं विश्वस्त सेवक हैं। ये लोग ऐसा कोई काम नही करेंगे जिससे आपका अपमान हो। ठीक इसी तरह धातु की बनी भगवान की मूर्ती में भक्त की आस्था होती है, उसे उसमें अपने आराध्य का रूप दिखता है और वो उसीपर अपनी श्रद्धा रखता है। मैने आजतक किसी भी हिन्दु को ये कहते नही सुना कि, हे पत्थर, हे धातु मैं तुम्हारी पूजा कर रहा हुँ, तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ। दृणनिश्चयी एवं अभूतपूर्व विश्वास के साथ स्वामी जी महाराज से बोलेः- महाराज सभी भक्तगंण अपने-अपने उपासक का इन धातुओं में साकार रूप देखते हैं और उनकी उपासना करते हैं। उनके लिये ये धातु नही बल्की आराध्य का स्वरूप होता है। जिसके प्रति उनका सर झुकता है।

स्वामी जी के निर्भिक तर्क से अलवर महाराज थोङी देर तक तो निःशब्द हो गये, थोङा रुक कर बोले- स्वामी जी आपने आज ज्ञान की आँखे खोल दी। चरणस्पर्श करते हुए स्वामी जी से आर्शिवाद एवं कृपा की कामना करने लगे।

स्वामी जी मुक्तहद्रय से कल्याण बरसाते हुए बोले-एक मात्र भगवान के अतिरिक्त कृपा करने का अधिकार और किसी को भी नही है। आप सरल शुद्ध भाव से उनके चरणों में शरण लीजीये, वे अवश्य ही आप पर कृपा करेंगे।

मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ती न होगी कि स्वामी विवेकानंद जी कभी भी अपनी बात मनवाने के लिये किसी को भी बाध्य नही करते थे। वो लोगों की शंका का समाधान बहुत ही सरल एवं सहज ढंग से करते थे। किसी भी बात को लॉजिक के साथ उदाहरण देकर समझाते थे। इसीलिये आजका यानि 21वीं सदी का भी युवा उनको अपना आदर्श मानता है। आधुनिक संसाधनो से युक्त युवा वर्ग स्वामी जी की शिक्षाओं को आत्मसात करते हुए विकास की ओर बढ रहा है। युवा सन्यासी स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस को युवादिवस के रूप में मनाना हम सभी के लिये गौरव की बात है। स्वामी जी के कुछ आर्शिवचन--

जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएँ अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता है।

 जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते।

उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो , तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो , तुम तत्व नहीं हो , ना ही शरीर हो , तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो

मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है

आओ, सब मिलकर शत्-शत् नमन करें। 
जय भारत
अनिता शर्मा