Thursday, 3 January 2013

एक आवाज


त्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता बसते हैं। मनुस्मृति में नारी को पूज्यनीय बताया गया है किन्तु आज के परिपेक्ष में क्या इसको आत्मसात करता भारत नजर आ रहा है ? सत्यता तो ये है कि आजादी के 65 वर्षो बाद भी नारी असुरक्षित एवं परतंत्र है। क्या आजादी सिर्फ पुरूषों को ही मिली थी? बुद्ध, गौतम, नानक, पैगम्बर मोहम्द, ईसामसीह जैसे महान संतो ने इंसानियत को जगाए रखने की शिक्षा दी थी, उनकी शिक्षाओं को आज भूलते जा रहे  हैं। स्त्रियों के हक के लिये लङने वाले राजाराम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, विवेकानंद जी को याद करना नही चाहते।
आज पूरा देश ही नही अपितु पूरा विश्व इंसानियत को शर्मसार करती मानसिकता से परेशान है। आज समाज वैचारिक प्रदुषंण से इस तरह प्रदुषित हो गया है, जहाँ हम सब को अपने अंतरमन में मंथन की  आवश्यकता है। चार (4) साल की बच्ची हो या चालिस (40) साल की महिला, सभी नारी जाति के लिये असुरक्षा का वातावरण चहुँओर व्याप्त है। घर, पङौसी, या समाज, हर कहीं रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं।

2012 अत्याचार के खिलाफ जन चेतना को एक आवाज दे गया। जाते जाते जुल्म की दासतां के विरुदध देश को जागृत कर गया। इंसानियत को शर्मसार करने वाली मानसिकता के खिलाफ जंग का आगाज कर गया। 16 दिसम्बर से पहले भी विपरीत नामों के साथ विभिन्न स्थानो पर इंसानियत को शर्मसार करती ऐसी घटनाएं घटित हो चुकी हैं। ऐसी अमानवीय घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाये कम है।

प्रश्न ये उठता है कि क्या! अमानवीय कृत्यों वाले इंसान अलग दुनिया से आते हैं? नही मित्रों, ये भी उसी समाज के अंग हैं, जिस समाज में हम और आप रहते हैं।  जब हम महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को सुनते हैं तो मन में ख्याल आता है कि हम किस समाज में रह रहे हैं, स्त्रियों के प्रति ऐसी सोच क्यों?

दोष हमारी एक तरफा सोच में है। समाज में ये मानसिकता है कि औरत का दर्जा आदमी से नीचा है। बच्चे इसी बात को सच मानते हैं जिससे लङके रौब दिखाना शुरु कर देते हैं और लङकियाँ दबने लगती हैं। यही लङकियाँ जब बङी होती हैं तो अपनी बेटीयों और बहु को भी दबकर रहने की शिक्षा देती हैं। पुरुष प्रधान अधिपत्य वाले समाज में औरतों के साथ छेङ-छाङ करने वाले पुरूष की गलती नही मानी जाती है, बल्की ये कहा जाता है कि औरतों का पहनावा छेङ-छाङ को न्योता देता है। ऐसी संकीर्ण सोच भरे समाज में जब किसी स्त्री वर्ग के साथ दुराचार होता है तो समाज उस महिला या बेटी को हेय (घृणा) की दृष्टी से देखता है। भले ही अपराधी को सजा मिल जाये, कानून महिला को बेकसूर माने, पर समाज उस महिला को वो सम्मान नहीं देता जिसकी वो हकदार है। स्त्री का दोष न होते हुए भी उसे सामाजिक तिरस्कार जैसी मानसिक वेदना से ताउम्र गुजरना पङता है।
अपराधी को तो सजा के तौर पर जेल मिल गई जहाँ उसे सामाजिक तिरस्कार जैसी वेदना नहीं मिलती। आज फाँसी की सजा की माँग जोर पर है। एक बार में ही सभी सजाओं से मुक्ती। किन्तु उस महिला का क्या, जो बेकसूर होते हुए भी समाज का तिरस्कार झेलती है। मित्रों, कुछ बरस पहले गीता चोपङा कांड में रंगा व बिल्ला को फाँसी दी गई थी। क्या ऐसे कृत्य कम हुए ? ऐसी दुषित मानसिकता वाले इंसान का जीवन तो पल-पल त्रासदी भरा होना चाहिये जो दूसरों को ऐसे कृत्य न करने का सबक दे सके।
मौलिक अधिकार के तहत एक स्त्री होने के नाते मेरा ये मानना है कि ऐसे अपराधी का Castration (नपुंसक) कराके उसके माथे पर बलात्कारी का टैटु बनाकर समाज में छोङ देना चाहिये ताकी उसे अपने किये की सजा हर पल समाज की तिरस्कार पूर्ण दृष्टी से मिलती रहे। ऐसी सजा देखकर कोई दूसरा ऐसे कृत्य को करने की हिम्मत नही करेगा। यदि कोई अपने माथे की प्लास्टिक सर्जरी करवाने की कोशिश करे तो उस डॉ. के खिलाफ भी कङी कारवाई हो, ऐसा सख्त कानून बनना चाहिये।
इसके साथ ही हम सब को अपनी अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझकर समाज को भी एकतरफा सोच से दूर करना होगा। बेटे और बेटियों में अंतर करना बंद करना होगा। अभिभावकों को अपने बेटे को बचपन से ही बेटियों का सम्मान करना सिखाना होगा। बच्चे केवल कहने से नही सीखते, जो देखते है उसी को जीवन में उतारते हैं इसलिये प्रत्येक आदमी को अपनी पत्नी की इज्जत करना चाहिये, माँ एवं बहन-बेटियों को भी सम्मान देना चाहिये जिससे बच्चे के मन में भी बाल्यावस्था से ही नारी के प्रति सम्मान की भावना का विकास हो। आज फिल्मो और प्रचारों में भी नारी को वस्तु न मानकर उसके सम्मान की रक्षा का वक्त आ गया है। समाज को सुसंस्कृत बनाने में सिनेमा की भी नैतिक जिम्मेदारी है। सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया जरूर है किन्तु सामाजिक सुधार के लिये ये आवश्यक कदम है।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि सबसे ज्यादा बदलाव लाने की जरूरत दो जगह पर है, औरतो के बारे में आदमियों की सोच और औरतों के बारे में स्वयं औरतों की सोच।
बदलाव की सबसे ज्यादा उम्मीद आने वाली पीढी से है, उन्होने अपनी एकजुटता और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाकर एक सकारात्मक कदम बढा दिया है। ये एकजुटता और आवाज बुलन्द रहे यही कामना करते हैं। 
आशा करते हैं कि, 16 दिसम्बर की बहादुर नारी का बलिदान बेकार न जाए, समाज की एकजुटता में उसका आगाज, ऐसे अपराधियों को फांसी के फंदे की मुक्ती नही बल्की उनकी जिंदगी सामाजिक तिरस्कार वेदना से परिपूर्ण जैसी सजा दिला सके। आने वाले भारत का आगाज कुछ ऐसा हो----
जहाँ नारी का सम्मान हो,
इंसानियत का व्यवहार हो,
सदभावना का माहौल हो,
जहाँ मन निर्भय हो,
सुख शान्ती का सहज एवं सरल विचार हो।
हे प्रभो ! देश का मस्तक गर्व से ऊँचा हो।
भारत का नव उदय हो।

2 comments:

  1. इस समय के लिए बिलकुल उपयुक्त लेख....सच है मौत तो शायद सबसे आसन सजा है..ऐसे पापीयों को तिल-तिल करके मरना चाहिए..

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  2. Shambhu Dayal Meena22 December 2015 at 23:34

    I am also agree with this article

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