युगप्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी, अखिल मानव की
कल्याणं कामना से एवं धर्म(इंसानियत) की पताका चहुँ ओर फैराने हेतु, भारत भ्रमण पर
निकल पङें थे। भ्रमण के दौरान ही सन् 1891 में अलवर पहुँचे। अलवर प्रवास के दौरान
वहाँ की जनता एवं वहाँ के महाराज की जिज्ञास को स्वामी जी ने कैसे शान्त किया उसी
का कुछ अंश आप सबसे भी सांझा कर रहे हैं।
भारत भ्रमण के दौरान जब स्वामी जी अलवर पहुँचे
वहाँ सरकारी घर्माथ अस्पताल के डॉ. बाबु
गुरुचरण लष्कर एवं उनके मित्र मौलवी साहब ने स्वामी जी के ठहरने का प्रबंघ किया था।
स्वामी जी के व्यक्तित्व की चर्चा जैसे ही अलवर में पहुँची, उनके दर्शन हेतु
भक्तगण की तादाद इतनी बढ गई कि जिस घर में स्वामी जी ठहरे थे वो घर छोटा पङने लगा।
तद्पश्चात पं. शम्भुनाथ के आग्रह पर वे उनके घर रहने चले गये थे।
स्वामी जी के आर्शिवचन सुनने के लिये सुबह 9 बजे
से दोपहर तक, हिन्दु मुसलमान दोनो ही जाति के लोग उनके धर्ममत का श्रवणं करते थे।
ऐसी ही सभा के दौरान एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि- स्वामी जी, आप गेरुआ वस्त्र
क्यों पहनते हैं?
स्वामी जी सहज और सरल भाषा में बोले, “यदि मैं साधारण मनुष्यों की तरह वस्त्रादि पहन कर भ्रमण करुंगा तो निर्धन
भिक्षुक गण मुझे धनवान समझकर भिक्षा माँगेंगे, मैं स्वंय एक भिखारी हुँ, मेरे हाँथ
में एक पैसा भी नही है। माँगने वलों को ना करने में मुझे बहुत कष्ट होता है,
परन्तु मेरे गेरुआ वसन (वस्त्र) देख वे मुझे भी अपने जैसा भिक्षुक समझकर मुझसे
भिक्षा न माँगेंगे।“
मित्रों, स्वामी जी के उत्तर में भिक्षुक के
प्रति जो समवेदना झलकती है, वो उनके सरल हद्रय को कितनी सुन्दरता से परिलाक्षित
करती है। ऐसे अदभुत, शक्ती सम्पन्न सन्यासी के बारे में सुनकर, अलवर दिवान बहादुर
भी अपने आप को रोक न सके और एक दिन स्वामी जी के दर्शन हेतु आ ही गये। दिवान
बहादुर स्वामी जी से मिलकर इतने प्रभावित हुए कि, उन्होने अलवर महाराज से आग्रह
किया कि वे स्वामी जी से एकबार मुलाकात करें।
अलवर महाराज (मंगल सिहं बहादूर) स्वामी जी से
मिले, आदर सत्कार के बाद महाराज ने स्वामी जी से पूछा कि- “आप इतने बङे विद्वान धुरंदर पंण्डित हैं। आप चाहें तो प्रचुर धन
उपार्जन (कमा) कर सकते हैं, फिर भी भिक्षावृत्ती को क्यों अपनायें हैं? “
स्वामी जी शान्त स्वर में बोले, “महाराज पहले आप मेरे
एक प्रश्न का उत्तर दिजीये। आप राजकाज की अवहेलना करते हुए क्यों साहबों के साथ
शिकार आदि र्व्यथ के आमोद प्रमोद में अपना समय नष्ट करते हैं?”
थोङी देर विचार करने के बाद महाराज ने कहा, हाँ
करता तो हूँ! परन्तु क्यों यह नही कह सकता। इतना जरूर कह सकता हुँ कि ये सब हमें
अच्छा लगता है। स्वामी जी हँसकर बोले, बस इसलिये मैं भी फकीर बन
इधर उधर भटकता हुँ क्योंकि ये मुझे अच्छा लगता है। कुछ वार्तालाप के बाद अलवर महाराज समझ गये कि ये
युवा सन्यासी विद्वान ही नही बल्की निर्भिक एवं स्पष्टवादी भी है। जिज्ञासावश
महाराज ने पुनः एक प्रश्न किया, उन्होने पूछा- “स्वामी जी मूर्तीपूजा में मेरा जरा भी विश्वास
नही है। इसके लिये मेरी क्या दुर्गती होगी?”
महाराज को हँसते हुए देख स्वामी जी संदिग्ध
दृष्टी से उनकी ओर देखकर बोले, क्या महाराज मेरे साथ मजाक कर रहे हो! अलवर महाराज आग्रह से बोले, स्वामी जी ये सच है,
मैं लकङी, मिट्टी, पत्थर या धातु की मूर्ती के प्रति श्रद्धा भक्ती नही कर सकता! क्या इसके लिये मुझे
परकाल में सजा भुगतनी पङेगी?
स्वामी जी ने बङे ही आत्मियता से समझाया कि, अपने
विश्वास के अनुसार उपासना करने पर परकाल में सजा क्यों मिलेगी, मूर्तीपूजा में यदि
विश्वास नही है तो क्या हुआ। स्वामी जी का उत्तर सुनकर वहाँ उपस्थित सभी श्रोतागणं
विस्मय से सोचने लगे कि, मूर्तीपूजा में विश्वास रखने वाले स्वामी जी मूर्तीपूजा
के पक्ष में दलील क्यों नही दिये?
इतने में ही स्वामी जी की नजर दिवार पर टंगी
महाराज की तस्वीर पर पङी। स्वामी जी ने उस तस्वीर को उतरवाया और उसे जमीन पर रख
दिये। स्वामी जी ने, दिवान बहादुर एवं अन्य सभागंण से कहा कि आप इसपर थूक दिजीये। दिवान बहादुर एवं अन्य सभागंण अचम्भे से स्वामी
जी को देखने लगे और किंकर्तव्यविमूढ हो सोचने लगे कि स्वामी जी की अब खैर नही। तभी
स्वामी जी अपनी बात पुनः दोहराये। आखिर अंत में दिवानबहादुर बोले क्या! स्वामी जी आप इसपर
थूक सकते हैं?
स्वामी जी हँसकर बोले महाराज जी के चित्र में
महाराज तो हैं नही, ये तो कागज का टुकङा है, फिर आप लोग ऐसा क्यों नही कर सकते? बात को आगे बढाते
हुए स्वामी जी बोले, मैं जानता हूँ, आप लोग ये कृत्य नही कर सकते क्योंकि आपलोग
समझते हैं कि ऐसा करने से महाराज का अपमान होगा। यह सुनकर उपस्थित सभी लोगो ने
स्वामी जी की बात का सर्मथन किया।
अब स्वामी जी महाराज की तरफ मुखातिब होकर बोले- “ देखिये महाराज एक
दृष्टी में विचार करने पर आप इसमें नहीं हैं, किन्तु दूसरों की दृष्टी से देखा जाए
तो, इस चित्र में भी आपका अस्तित्व है। इसलिये कोई भी इसपर थूकने के लिये तैयार
नही हुए क्योंकि ये आपके अनुरक्त एवं विश्वस्त सेवक हैं। ये लोग ऐसा कोई काम नही
करेंगे जिससे आपका अपमान हो। “ ठीक इसी तरह धातु की बनी भगवान की मूर्ती में भक्त की आस्था होती है,
उसे उसमें अपने आराध्य का रूप दिखता है और वो उसीपर अपनी श्रद्धा रखता है। मैने
आजतक किसी भी हिन्दु को ये कहते नही सुना कि, हे पत्थर, हे धातु मैं तुम्हारी पूजा
कर रहा हुँ, तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ। दृणनिश्चयी एवं अभूतपूर्व विश्वास के साथ स्वामी
जी महाराज से बोलेः- महाराज सभी भक्तगंण अपने-अपने उपासक का इन धातुओं में साकार
रूप देखते हैं और उनकी उपासना करते हैं। उनके लिये ये धातु नही बल्की आराध्य का
स्वरूप होता है। जिसके प्रति उनका सर झुकता है।
स्वामी जी के निर्भिक तर्क से अलवर महाराज थोङी
देर तक तो निःशब्द हो गये, थोङा रुक कर बोले- “स्वामी जी आपने आज ज्ञान की आँखे खोल दी। चरणस्पर्श करते हुए स्वामी
जी से आर्शिवाद एवं कृपा की कामना करने लगे।
स्वामी जी मुक्तहद्रय से कल्याण बरसाते हुए बोले-“ एक मात्र भगवान के
अतिरिक्त कृपा करने का अधिकार और किसी को भी नही है। आप सरल शुद्ध भाव से उनके
चरणों में शरण लीजीये, वे अवश्य ही आप पर कृपा करेंगे।
मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ती न होगी कि स्वामी
विवेकानंद जी कभी भी अपनी बात मनवाने के लिये किसी को भी बाध्य नही करते थे। वो
लोगों की शंका का समाधान बहुत ही सरल एवं सहज ढंग से करते थे। किसी भी बात को
लॉजिक के साथ उदाहरण देकर समझाते थे। इसीलिये आजका यानि 21वीं सदी का भी युवा उनको
अपना आदर्श मानता है। आधुनिक संसाधनो से युक्त युवा वर्ग स्वामी जी की शिक्षाओं को
आत्मसात करते हुए विकास की ओर बढ रहा है। युवा सन्यासी स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस को
“युवादिवस” के रूप में मनाना
हम सभी के लिये गौरव की बात है। स्वामी जी के कुछ आर्शिवचन--
“जिस तरह से विभिन्न
स्रोतों से उत्पन्न धाराएँ अपना जल समुद्र
में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य
द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता है।”
“जब तक आप खुद पे
विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते।”
“उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि
तुम निर्बल हो , तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो , तुम तत्व नहीं हो , ना ही शरीर हो , तत्व तुम्हारा सेवक है
तुम तत्व के सेवक नहीं हो”
“मानव सेवा ही सच्ची
ईश्वर सेवा है”
आओ, सब मिलकर शत्-शत् नमन करें।
जय भारत
अनिता शर्मा
जय भारत
अनिता शर्मा
Bahut achcha laga padh kar....waaki murti waali ghatna badi hii rochak thi....Siddh purushon kii baat hii kuch aur hoti hai. Yah sab share karne ke liye thanks.
ReplyDeleteThanks,Gopal
Deleteआप अच्छा काम कर रही है अनीता जी . मेरी और से शुक्रिया ..
ReplyDeletejitendra bhanderi
www.jitenpatel.in
the best motivational vebsite