युगपुरूष स्वामी विवेकानंद जी, बचपन से ही समाज
के प्रति निःस्वार्थ होकर कार्य करते थे एवं छुआ-छूत पर विश्वास नही करते थे। उनके लिये अमीर-गरीब,
ऊँच-नीच तथा सभी जाती के लोग एक समान थे। हिन्दु घरों में माने जाने वाले देशाचार
और लोकाचार को बचपन से ही नही मानते थे। पिता (विश्वनाथ) के, एक पेशावर मुस्लिम
मुवक्किल थे, नरेन्द्र अक्सर उनकी गोद में बैठकर पंजाब तथा अफगानिस्तान की
कहानियाँ एकाग्रचित से सुनते थे। नरेन्द्र उनसे इतने अनुरक्त हो गये थे कि उनके
हाँथ से संदेश(मिठाई), फल आदि खाने में जरा भी सोच विचार न करते थे। उनके इस कृत्य
को घर वाले पसंद नही करते थे किन्तु, विश्वनाथ दत्त कट्टरपंथी हिन्दु नही थे। सभी
जाति के लोग उनकी दृष्टी में एक सी प्रीती एवं श्रद्धा के पात्र थे। अतः पुत्र का
ये आचार उनकी निगाह में दण्डनिय नही था।पिता के साथ से उन्हे जाति-पाँति में
विश्वास न करने हेतु प्रेरणा मिलती थी। दीन दुःखियों के प्रति अपार श्रद्धा लिये स्वामी
जी, जब बैलूरमठ में थे वहीं की एक मर्मस्पर्शी घटना आप सभी से Share कर रहे हैं।
बैलूरमठ की जमीन को साफ करने के लिये प्रतिवर्ष
कुछ संथाल स्त्री-पुरुष आते थे। स्वामी जी उनके साथ कभी-कभी हँसी-मजाक करते थे,
उनके सुख-दुःख की बातें बङे ध्यान से सुनते थे। एक दिन की बात है कि, कुछ विशिष्ट्
भद्र पुरुष स्वामी जी से मठ में मिलने आये, उस समय स्वामी जी संथालों के साथ उनकी आपबीती
सुन रहे थे। स्वामी जी, सुबोधानंद से बोले कि अब मैं किसी से न मिल सकूँगा आज मैं
इनके साथ बङे मजे में हुँ। वास्तव में स्वामी जी, उस दिन संथालो को छोङ कर भद्र
महोदय से मिलने नही गये। उन्ही संथालो में केष्टा नाम के एक व्यक्ती को स्वामी जी
बहुत स्नेह करते थे। जब कभी स्वामी जी उससे बात करने जाते तो वह बोलता कि ‘ असे स्वामी बाप, तू
हमारे काम के समय यहाँ न आया कर-तेरे साथ बात करने पर मेरा काम बन्द हो जाता है और
बूढा बाबा(स्वामी अदैव्तानंद) आकर हमें बकता है। ’ यह बात सुनकर स्वामी जी की आँखों में आँसु भर
आये और वे बोले, चिन्ता न करो अब बूढा बाबा तुम्हे कुछ नही कहेगा, यह कह कर वे
वापस उनके सुख-दुःख की बातें छेङ देते थे।
एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा कि, क्या तुम
लोग हमारे यहाँ खाना खाओगे? केष्टा बोला अब हम तुम्हारा छुआ नही खाते, हमारी शादी हो गई है, तुम
लोगों का छुआ नमक खाने पर जात चली जायेगी। स्वामी जी बोले, नमक क्यों खायेगा ? बिना नमक की तरकारी
पका देंगे तब तो खाओगे। केष्टा इस बात पर राजी हो गया। स्वामी जी के निर्देश पर मठ
में बिना नमक की तरकारी, मिठाई, दही आदि का प्रबंध किया गया और स्वामी जी उन्हे
स्वयं बैठकर खिलाने लगे। इतना स्वादिष्ट खाना खा कर केष्टा आश्चर्य से बोला कि
स्वामी बाप, “तुम्हे ऐसी चीजें कहाँ से मिलीं हमने तो कभी ऐसा खाना नही खाया।“
स्वामी जी उन्हे संतोष पूर्वक खिलाकर बोले तुम सब
मेरे नारायंण हो- “आज मेरे नारायंण का भोग हुआ है।“ उपरोक्त प्रसंग ये परिलाक्षित करता है कि उन्हे दूसरों की व्यथा का
अनुभव हो जाता था। वे समझते थे कि संथालों का भी मन करता होगा पकवान खाने का, अतः
उन्होने ये आयोजन किया था।
स्वामी जी के मन में दुःखी, दरिद्र एवं असहायों
के प्रति अपार स्नेह था। उनका अपने साथी भिक्षुकों से कहना था कि, “सब लोग मिलकर
गाँव-गाँव घूमकर चरित्र और साधना के बल पर धनवानो को समझाकर धन संग्रह करके लाएं
और दरिद्रनारायणों की सेवा करते हुए जीवन बिता दें।“ स्वामी जी की दृष्टी में मेहतर, परिश्रम करने
वाले मजदूर, बढई, किसान आदी राष्ट्र की रीढ हैं। एक दिन शहर में साफ सफाई न हो तो
हाहाकार मच जाता है। स्वामी जी का ये मानना था कि किसी भी राष्ट्र का विकास तभी हो सकता है
जिसके सभी वर्गों का सम्मान हो। राष्ट्र एक शरीर के समान है। उसके एक अंग की भी
अवहेलना से भले ही अन्य अंग सबल हों किन्तु शरीर(राष्ट्र) सर्वशक्ती सम्पन्न नही
हो सकता।
मित्रों, स्वामी जी सभी को एक ही दृष्टी से देखते
थे, सच ही तो है सभी में एक ही रक्त बहता है, सभी एक ही ब्रह्म की शक्ती से धरती
पर आए हैं। वो तो हम हैं कि यहाँ जाती-पाँति और ऊच-नीच का भेद बना लिये हैं।
स्वामी जी अपने अथक सेवाव्रत को सदैव वास्तविक रूप में चरितार्थ किये हैं। स्वामी
जी के उपदेश उनके द्वारा किये सद्कार्यों का ही रूप हैं। स्वामी जी के उपदेश के
साथ कलम को विराम देते हैं एवं 150वीं ज्यन्ती पर स्वामी जी के जीवन प्रसंग को
यादकर अपनी भावांजली अर्पित करते हैं।
“जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार
होता है,
वह कभी नेता
नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं
रुकता,
उसके चरणों में
सारा संसार झुक जाता है।“
जय भारत
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