जय हिन्द का
नारा बुलंद करते हुए भारत के महानायक सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की आजादी के लिये
अपना सर्वस्य न्यौछावर कर दिया था। अपने ओजस्वी भाषणों से मातृभूमि की रक्षा हेतु
अनेक वीर सपूतों की फौज बनाने वाले सुभाष चन्द्र बोस से अंग्रेज सरकार भी भयभीत
रहती थी क्योंकि सुभाषचंद्र बोस,
उनके
सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे। रविन्द्रनाथ टैगोर, उन्हे नेता जी
पुकारते थे। तपस्वी एवं त्याग तथा बलिदान की प्रतिमूर्ती सुभाष चन्द्र बोस की 116
वीं ज्यन्ती (23 जनवरी, 1897) पर, भावांजली भरे शब्दों से नमन करते हैं। इस पावन
पर्व पर भारत के दो
युगपुरुषों के मध्य हुई बात-चीत जो हमारे गौरवशाली इतिहास की धरोहर है।
प्रसंग उस वक्त का है जब दूसरे विश्व युद्ध की घेषणा हो गई थी।
भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सुभाष चन्द्र बोस का केवल एक ही लक्ष्य था, भारत
माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराना। इसी उद्देश्य हेतु सुभाष चन्द्र
बोस, जून 1940 में महात्मा गाँधी जी से मिलने सेवाग्राम गये थे।
उस वार्तालाप
में गाँधी जी ने सुभाष से कहा, “तुम्हारा आग्रह है कि जन-आन्दोलन छेङ
दिया जाए। तुम संर्घष में ही निखरते हो तुम्हारा देशप्रेम और भारत को स्वतंत्र
कराने का तुम्हारा संकल्प साहस से पूर्ण एवं बेजोङ है। तुम्हारी निष्ठा पारदर्शी है। आत्मबलिदान और
कष्ट सहने की भावना तुममें कूट-कूट कर भरी है। लेकिन मैं चाहता हुँ कि इस गुण का
उपयोग सही समय पर किया जाये। ”
यह सुनकर सुभाष
बाबु का कहना था कि- “इंग्लैण्ड इस युदध में जीते या हारे, इतना निश्चित है कि वह कमजोर हो
जायेगा। उसमें इतनी शक्ति न रहेगी कि वह भारत के प्रशासन की जिम्मेदारी ढो सके।
तद्पश्चात हमारे थोङे से प्रयास से ही वह भारत की स्वतंत्रता को मान्यता दे देगा,
किन्तु गाँधी जी के अनुसार आन्दोलन शुरू करने का ये वक्त उचित न था, उनके अनुसार
सही समय इंतजार करना चाहिये।“
सुभाष चन्द्र
बोस अधीर होकर बोले... “बापु यदि आप ललकारें तो समूचा राष्ट्र आपके पिछे खङा हो जायेगा।“
मगर बापु अपनी
बात पर डटे रहे, सुभाष बाबु को समझाते हुए बोले.. “भले ही समुचा राष्ट्र तैयार हो, फिर
भी मुझे वो काम नही करना चाहिये, जिसके लिये ये घङी उपयुक्त नही है।“
सुभाष के मन
में तो स्वाधीनता की आग पूरे चरम पर धधक रही थी, “व्याकुल होते हुए गाँधी जी से प्रार्थना
भरे स्वर में आर्शिवाद की कामना लिये बोले... बापु आजादी का आन्दोलन छेङने के लिये
आर्शिवाद दिजीये।“
गाँधी जी बोले,
सुभाष, तुम्हे मेरे आर्शिवाद की आवश्यकता नही है।.... तुम्हारे अंदर एक महान
राजनेता के गुणं विद्यमान हैं और तुम्हारा अंतः करण कह रहा है कि शत्रु पर आक्रमण
के लिये यही वक्त उपयुक्त है तो आगे बढो और भरपूर चेष्टा करो। तुम सफल रहे तो मैं
तुम्हारा अभिन्नदन सबसे पहले करुँगा।
अन्तोगत्वा
सुभाष, बापु को अपनी बात न मनवा सके और निराश होकर 16 जनवरी, 1941 को भारत छोङ कर
विश्व की अन्य शक्तियों से मदद की तलाश में निकल पङे और फिर कभी विदेश न लौटे।
6 जुलाई 1944
को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का
अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के
उद्येश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका
आशिर्वाद माँगा था। इस प्रकार नेताजी ने, गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया था।
देशभक्त सुभाष
चन्द्र बोस को जन्म दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं एवं सुभाष चन्द्र बोस
जी के कथन के साथ अपनी कलम को विराम देते हैं।
“कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के जरिए असफल नहीं हो सकता, अगर वह पृथ्वी पर कोई
चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ हासिल कर लेगा।“
जय हिन्द
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