Monday, 11 January 2016

स्वामी विवेकानंद द्वारा बैलूर मठ में गुरु रामकृष्ण परमहंस का पदार्पण


जिस तरह विभिन्न स्रोतों की धाराएं अपना जल समुन्द्र में मिला देती हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना गया हर रास्ता भगवान तक जाता है। ऐसे ही विचारों को मन में संजोए स्वामी विवेकानंद जी को अपने गुरु श्री रामकृष्ण के चरणों में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड नजर आता था। गुरु के प्रति विवेकनंद जी की भक्ति को शब्दों में अभिव्यक्त करना असंभव है।  श्री रामकृष्ण मठ के सभी भक्तों के लिये  9 दिस्मबर का दिन बहुत ही स्मरणीय दिन है।  ब्रह्म मुहर्त में स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरु भाईयों और शिष्यों के साथ गंगा जी में स्नान करके नवीन गैरिक वस्त्र पहना। विशेष अनुष्ठान की पूजा का दायित्व स्वामी जी ने स्वयं ले लिया था। ध्यान, उपासना तथा नित्य पूजादी समाप्त करके, स्वामी विवेकानंद श्री रामकृष्ण के देहावशेष वाले पवित्र पात्र को दक्षिण कंधे पर रखकर बैलूर मठ की ओर चल पङे। उनके पीछे अन्य गुरुभाई तथा शिष्य, शंख और घंटे के साथ रामकृष्ण का जयघोष करते हुए चलने लगे। श्री रामकृष्ण का उच्चारण अपूर्व आनन्दोल्लास उत्पन्न कर रहा था। भाव-विभोर हुए स्वामी विवेकानंद अपने गुरु के एहसास को बैलूर मठ में स्थापित करने जा रहे थे। स्वामी जी को ध्यान आया कि एक बार श्री रामकृष्ण जी ने कहा था कि, तू कंधे पर चढाकर मुझे जहाँ भी खुशी से ले जायेगा, मैं वहीं पर रहुँगा। सभी गुरु भाई इसी विश्वास से आगे बढ रहे थे कि, श्री रामकृष्ण की दिव्य उपस्थिति से पवित्रता, आध्यात्मिका तथा समस्त मानव जाति के आदर्श की रक्षा होगी। 

मठ प्रांगण में रचित वेदी पर पवित्र पात्र को रखकर सभी सन्यासी और ब्रह्मचारियों सहीत स्वामी विवेकानंद, भूमी पर लोट-लोट कर महान गुरुदेव को बारंबार प्रणाम करने लगे। उसके बाद स्वामी जी ने यथाविधि पूजा समाप्त करके यज्ञाग्नि प्रज्वलित किये। स्वामी जी के मुख से वेद मंत्रों का स्वर विणा की ध्वनी के समान चारों दिशाओं में झंकृत हो रहा था। स्वामी जी ने श्री रामकृष्णसन्तानों को बुलाकर कहा, बन्धुओं आओ लोक कल्यांण के अवतरित अपने प्रभु से प्रार्थना करें कि वे अंनतकाल तक इस पवित्र स्थान पर निवास करें। इस मठ के कर्म केन्द्र से 'बहुजन हिताय' 'बहुजन सुखाय',   सर्वधर्म तथा सर्वसम्प्रदाय को मानने वाले भाव की धारा का प्रवाह हो। 

स्वामी विवेकानंद जी, श्रीरामकृष्ण जी के उपदेशों तथा आदर्शों को जनसाधरण तक पहुँचाना चाहते थे। इसके लिये उन्होने पाक्षिक पत्र प्रकाशित करने का विचार अपने गुरु भाईयों के समक्ष रखा। इस कार्य को मूर्तरूप देने में गुरुभाई त्रिगुणातीतानन्द जी ने सम्पूर्ण योगदान दिया। 14 जनवरी 1899 को इस पत्रिका का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। स्वामी विवेकानंद जी ने इस पत्र का नाम उद्बोधन मनोनित किया और इस पत्र की प्रस्तावना उन्होने ही लिखी।त्रिगुणातीतानन्द जी  इस पत्र का संचालन करते थे। पत्र के प्रति उनकी निष्ठा तथा त्याग को स्वामी विवेकानंद जी बहुत उत्साहित करते थे। स्वामी विवेकानंद जी, जीवन पर्यन्त अपने गुरु श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं तथा आदेशों का पालन करते रहे। विश्व कल्यांण का संक्लप उन्होने इस तरह निभाया कि उसका एहसास आज भी विश्व में गुंजायमान है। स्वामी विवेकानंद जी की शिक्षाओं तथा आर्दशों को हम सबको भी जीवन में अपनाना चाहिये तथा  वसुधैव कुटुंबकम की भावना को जिवंत रखना चाहिये। स्वामी जी के जन्मदिवस पर शत्-शत् नमन एवं वंदन करते हैं। 
जय भारत
अनिता शर्मा 

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